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आनन्दधनजी के सम्पर्क में आये होते या उपाध्याय श्री यशोविजयजी का बालावबोध भी देखा होता तो वे स्तवनों का विवेचन उच्च कोटि का करते। यह विवेचन उन्होंने सं० १७६९ में अर्थात् अपनी ७५ वर्ष की आयु में आनन्दघनजी के निधन के ३० वर्ष बाद में किया। ज्ञानविमलसूरि का जन्म सं० १६९४, दीक्षा सं० १७०२ पन्यास पद सं०१७२७ में विजयप्रभसूरिजी द्वारा मिला । एवं आचार्य पद १७४८ व स्वर्गवास १७८२ में हुआ। यदि ये श्रीमद् आनन्दघनजी के सम्पर्क में आये होते तो अपने बालावबोध के अन्त में यह नहीं लिखते कि-"लाभानन्दजी कृत स्तवन एटला २२ दीसइ छइ, यद्यपि बीजा बे हस्ये तोही आपणा हाथे नथी आव्या।" वे श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज से सं० १७७७ में पाटण में मिले थे, उनके द्वारा सहस्रकूट जिनों की नामावली ज्ञात कर विद्वत्ता से बड़े प्रभावित हुए थे।
___ आनंदघनजी की चौवीसी पर दूसरा बालाववोध सं० १८६६ में श्रीमद् ज्ञानसारजी महाराज द्वारा लिखा गया जो उच्चकोटि के विद्वान
और वयोवृद्ध मस्त योगी थे। उन्होंने लगभग चालीस वर्ष पर्यन्त प्रस्तुत चौबीसी का अध्ययन किया था फिर भी आनंदघनजी के गंभीर आशय का आकलन नहीं कर सके पर जो कुछ अध्ययन किया स्वयं को संतोष न होने पर भी श्रावकों/मुमुक्षुओं के आग्रह से जैसा बन पड़ा बालावबोध लिखा।
आचार्य श्री ज्ञानविमलसूरिजी का टब्बा श्री ज्ञानसारजी के अध्ययन की कसौटी में खरा नहीं उतरा। अनेक स्थानों में अर्थ स्खलना व अविचार पूर्ण टब्बा होने से उसकी मार्मिक आलोचना की है किन्तु उसका मनमाना संक्षिप्त प्रकाशन भीमसी माणक ने किया जिसमें से आलोचना के अंश बाद देकर प्राणहीन कर दिया है। यहाँ अध्ययनशील पाठकों की जानकारी के हेतु उन समालोचनात्मक अंशों को दिया जाता है।
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