Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 357
________________ ८०. मृत और दरिद्र को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष एक नैतिक जीवन की प्रेरणा देने वाला जीवनसूत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। नैतिक जीवन शुद्ध हुए बिना आध्यात्मिक जीवन की शुद्धि की आशा रखना वृक्ष के मूल के दियासलाई लगाकर पत्तों को सींचना है। इसीलिए महर्षि गौतम इस बात पर जोर दें रहे हैं, कि व्यावहारिक जीवन को नीतिसमृद्ध बनाये बिना केवल आध्यात्मिकता की थोथी बातें करना अपने आपको दरिद्र बनाना है। दरिद्र और मृतक में कोई खास अन्तर नहीं है। गौतमकुलक का यह ६६वां जीवनसूत्र है। इसमें स्पष्ट बताया गया है मुआ दरिदा य समं विभत्ता -मृत और दरिद्र दोनों समान माने जाते हैं । दरिद्र कौन है ? वह मृत-सम क्यों और कैसे हो जाता है ? दरिद्रता और मर्दापन दोनों में कितना साम्य है ? दरिद्रता-निवारण न करने से क्या-क्या हानियाँ हैं ? आदि सभी पहलुओं पर आज मैं चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। दरिद्र : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण दरिद्र का अर्थ सामान्यतया निर्धन समझा जाता है, परन्तु यह तो इसका स्थूल अर्थ है । दरिद्र केवल धन का ही नहीं होता, मन का भी होता है, तन का भी और नैतिकता का भी । धन के दरिद्र को तो सभी जानते हैं, परन्तु मन के दरिद्र को बहुत विरले पुरुष जान पाते हैं । मन का दरिद्र वह होता है, जो मन से अपने आपको दीन-हीन, निर्धन समझता है । कई व्यक्ति ऐसे भी देखे गये हैं, जो तन से भी दरिद्र नहीं हैं, किन्तु जिनके मन में दरिद्रता बस गई है । जो यह कभी नहीं सोच सकते और न ही आत्म विश्वास कर पाते हैं कि मैं अपनी दरिद्रता दूर कर सकता हूँ। मन से दुर्बल और दरिद्र लोग यही सोचा करते हैं कि भाग्य में ही दरिद्रता न लिखी होती तो हम एक दरिद्र के घर में जन्म क्यों लेते ? क्या हमारा जन्म किसी भाग्यवान् के यहाँ नहीं होता ? इसके अतिरिक्त जब ऐसे मनोदरिद्री अपने चारों और यह भी देखते हैं कि धन के बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता तब वे स्वयं किसी भी कार्य को उत्साह पूर्वक करने का विचार भी नहीं कर सकते। अपने चारों ओर की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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