Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 3
________________ प्रस्तावना । यद्यपि यह ग्रन्थ ही प्रस्तावना रूप होने से इससे अतिरिक्त प्रस्तावना की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि यह नियम है कि 'कारण के विना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती इस लिये इस ग्रन्थ के बनाने में भी कोई न कोई कारण अवश्य ही होना चाहिये, अतएव इस ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखने के उद्देश्य से अगर दो वचन कहे भी जायँ तो अस्थान पर अथवा अप्रस्तुत नहीं गिने जायँगे । कथन करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि इस नये जमाने में जिस रीति से अनेक प्रकारके प्राचीन, अर्वाचीन, मूलग्रन्थ, भाषान्तर, प्रबन्ध, निबन्ध, नोबेल और भजन कीर्त्तनादिकी किताबें प्रकट होती है, उसी भांति यह 'अहिंसादिग्दर्शन' ग्रन्थ भी प्रकट हुआ है । मुझे इस ग्रन्थ के बनानेका कारण दिखलाते हुए सखेद कहना पड़ता है कि धर्मशास्त्रों में ' अहिंसा परमो धर्मः ' 1 मा हिंस्यात् सर्वाभूतानि इत्यादि महर्षियों के वाक्यों को दृष्टिगत करते हुए और समझते हुए भी हमारे कितनेही भारतवासी, हिन्दु-नामधारी मांसहार से बचे नहीं हैं, ऐसे और भी लोग जो धर्मशास्त्रको नहीं जानकर केवल जिह्वेन्द्रिय की लालच से मांसहार करते हैं उन पर करुणाभाव होने से इस ग्रन्थ के लिखनेका विचार हुआ और उपर्युक्त हेतुसे ही शास्त्र, स्वानुभव और लोकव्यवहार को लक्ष्य में रख कर यह निबन्ध लिखा गया है। इस निबन्ध में, पाठकों को रागद्वेष न होने पावे

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