Book Title: Agam Suttani Satikam Part 16 Nishitha Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Agam Shrut Prakashan View full book textPage 7
________________ निशीथ-छेदसूत्रम् -२-७/४७२ बज्झति, हस्थि-दंतेसुदंतमयी, वराडगेसुकवडगमयी।महिससिंगेसुजहा पारसियाणं, पत्तमालिया तगरपत्तेसुमाला गुज्झति। ____ अहवा - विवाहेसु अनेगविहेसु अनेगविहो वंदनमालियाओ कीरंति । फलेहिं गुजातितेहिं रुद्दक्खेहिं वा पुत्तंणीवगेहिं वा वोंडीवमणे तप्फलेहि वा माला कीरति । अन्नेन वा कारवेइ, अनुमोयति वा । कयं वा अपरिभोगत्तणेणधरेति, पिणद्धतिअप्पणो सरीरं आभरेति, सव्वेसुवि मेहुणपडियाए। एत्थ एकेक्काओ पदात आणादिया दोसा आय-संजम-विराधना य भवति ।। [भा.२२८८] तणमालियादिया उ, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। मेहुण्ण-परिन्नाए, ता उधरतस्स आणादी॥ [भा.२२८९]तण-वेत्त-मुंज-कट्टे, भिंड-मयण-मोर-पिच्छ-हड्डमयी। ___ पोडियदंते पत्तादि, करे धरे पिणिद्धे आणादी। [भा.२२९०] सविकारो मोहुद्दीरणा य वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेन दंडिग, गोमिय भाराधिकरणादी॥ चू-सलिंगातो सविकारया लब्भति, आय-पर-मोहुदीरणंवा करेति, सुत्तत्थेसुवा पलिमंथो, सरागो वा लब्मति, अमाइण्णं तित्थकरेहि य अदिन्नं, तेणगेहिं वा तदट्ठाए घेप्पति, असाहु त्ति काउंदंडिगेहि वाघेप्पति, गोम्मिएहिंघेप्पति, भारेणयआयविराहणा, अनुवकारित्तायअधिकरणं भवति, फालण-छिंदणघंसणादिएसुंवा आतविराहणा, झुसिराझुसिरेहिं यसंजमविराहणा, लोगे य उड्डाहो । जम्हा एते दोसा तम्हा न करेति, नो धरेति, नो पिणद्धति । भवे कारणं[भा.२२९१] बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा विदुविध तेइच्छे। अभिओग असिव दुब्भिक्खमादिसू जा जहिं जतणा।। चू-अणप्पज्झोसव्वाण विकरेज, न य पच्छित्तं । अप्पज्जो वा दुविधतेइच्छेतारिस खरियादीणं आराहणट्ठाए करेज्ज । ताहे ताओ लोभावियाओ पडिसेवणं देज्ज । पढमंता जाओ अप्पमोल्लाओ वा पच्छा बहुमोल्लाओ । एवं दुभिक्खे विभेंडगादि कण्णपूरगादि काउं दंडियस्स उवठ्ठविजंति, सो परितुट्ठो भत्तं दाहिति॥ मू. (४७३)जे भिक्खूमाउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणि वातंब-लोहाणि वा तउयलोहाणि वा सीसग-लोहाणि वा रुप्प-लोहाणि वा सुवण्ण-लोहाणि वा करेति, करेंत वा सातिजति ॥ मू. (४७४] जे भिक्खूमाउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणिवातंब-लोहाणिवा तउयलोहाणि वा धरेइ, धरेतं वा सातिजति॥ मू. (४७५] जेभिक्खूमाउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणिवातंब-लोहाणिवा तउयलोहाणि वा सीसग-लोहामि वा रुप्प-लोहाणि वा सुवण्ण-लोहाणि वा परि जति, परिभुंजंतं वा सातिजति॥ चू-हिरण्णं रुप्पं[भा.२२९२] अयमादी लोहा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । मेहुण्ण-परिन्नाए, एताइ धरेतस्स आणादी॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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