Book Title: Agam Shabdakosha Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ भूमिका जैन आगमों में विशाल ज्ञान राशि भरी पड़ी है। उसका उपयोग अभी कम हुआ है । वैज्ञानिक दृष्टि से उस पर अन्वेषण और अनुसंधान कार्य लगभग हुआ नहीं है, इसलिए वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में उसे उपेक्षित ज्ञान राशि कहा जा सकता है। इस बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्वानों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। कुछ-कुछ कार्य भी प्रारम्भ हुआ है, किन्तु आधुनिक साहित्य के अभाव में कार्य करने की पर्याप्त सुविधा अभी नहीं है । आधुनिक शैली से काम करने के लिए सबसे पहली अपेक्षा शब्दकोश की है। जैन आगमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत के दो प्राचीन शब्दकोश मिलते हैं—पण्डित धनपाल (वि० सं० १०२९) द्वारा रचित पाइअलच्छि नाममाला और आचार्य हेमचन्द्र (वि० सं० ११४५-१२२१) द्वारा रचित देशीनाममाला । इनसे आगम सूत्रों का अनुसंधान कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकता। इनकी उपयोगिता अवश्य है, पर ये इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वर्तमान में प्राकृत का एक शब्दकोश पण्डित हरगोविन्ददास का 'पाइअसदमहण्णवो है' और दूसरा स्थानकवासी मुनि रतनचन्दजी का अर्ध-मागधी शब्दकोश है । तीसरा अभिधान राजेन्द्रकोश है । पाइअसद्द महण्णवो प्राकृत का सर्वश्रेष्ठ शब्दकोश है। अभी तक इस कोटि का दूसरा कोई प्राकृत शब्दकोश उपलब्ध नहीं है । पर इस वास्तविकता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उसमें आगमों के सभी शब्द संगृहीत नहीं हैं। कठिनाई से पचास प्रतिशत शब्द उसमें सम्मिलित किए होंगे। जो शब्द लिए गए हैं, उनमें भी अनेक शब्द अशुद्ध हैं। उस समय आगमों के संशोधित पाठ के संस्करण प्रकाशित नहीं हुए थे। इस समस्या का पण्डितजी ने स्वयं उल्लेख किया है।' उन्होंने अपनी ओर से अशुद्ध हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थों के शब्दों को शुद्ध करने का प्रयत्न किया है, फिर भी उनकी समस्या का पूरा समाधान नहीं हो सका । प्रस्तुत कोश में प्रमाण-स्थल भी प्रायः एक-एक दिया गया है। शोधकार्य के लिए अपेक्षित है समस्त प्रमाण-स्थलों का निर्देश आगमों के शुद्ध संस्करणों के अभाव में प्रमाण-स्थलों का सम्यक् निर्देश भी नहीं हुआ है। प्रमाण-स्थल का अपूर्ण निर्देश संधावारणावा० १.५ खग्गी - ठा० २,३ खज्जग - भ० १५ चुलगी - णाया० १, १६ नाया० १।१६।१२२ नाया० १।११।२, ४, ६ पुरेवाय - णाया० १, ११ प्रस्तुत शब्दकोश में निरुक्त और सन्दर्भ-पाठ भी नहीं दिए गए हैं। इस दृष्टि से आगम अध्येताओं के अध्ययन और अनुसंधान कार्य में यह बहुत सहयोगी नहीं बनता । अर्धमागधी को पासमहणवो से भी संभवतः कम उपयोगी है। 'पाइअसमहणवो' में जो आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, वह उसमें नहीं है। अभिधान राजेन्द्रकोश आकार में बहुत बड़ा है। किन्तु उसका प्रकार सर्वथा १. प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी द्वारा प्रकाशित । २. पाइअसहमणवो, द्वितीय संस्करण, पृ० १४ । Jain Education International प्रमाण-स्थल का पूर्ण निर्देश नाया० १२८।१५० १६३ For Private & Personal Use Only ठा० २।३४१ भ० १५।३२ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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