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प्रकाशकीय
भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी (सन् १९७४) के अवसर पर जैन विश्व भारती द्वारा ग्यारह अंगों को अंगसुत्ताणि के तीन भागों में प्रकाशित किया गया था।
अंगसूत्ताणि के प्रथम खंड में आयारो, सूयगडो, ठाणं और समवाओ-ये चार अंग समाविष्ट थे। अंगसुत्ताणि के द्वितीय खंड में भगवई अंग समाविष्ट था।
अंगसुत्ताणि के तृतीय खंड में णायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अन्तगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइं और विवागसुयं-ये ६ अंग समाविष्ट थे।
उक्त प्रकाशन की अनेक विशेषताओं में से एक यह है कि पाठ-संशोधन का कार्य प्राचीनतम पाण्डुलिपियों के आधार पर किया गया है और सारे पाठांतर पाद-टिप्पणों में उद्धृत हैं।
'जाव' की पूर्ति बड़ी खोज के साथ प्रामाणिक रूप से की गयी है। पाठ को अनेक सूत्रों में बांटते हुए अन्तर्शीर्षकों के द्वारा सूत्रों के विषय को सूचित कर दिया गया है । इस तरह सारे अंग सुसंपादित होकर विद्वानों के सामने उपस्थित हुए हैं।
इन सब कारणों से विद्वानों के द्वारा उक्त प्रकाशन का बड़ा अच्छा स्वागत हुआ और आज तक उपलब्ध संस्करणों में सर्वोत्तम माना गया।
उक्त रूप से प्रकाशित ११ अंगों की शब्द-सूची-आगमकोश के इस प्रथम भाग में प्रस्तुत की जा रही है। प्रत्येक शब्द के साथ मूल-स्थान का पूरा संदर्भ दे दिया गया है। इस तरह अंगों पर अनुसंधान कार्य करने वाले विद्वानों के लिए यह प्रकाशन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा, इसमें संदेह नहीं।
यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सम्पादकत्व में सम्पन्न हुआ है। अनेक साधु-साध्वियों का श्रम इसमें लगा है। एक दुरूह कार्य को बड़ी सजगता के साथ सम्पन्न किया गया है। हम इसके लिए युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी, युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ एवं साधु-साध्वियों के प्रति श्रद्धानत कृतज्ञ हैं।
समस्त अंगों की एक शब्द-सूची का अभी तक अभाव था। इस दिशा में यह पहला प्रकाशन है और एक बहुत बड़ी आवश्यकता की पूर्ति करता हुआ भावी अनुसंधान कार्य का विस्तृत द्वार उन्मुक्त करता है।
श्रीचन्द रामपुरिया
अध्यक्ष
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