Book Title: Agam Shabdakosha
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ सम्पादकीय हमने पचीस वर्ष पूर्व (ई० सन् १९५५ में) आगम संपादन का कार्य हाथ में लिया था। उस समय आगम शब्दकोश की परिकल्पना भी की थी, किन्तु परिशोधित पाठ वाले आगम-सत्रों के संस्करण हमें उपलब्ध नहीं थे, इसलिए वह कल्पना क्रियान्वित नहीं हो सकी। हमने आगमों के पाठ-संशोधन का कार्य प्रारम्भ किया और वह कार्य अभी-अभी (ई. सन् १९८०, १२ अप्रैल को) पूरा हुआ है। अंग-साहित्य का संशोधित पाठ प्रकाशित हो चुका है। शेष आगमों का परिशोधित पाठ अभी अप्रकाशित ही है। अपरिशोधित पाठ का शब्दकोश अपनी व्यर्थता ही प्रमाणित नहीं करता, अनुसंधित्सु को भ्रम में भी डाल देता है। हम चाहते थे सभी आगमों का शब्दकोश एक साथ हो, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। यदि ऐसा होता तो आगमकार्य में अनुसंधान करने वाले व्यक्ति को एक शब्द के लिए दो पुस्तकों को देखने की जरूरत नहीं होती, एक से ही काम हो जाता। किन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी है। हमारे सामने अंगसूत्रों के अनुसंधान के लिए उनके शब्दकोश की अनिवार्य अपेक्षा थी। उसकी पूर्ति के लिए इस कार्य को प्राथमिकता दी गयी। ११ अंगों की शब्दसूचियों को शब्दकोश के रूप में पा। यह कार्य मुनि श्रीचन्द्रजी को सौंपा गया। वे बड़ी तत्परता से इस कार्य में लग गए। कार्य बहुत विशाल और श्रमसाध्य था। कार्यकाल में अनेक बाधाएं उपस्थित हुई । जो शब्दसूचियां तैयार थीं, वे पूरी नहीं थीं। कुछेक शब्दसूचियों में संस्कृत छाया नहीं थी। कुछेक में प्रमाणों और छाया आदि की अस्त-व्यस्तता थी। इन सब बाधाओं को पार करने में इन्हें बहुत श्रम करना पड़ा । इनकी कार्यतत्परता और श्रमशीलता से ही यह कार्य इतना शीघ्र संपन्न हो सका है। शब्दकोश के मानदंड १. अंगसूत्रों के शब्दों को क्रमानुसार ग्रहण किया गया है। २. प्रत्येक आगम के एक अध्ययन की समाप्ति पर सेमीकोलन (;) और सूत्रों की संख्या के लिए कोमा (,) का प्रयोग किया गया है। एक आगम के प्रमाण पूर्ण होने पर पूर्णविराम (.) का चिह्न दिया गया है। ३. प्रत्येक भाषा की प्रकृति और आकृति भिन्न-भिन्न होती है। प्राकृत और संस्कृत में परस्पर संबंध है, फिर भी उनकी शब्द-रचना में पर्याप्त अन्तर भी है । संस्कृत के भिन्न-भिन्न आकार वाले शब्द प्राकृत में एक आकार के बन जाते हैं। जैसे व्रत, वचस् और वयस्--ये तीन संस्कृत शब्द हैं। प्राकृत में इस तीनों का एक ही रूप 'वय' बन जाता है। इसी प्रकार प्राप्त और पत्र-इन दोनों संस्कृत शब्दों का प्राकृत रूप-'पत्त' बनता है। ऐसे शब्दों को संस्कृत रूपों की भिन्नता के आधार पर पृथक्-पृथक् लिया गया है। कहीं-कहीं संस्कृत रूप एक होने पर भी अर्थ की स्पष्टता के लिए शब्द को अलग किया गया है । जैसेपाण (पान) आ० ८।१,२ । पाण (पान) पीने का वर्तन, अणु० ३।३८ । ४. एक शब्द के विभिन्न रूपों को पृथक-पृथक् लिया गया है। जैसे--अंधगार, अंधयार । अइरेग, अतिरेग। ५. प्राकृत शब्द के संस्कृत रूपों में 'मोऽनुस्वार अमौ हसे सवौं' के अनुसार अनुस्वार और बम दोनों का ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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