Book Title: Agam 45 Anuyogdwar Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार'
नगर, खेड, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आकर, संबाह, सन्निवेश हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? इसका विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया- मैं पाटलिपुत्र में रहता हूँ । पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, तो क्या आप उन सभी में निवास करते हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया- देवदत्त के घर में बसता हूँ । देवदत्त के घर में अनेक प्रकोष्ठ हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? उत्तर में उसने विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार कहा- गर्भगृह मे रहता हूँ । इस प्रकार विशुद्ध नैगमनय के मत से बसते हुए को बसता हुआ माना जाता है ।
व्यवहारनय का मंतव्य भी इसी प्रकार का है । संग्रहनय के मतानुसार शैया पर आरूढ़ हो तभी वह बसता हुआ कहा जा सकता है। ऋजुसूत्रनय के मत से जिन आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ - अवगाहनयुक्त - विद्यमान हैं, उनमें ही बसता हुआ माना जाता है। तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से आत्मभाव में ही निवास होता है ।
प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किस प्रकार है ? नैगमनय के मत से छह द्रव्यों के प्रदेश होते हैं । धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश । ऐसा कथन करने वाले नैगमनय से संग्रहनय ने कहा- जो तुम कहते हो कि छहों के प्रदेश हैं, वह उचित नहीं है । क्योंकि जो देश का प्रदेश है, वह उसी द्रव्य का है । इसके लिए कोई दृष्टान्त है? हाँ दृष्टान्त है । जैसे मेरे दास ने गधा खरीदा और दास मेरा है तो गधा भी मेरा है । इसलिए ऐसा मत कहो कि छहों के प्रदेश हैं, यह कहो कि पाँच के प्रदेश हैं । यथा-धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश |
इस प्रकार कहनेवाले संग्रहनय से व्यवहारनय ने कहा- तुम कहते हो कि पाँचों के प्रदेश हैं, वह सिद्ध नहीं होता है । क्यों ? प्रत्युत्तर में व्यवहारनयवादी ने कहा- जैसे पाँच गोष्ठिक पुरुषों का कोई द्रव्य सामान्य होता है । यथा-हिरण्य, स्वर्ण आदि तो तुम्हारा कहना युक्त था कि पाँचों के प्रदेश हैं। इसलिए ऐसा मत कहो कि पाँचों के प्रदेश हैं, किन्तु कहो - प्रदेश पाँच प्रकार का है, जैसे- धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश । व्यवहारनय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्रनय ने कहा- तुम भी जो कहते हो कि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं, वह नहीं बनता है । क्योंकि यदि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं यह कहो तो एक-एक प्रदेश पाँच-पाँच प्रकार का हो जाने से तुम्हारे मत से पच्चीस प्रकार का प्रदेश होगा । यह कहो कि प्रदेश भजनीय है- स्यात् धर्मास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् आकाशास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश है ।
इस प्रकार कहनेवाले ऋजुसूत्रनय से संप्रति शब्दनय ने कहा- तुम कहते हो कि प्रदेश भजनीय है, यह कहना योग्य नहीं है । क्योंकि प्रदेश भजनीय है, ऐसा मानने से तो धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का भी, आकाशास्तिकाय का भी, जीवास्तिकाय का भी और स्कन्ध का भी प्रदेश हो सकता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश एवं स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है । यावत् स्कन्ध का प्रदेश भी धर्मास्ति काय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश अथवा जीवास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार तुम्हारे मत से अनवस्था हो जाएगी । ऐसा कहो-धर्मरूप जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्म है- है, जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश आकाशात्मक है, एक जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीव है, इसी प्रकार जो स्कन्ध का प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है ।
इस प्रकार कहते हुए शब्दनय से समभिरूढनय ने कहा- तुम कहते हो कि धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्मास्तिकायरूप है, यावत् स्कन्ध का जो प्रदेश, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है, किन्तु तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि यहाँ तत्पुरुष और कर्मधारय यह दो समास होत हैं । इसलिए संदेह होता है कि उक्त दोनों समासों में से तुम किस समास की दृष्टि से 'धर्मप्रदेश' आदि कह रहे हो ? यदि तत्पुरुषसमासदृष्टि से कहते हो तो ऐसा मत कहो और यदि कर्मधारय समास की अपेक्षा कहते हो तब विशेषतया कहना चाहिए - धर्म और
दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद "
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