Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ क्या वही धर्म है ? या बाहर में जो हमारा कृतित्व हैं, क्रिया-कांड है. रीति-रिवाज हैं, और खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के तौर तरीके हैं, वे धर्म हैं? हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व धर्म है या बाह्य व्यक्तित्व? हमारे व्यक्तित्व के दो रूप हैं-एक आन्तरिक व्यक्तित्व है, जो वास्तव में हम जैसे अन्दर में होते हैं, उससे निर्मित होता है। दूसरा रूप है, बाह्य व्यक्तित्व । हम जैसा बाहर में करते हैं, उसी के अनुरूप हमारा बाह्य व्यक्तित्व निर्मित होता है। हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि होना या करना, इनमें धर्म कौन-सा है ? व्यक्तित्व का कौन-सा रूप धर्म है ? अन्दर में होना धर्म है, अथवा बाहर में करना धर्म है? । होना और करना में बहुत अन्तर है। अन्दर में हम जैसे होते हैं, उसे बहुत कम व्यक्ति समझ पाते हैं। आन्तरिक व्यक्तित्व को पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना पारे को पकड़ना । बाह्य व्यक्तित्व को पकड़ लेना बहुत सरल है, उतना ही सरल, जितना कि जल की सतह पर तैरती हुई लकड़ी को छू लेना। बाहर में जो आचार-व्यवहार होता है, उसे साधारण बुद्धि वाला भी शीघ्र ही ग्रहण कर लेता है, और उसे ही हमारे व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रूप मान लेता है। आज बाहरी व्यक्तित्व ही हमारा धर्म बन रहा है । धर्म के सम्बन्ध में यहाँ पर भारत के दो दार्शनिक एवं विचारकों के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। धर्म क्या है? वस्तुत: वह मानवजीवन की आधारशिला है। धर्म मानवजीवन का संगीत है। धर्म मानवजीवन का शोधन है। धर्म से अधिक पवित्र इस जगती तल पर अन्य कोई दूसरा तत्त्व नहीं हो सकता। धर्म और सम्प्रदाय दोनों एक नहीं हैं, दोनों में बड़ा अन्तर है। जिस प्रकार देह और प्राण-दोनों एक स्थान पर प्रतीत होते हुए भी वस्तुत: भिन्न हैं। प्राण देह में ही रहेगा, देह से बाहर उसका अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार सम्प्रदाय धर्म का खोल है, धर्म नहीं। पर, जब भी धर्म को रहना होगा, तब वह किसी न किसी सम्प्रदाय में ही रहेगा। वैदिक, जैन और बौद्ध-ये तीनों धर्म के आधारभूत सम्प्रदायविशेष हैं। धर्म यदि रह सकता है तो तीनों में ही उसे रहने में जरा भी आपत्ति नहीं होगी। धर्म क्या है, और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है ? इसके सम्बन्ध में दो व्याख्याएँ बड़ी ही मौलिक हैं-एक महर्षि वेदव्यास की, जिसमें कहा गया है कि 'धारणाद्धर्म:' जो धारण करता है, उद्धार करता है, अथवा जो धारण करने के योग्य हो, उसे धर्म कहा जाता है। दूसरी व्याख्या है, जैन परम्परा की, जिसमें कहा गया है कि 'वत्थु सहावो धम्मो'-वस्तु का अपना स्वरूप ही वस्तुत: धर्म हो सकता है। २. उपाध्याय अमर मुनि कृत 'चिन्तन की मनोभूमि'-पृ० ११५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 514