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व्याकरण' अर्थात् बिना किसी के पूछे स्वत: कथन किया हुआ शास्त्र बताया है। अन्य अध्ययनों के भी कुछ अंश इसी प्रकार बाद में संकलित किए गए प्रतीत होते हैं। पूर्वोक्त तथ्यों के आधार पर गणधरों द्वारा संकलित न होकर, उक्त शास्त्र, पश्चाद्भावी स्थविरों द्वारा संकलित हुआ है, अत: उसे अंगशास्त्रों में नहीं, अंगबाह्य शास्त्रों में स्थान मिला है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर का धर्मोपदेश नहीं है। काफी मात्रा में उन्हीं का धर्मोपदेश है, जो यत्र-तत्र स्पष्टत: प्रदीप्तिमान है, और साधक की अन्तरात्मा को स्पर्श करता है। वीतरागवाणी का तेज छिपा नहीं रहता है। वह महाकाल के सघन अवरोधों को तोड़ता हुआ आज भी प्रकाशमान है, भव्यात्माओं का साधनापथ उजागर कर रहा है।
आगमसाहित्य की तीन वाचनाएँ
आगम साहित्य की सुरक्षा का प्रश्न आरम्भ से ही काफी जटिल रहा है। अध्येता मुनि आगमों को कण्ठस्थ अर्थात् स्मृति में रखते थे, लिखते नहीं थे। लिखने और रखने में उन्हें हिंसा आदि असंयम का दोष लगता था और ताड़पत्र
आदि के संग्रह से परिग्रह आदि का दोष भी? इसीलिए गुरु-शिष्य परम्परा से श्रुत होने के कारण आगम साहित्य को 'श्रुत' कहा जाता है। श्रुत अर्थात् सुना गया, पुस्तक में देखकर पढ़ा नहीं गया। वेद भी पहले श्रुत परम्परा से ही चलते आए थे, लिखे नहीं गए थे। अत: उन्हें भी 'श्रुति' कहा जाता है। परन्तु श्रुत होने पर भी वेदों का शब्द पाठ, आगम पाठ की अपेक्षा अधिक सुरक्षित रहा। इसका कारण एक तो यह है कि वेदपाठी ब्राह्मण एक जगह रहता था, अत: यह निरन्तर अभ्यास में, उच्चारण की शुद्धता में लगा रहता था। दूसरे वेदमंत्रों का प्रयोग यज्ञयागादि क्रिया काण्डों में प्राय: निरन्तर होता रहता था। आगमों के लिए यह स्थिति नहीं थी। एक तो जैन भिक्षु भ्रमणशील था। एक जगह अधिक रहना, उसके लिए निषिद्ध था। दूसरे लोकजीवनसम्बन्धी सामाजिक क्रियाकाण्डों में उसका कोई उपयोग भी नहीं था। ब्राह्मणों की तरह श्रमण, भाषा की पवित्रता को
६. छत्तीसं च अपुट्ठ वागराणाइं–कल्पसूत्र १४६ ७. (क) पोत्थएसु घेप्पंतएसु असंजमो भवइ। -दशवैकालिक चूर्णि पृ० २१ (ख) जत्तियमेत्ता वारा, मुंचति बंधति य जत्तिया वारा। जति अक्खराणि लिहति व, तति लहुगा जं च आवज्जे ॥
-निशीथ भाष्य, ४००४
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