Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Ramnibhushan Bhattacharya
Publisher: Parshwanath Jain Library Jaipur

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Page 9
________________ [ ५ ] आध्यात्मिक कर्म्म ओ ज्ञान एह उभयेर अनुष्ठान अत्यावस्यक । अन्यृथा 1 निर्वाण-लाभ सदूर पराहत । योग वाशिष्ट रामायणेओ ऐरुप लिखित आछे; यथा :-- “उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः । तथा ज्ञान कर्म्मभ्यां जायते परमं पदम् ।। पक्षिगण पक्षद्वय द्वारा आकाश मार्गे उठिते पारे । एकटि पक्ष ना थाले उहादेर उड़िवार चेटा वृथा हय । तद्रूप मानुपेर मुक्तिमार्गे उठिवार दुइटी पथ; आध्यात्मिककर्म्म ओ ज्ञान; उहादेर एकटिर अभावे मानुप निर्वाणलाभे समर्थ नहे । जैनदर्शने कर्म्मलाग वा क्षयर ये कथा उल्लिखित हइयाळे उड़ाद्वारा आध्यात्मिक कर्म्मत्याग बुझाय ना । भोगेर परिपोषक ये कर्म्मद्वारा जीवर जन्म मरण दुख पाइते हय, सेइ कर्म्मके क्षय करिते जैन तीर्थङ्करगण भूयोभूयः उपदेश प्रदान करियायेन । आध्यात्मिककर्म्म कर्म्म नहे उहा धर्म्म। एजन्यइ अहिंसा संयम तपस्या प्रभृति आध्यात्मिक कार्य्यगुलिके जैनाचार्यगण धर्म्म नामे अभिह्नित करियाल्छेन । हिन्दु दर्शनेओ ऐरुप उक्त हइयाछे : यावन्नक्षीयते कर्म शुभाशुभमेव वा । तावन्न जायते मोक्षो नॄणां कल्पशतै रपि ॥ यथा लौह मयैः पाशैः पाशैः स्वर्णमयैरपि । तावद्वद्धो भवेज्जीवः कर्मभिश्च शुभाशुभैः ॥ शुभाशुभ कर्म क्ष्य ना हइले शतकल्पेओ मानुपेर मुक्ति हय ना । येरूप मानव लौह शृङ्खल द्वारा वद्ध हय सेइरूप स्वर्णशृङ्खल, द्वाराओ द्व हय । जीवगणओ सेइरूप पापपुण्य कर्न्सद्वारा वृद्ध हया थाके ।

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