Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Ramnibhushan Bhattacharya
Publisher: Parshwanath Jain Library Jaipur
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[५] केवलं श्लोकमाश्चित्य विचारं नैव कारयेत् ।
युस्तिहीन विचारेतु धर्महानिः प्रजायते ।। केवलमात्र श्लोकेर पदगुलिर अर्थ समन्वय करिया व्याख्या करिलेइ प्रकृत तात्पर्य निर्णय हय ना। वक्तार प्रकृत उद्देश्य कि ताहा सविशेष चिन्ता करिया स्थिर करिते हय । युक्तिहीन विचार द्वारा धमहानि हय । सेइजन्यइ आईत श्रीहरिभद्र सूरि श्रीमहावीरेर । युक्ति ओ तानपर्य ज्ञानेर प्रशंसा करियाछेन :
"अस्ति व्यक्तव्यता कदचित्तेनेदं न विचार्यते। निर्दोषं काञ्चन च तस्यात् परीक्षाया विभेतिकिम् ।। पक्षपातो न मेवीरे न द्वपः कपिलादिपु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रह ।।" तिनि शास्त्रेर विभिन्न मतगुलिर ग्राह्याग्राह्य विपयगुलिर तात्पर्य बुझिवार जन्य सर्वान्तःकरणे यत्नवान् छिलेन; परे आत्मसाधनार पथके सादरे ग्रहण करिया अपरेर भ्रातधारणा विदूरित करियाछिलेन । ताहार निकट ये जैनदर्शन अति आदरेर सामग्रीरुपे परिगृहीत हइयाछिल एविपये काहारओ किछुमात्र सन्देह नाइ।
आत्मार मालिन्य दूरी करणइ जैनगणेर मोक्षमार्ग गमनेर प्रधान उपाय। सेइ जन्यइ ताहारा आत्मार उद्धर्व गमने गुणस्थानेर विचार करिया उहार उत्कर्पतार तारतम्य देखाइयाछेन । गुणस्थान मोक्षप्रासाद गमनेर सोपानस्वरुप। संयमादि व्यतीत मोक्षमार्ग अग्रसर हओया अत्यन्त कठिन । श्रीमर भगवद्गीतार पष्ठाध्यायेर ३६ श्लोके लिखित आछे:
"असंयतात्मना योग दुष्प्राप इति मेमतिः ।"

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