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आगम सूत्र २९, पयन्नासूत्र-६, 'संस्तारक' सूत्र-४६, ४७
विधि के अनुसार संथारा पर आरूढ़ हुए महानुभाव क्षपक को, पहले दिन ही जो अनमोल लाभ की प्राप्ति होती है, उसका मूल्य अंकन करने के लिए कौन समर्थ है ? .......... क्योंकि उस अवसर पर, वो महामुनि विशिष्ट तरह के शुभ अध्यवसाय के योग से संख्येय भव की स्थितिवाले सर्वकर्म प्रतिसमय क्षय करते हैं । इस कारण से वो क्षपक साधु उस समय विशिष्ट तरह के श्रमणगुण प्राप्त करते हैं। सूत्र - ४८
और फिर उस अवसर पर तृण-सूखे घास के संथारा पर आरूढ़ होने के बाद भी राग, मद और मोह से मुक्त होने के कारण से वो क्षपक महर्षि, जो अनुपम मुक्ति-नि:संगदशा के सुख को पाता है, वो सुख हमेशा रागदशा में पड़ा हुआ चक्रवर्ती भी कहाँ से प्राप्त कर सके ? सूत्र - ४९
वैक्रियलब्धि के योग से अपने पुरुषरूप को विकुर्वके, देवताएं जो बत्तीस प्रकार के हजार प्रकार से, संगीत की लयपूर्वक नाटक करते हैं, उसमें वो लोग वो आनन्द नहीं पा सकते कि जो आनन्द अपने हस्तप्रमाण संथारा पर आरूढ़ हए क्षपक महर्षि पाते हैं। सूत्र -५०
राग, द्वेषमय और परिणाम में कटु ऐसे विषपूर्ण वैषयिक सुख को छ खंड का नाथ महसूस करता है उसे संगदशा से मुक्त, वीतराग साधुपुरुष अनुभूत नहीं करते, वो केवल अखंड आत्मरमणता सुख को महसूस करते हैं सूत्र-५१
मोक्ष के सुख की प्राप्ति के लिए, श्री जैनशासन में एकान्ते वर्षकाल की गिनती नहीं है । केवल आराधक आत्मा की अप्रमत्त दशा पर सारा आधार है । क्योंकि काफी साल तक गच्छ में रहनेवाले भी प्रमत्त आत्मा जन्ममरण समान संसार सागर में डूब गए हैं। सूत्र-५२
जो आत्माएं अन्तिम काल में समाधि से संथारा रूप आराधना को अपनाकर मरण पाते हैं, वो महानुभाव आत्माएं जीवन की पीछली अवस्था में भी अपना हित शीघ्र साध सकते हैं। सूत्र -५३
सूखे घास का संथारा या जीवरहित प्रासुक भूमि ही केवल अन्तिमकाल की आराधना का आलम्बन नहीं है। लेकिन विशुद्ध निरतिचार चारित्र के पालन में उपयोगशील आत्मा संथारा रूप है । इस कारण से ऐसी आत्मा आराधना में आलम्बन है। सूत्र - ५४
द्रव्य से संलेखना को अपनाने को तत्पर, भाव से कषाय के त्याग द्वारा रूक्ष-लूखा ऐसा आत्मा हमेशा जैन शासन में अप्रमत्त होने के कारण से किसी भी क्षेत्र में किसी भी वक्त श्री जिनकथित आराधना में परिणत बनते हैं सूत्र - ५५
वर्षाकाल में कई तरह के तप अच्छी तरह से करके, आराधक आत्मा हेमन्त ऋतु में सर्व अवस्था के लिए संथारा पर आरूढ़ होते हैं। सूत्र-५६,५७
पोतनपुर में पुष्पचूला आर्या के धर्मगुरु श्री अर्णिकापुत्र प्रख्यात थे, वो एक अवसर पर नाव के द्वारा गंगा नदी में ऊतरते थे- ..... नाव में बैठे लोगों ने उस वक्त उन्हें गंगा में धकेल दिया। उसके बाद श्री अर्णिकापुत्र आचार्य ने उस वक्त संथारा को अपनाकर समाधिपूर्वक मरण पाया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(संस्तारक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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