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आगम सूत्र २९, पयन्नासूत्र-६, 'संस्तारक' भुगते हैं। सूत्र-९४
! नरक के लिए तूने असाता बहल दुःखपूर्ण, असामान्य और तीव्र दर्द को शरीर की खातिर प्रायः अनन्तीबार भुगता है। सूत्र-९५,९६
और फिर देवपन में और मानवपन में पराये दासभाव को पाकर तूने दुःख, संताप और त्रास को उपजाने वाले दर्द को प्रायः अनन्तीबार महसूस किया है और हे पुण्यवान् !
__ तिर्यञ्चगति को पाकर पार न पा सके ऐसी महावेदनाओं को तूने कई बार भुगता है । इस तरह जन्म और मरण समान रेंट के आवर्त जहाँ हमेशा चलते हैं, वैसे संसार में तू अनन्तकाल भटका है। सूत्र - ९७
संसार के लिए तूने अनन्तकाल तक अनन्तीबार अनन्ता जन्म मरण को महसूस किया है । यह सब दुःख संसारवर्ती सर्व जीव के लिए सहज है। इसलिए वर्तमानकाल दुःख से मत घबराना और आराधना को मत भूलना
सूत्र - ९८
मरण जैसा महाभय नहीं है और जन्म समान अन्य कोई दुःख नहीं है । इसलिए जन्म-मरण समान महाभय के कारण समान शरीर के ममत्त्वभाव को तू शीघ्र छेद डाल । सूत्र - ९९
यह शरीर जीव से अन्य है । और जीव शरीर से भिन्न है यह निश्चयपूर्वक दुःख और क्लेश की जड़ समान उपादान रूप शरीर के ममत्व को तुझे छेदना चाहिए । क्योंकि भीम और अपार इस संसार में, आत्मा ने शरीर सम्बन्धी और मन सम्बन्धी दुःख को अनन्तीबार भुगते हैं। सूत्र-१००
इसलिए यदि समाधि मरण को पाना हो तो उस उत्तम अर्थ की प्राप्ति के लिए तुझे शरीर आदि अभ्यन्तर और अन्य बाह्य परिग्रह के लिए ममत्त्वभाव को सर्वथा वोसिरा देना-त्याग करना चाहिए। सूत्र - १०१
जगत के शरण समान, हितवत्सल समस्त संघ, मेरे सारे अपराधों को खमो और शल्य से रहित बनकर मैं भी गुण के आधार समान श्री संघ को खमाता हूँ। सूत्र-१०२
और श्री आचार्यदेव, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण आदि जो किसी को मैंने कषाय उत्पन्न करवाया हो, कषाय का मैं कारण बना होता उन सबको मैं त्रिविध योग से खमाता हूँ। सूत्र - १०३
सर्व श्रमण संघ के सभी अपराध को मैं मस्तक पर दो हाथ जुड़ने समान अंजलि करके खमाता हूँ। और मैं भी सबको क्षमा करता हूँ। सूत्र - १०४
और फिर मैं जिनकथित धर्म में अर्पित चित्तवाला होकर सर्व जगत के जीव समूह के साथ बंधुभाव से निःशल्य तरह से खमता हूँ। और मैं भी सबको खमाता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(संस्तारक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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