Book Title: Agam 29 Sanstarak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 14
________________ आगम सूत्र २९, पयन्नासूत्र-६, संस्तारक' सूत्र-१०५ ऐसे अतिचारों को खमानेवाला और अनुत्तर तप एवं अपूर्व समाधि को प्राप्त करनेवाली क्षपक आत्मा; बहुविध बाधा संताप आदि के मूल कारण कर्मसमूह को खपाते हुए समभाव में विहरता है । सूत्र - १०६ अनगिनत लाख कोटि अशुभ भव की परम्परा द्वारा जो गाढ़ कर्म बाँधा हो; उन सर्व कर्मसमूह को संथारा पर आरूढ़ होनेवाली क्षपक आत्मा, शुभ अध्यवसाय के योग से एक समय में क्षय करते हैं। सूत्र - १०७ इस अवसर पर, संथारा पर आरूढ़ हुए महानुभाव क्षपक को शायद पूर्वकालीन अशुभ योग से, समाधि भाव में विघ्न करनेवाला दर्द उदय में आए, तो उसे शमा देने के लिए गीतार्थ ऐसे निर्यामक साधु बावना चन्दन जैसी शीतल धर्मशिक्षा दे । सूत्र-१०८ हे पुण्य पुरुष ! आराधना में ही जिन्होंने अपना सबकुछ अर्पण किया है, ऐसे पूर्वकालीन मुनिवर; जब वैसी तरह के अभ्यास बिना भी कईं जंगली जानवर से चारों ओर घिरे हए भयंकर पर्वत की चोटी पर कायोत्सर्ग ध्यान में रहते थे। सूत्र-१०९ और फिर अति धीरवृत्ति को धरनेवाले इस कारण से श्री जिनकथित आराधना की राह में अनुत्तर रूप से विहरनेवाले वो महर्षि पुरुष, जंगली जानवर की दाढ़ में आने के बावजूद भी समाधिभाव को अखंड रखते हैं और उत्तम अर्थ की साधना करते हैं। सूत्र - ११० ___ हे सुविहित ! धीर और स्वस्थ मानसवृत्तिवाले निर्यामक साधु, जब हमेशा सहाय करनेवाले होते हैं ऐसे हालात में समाधिभाव पाकर क्या इस संथारे की आराधना का पार नहीं पा सकते क्या ? मतलब तुझे आसानी से इस संथारा के पार को पाना चाहिए। सूत्र-१११ क्योंकि जीव शरीर से अन्य है, वैसे शरीर भी जीव से भिन्न है । इसलिए शरीर के ममत्व को छोड़ देनेवाले सुविहित पुरुष श्री जिनकथित धर्म की आराधना की खातिर अवसर पर शरीर का भी त्याग कर देते हैं। सूत्र - ११२ 'संथारा पर आरूढ़ हुए क्षपक, पूर्वकालीन अशुभ कर्म के उदय से पैदा हुई वेदनाओं को समभाव से सहकर, कर्म स्थान कलंक की परम्परा को वेलड़ी की तरह जड़ से हिला देते हैं । इसलिए तुम्हें भी इस वेदना को समभाव से सहन करके कर्म का क्षय कर देना चाहिए।' सूत्र - ११३ बहुत क्रोड़ साल तक तप, क्रिया आदि के द्वारा आत्मा जो कर्मसमूह को खपाते हैं । मन, वचन, काया के योग से आत्मा की रक्षा करनेवाले ज्ञानी आत्मा, उस कर्मसमूह को केवल साँस में खपाते हैं । क्योंकि सम्यग्ज्ञान पूर्वक के अनुष्ठान का प्रभाव अचिन्त्य है। सूत्र - ११४ मन, वचन और काया से आत्मा का जतन करनेवाले ज्ञानी आत्मा, बहुत भव से संचित किए आठ प्रकार के कर्मसमूह समान पाप को केवल साँस में खपाते हैं । इस कारण से हे सुविहित ! सम्यग्ज्ञान के आलम्बन पूर्वक तुम्हें भी इस आराधना में उद्यमी रहना चाहिए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(संस्तारक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 14

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