________________
आगम सूत्र २९, पयन्नासूत्र-६, संस्तारक' रहा है। इस अवस्था में उस ऋषिवर ने समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त किया। सूत्र-८४
हस्तिनागपुर के कुरुदत्त श्रेष्ठीपुत्र ने स्थविरों के पास दीक्षा को अपनाया था । एक अवसर पर नगर के उद्यान में वो कायोत्सर्ग ध्यान में खडे थे । वहाँ गोपाल ने निर्दोष ऐसे उनको शाल्मली पेड के लकडे की तरह जला दिया । फिर भी इस अवस्था में उन्होंने समाधिपूर्वक पंडित मरण प्राप्त किया। सूत्र -८५
चिलातीपुत्र नाम के चोर ने, उपशम, विवेक और संवररूप त्रिपदी को सुनकर दीक्षा ग्रहण की । उस अवसर पर वो वहाँ ही कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । चींटीओं ने उनके शरीर को छल्ली कर दिया । इस तरह शरीर खाए जाने के बाद भी उन्होंने समाधि से मरण पाया। सूत्र-८६
श्री गजसुकुमाल ऋषि नगर के उद्यान में कायोत्सर्ग ध्यान में रहे थे । निर्दोष और शान्त ऐसे उनको, किसी पापी आत्माने हजारो खीले से जैसे कि मढ़ा दिया हो उस तरह से हरे चमड़े से बाँधकर, पृथ्वी पर पटका । इसके बावजूद भी उन्होंने समाधिपूर्वक मरण पाया । (इस कथानक में कुछ गरबडी होने का संभव है।) सूत्र - ८७
मंखली गोशालकने निर्दोष ऐसे श्री सुनक्षत्र और श्री सर्वानुभूति नाम के महावीर परमात्मा के शिष्यों को तेजोलेश्या से जला दिया था । उस तरह जलते हुए वो दोनों मुनिवर ने समाधिभाव को अपनाकर पंड़ित मरण पाया सूत्र-८८
संथारा को अपनाने की विधि उचित अवसर पर, तीन गुप्ति से गुप्त ऐसा क्षपकसाधु ज्ञपरिज्ञा से जानता है। फिर यावज्जीव के लिए संघ समुदाय के बीच में गुरु के आदेश के अनुसार आगार सहित चारों आहार का पच्चक्खाण करता है। सूत्र - ८९
या फिर समाधि टीकाने के लिए, कोई अवसर में क्षपक साधु तीन आहार का पच्चक्खाण करता है और केवल प्रासुक जल का आहार करता है। फिर उचित काल में जल का भी त्याग करता है। सूत्र - ९०
शेषलोगों को संवेग प्रकट हो उस तरह से वह क्षपक क्षमापना करे और सर्व संघ समुदाय के बीच में कहना चाहिए कि पूर्वे मन, वचन और काया के योग से करने, करवाने और अनुमोदने द्वारा मैंने जो कुछ भी अपराध किए हो उन्हें मैं खमाता हूँ। सूत्र-९१
दो हाथ को मस्तक से जुड़कर उसे फिर से कहना चाहिए कि शल्य से रहित यह मैं आज सर्व तरह के अपराध को खमाता हूँ । माता-पिता समान सर्व जीव मुझे क्षमा करना। सूत्र - ९२
धीर पुरुषने प्ररूपे हुए और फिर सत्पुरुष ने सदा सेवन किए जानेवाले, और कायर आत्माओं के लिए अति दुष्कर ऐसे पंडित मरण-संथारा को, शिलातल पर आरूढ हए निःसंग और धन्य आत्माएं साधना करती हैं। सूत्र - ९३
सावध होकर तू सोच । तूने नरक और तिर्यंच गति में और देवगति एवं मानवगति में कैसे कैसे सुख-दुःख
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(संस्तारक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 12