________________
आगम सूत्र २९, पयन्नासूत्र-६, 'संस्तारक' सूत्र - ११५
इस प्रकार के हितोपदेशरूप आलम्बन को पानेवाले सुविहित आत्माएं, गुरु आदि वडिलों से प्रशंसा पानेवाले संथारा पर धीरजपूर्वक आरूढ़ होकर, सर्व तरह के कर्म मल को खानेपूर्वक उस भव में या तीसरे भव में अवश्य सिद्ध होता है और महानन्द पद को प्राप्त करते हैं। सूत्र - ११६
गुप्ति समिति आदि गुण से मनोहर, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप रत्नत्रयी से महामूल्यवान और संयम, तप, नियम आदि गुण रूप; सूत्र - ११७
सुवर्णजड़ित श्री संघरूप महामुकुट, देव, देवेन्द्र, असुर और मानव सहित तीन लोक में विशुद्ध होने के कारण से पूजनीय हैं, अति दुर्लभ हैं । और फिर निर्मल गुण का आधार हैं, इसीलिए परमशुद्ध हैं, और सबको शिरोधार्य हैं। सूत्र-११८
ग्रीष्म ऋतु में अग्नि से लाल तपे लोहे के तावड़े के जैसी काली शिला में आरूढ़ होकर हजार किरणों से प्रचंड और उग्र ऐसे सूरज के ताप से जलने के बावजूद भी; सूत्र-११९
कषाय आदि लोग का विजय करनेवाले और ध्यान में सदाकाल उपयोगशील और फिर अति सुविशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप विभूति से युक्त और आराधना में अर्पित चित्तवाले सुविहित पुरुष ने; सूत्र-१२०
उत्तम लेश्या के परिणाम समान, राधावेध समान दुर्लभ, केवलज्ञान सदृश, समताभाव से पूर्ण ऐसे उत्तम अर्थ समान समाधिमरण को पाया है। सूत्र-१२१
इस तरह से मैंने जिनकी स्तुति की है, ऐसे श्री जिनकथित अन्तिम कालीन संथारा रूप हाथी के स्कन्ध पर सुखपूर्वक आरूढ़ हुए, नरेन्द्र के लिए चन्द्र समान श्रमण पुरुष, सदाकाल शाश्वत, स्वाधीन और अखंड सुख की परम्परा दो।
२९ संस्तारक-प्रकिर्णक-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(संस्तारक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
Page 15