Book Title: Agam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 2
________________ आवश्यक सूत जिस प्रकार अपने पंखों को फड़फड़ा कर पक्षी उन पर जमी धूल को झाड़ लेता है वैसे ही साधक गृहीत व्रतों पर जमी दोषों की धूल को प्रतिक्रमणीय परिस्पंदना द्वारा झाड़ कर भार-रहित हो जाता है। ऐसा करने से उसके लिए अध्यात्म के अनन्त आकाश में ऊँची उड़ान भरना सरल हो जाता है। दोषों की धूल के भार के साथ अध्यात्म के आकाश में ऊँची उड़ान संभव नहीं है इसीलिए महापुरुषों ने " आवश्यक" का विधान किया है। प्रत्येक जिनोपासक के लिए यह जरूरी है कि वह आवश्यक - आराधना द्वारा प्रतिदिन “निशान्त और दिवसान्त" - इन दोनों संध्याओं में स्वयं का आलेखन प्रतिलेखन करे। स्वयं का अवलोकन करे आत्म आलोचना करे ऐसा करने से उसकी आत्मा शुद्ध और निर्मल हो जाती है। उसका ज्ञान दर्शन एवं आनन्द स्वरूप प्रकट हो जाता है। ऐसा होना ही साधना का सुफल है। सिद्धि के अन्तिम सोपान पर साधक का चरणन्यास है। AAVASHYAK SUTRA Just as a bird removes the dirt from his wings by fluttering his feathers, similarly through pratikarman, the practitioner removes the karmic dust from the vows accepted by him, then he cleans his soul. Then it becomes easy for him to move ahead in infinite span of spirituality. With the heavy load of dust of faults it is not possible to arrive at the great heights of spirituality. So the great seers have enumerated the provision of Avashyak. It is essential for every follower of Arihantas to practice Avashyak daily in a quiet manner in the evening as well as in the morning wherein he should closely look into his activities himself at the end of the day and before the end of night. He should examine his activities himself. He should practice self-criticism through self-introspection. By this process, his soul becomes pure and spotless. Then his real knowledge, perception and natural state of ecstatic happiness appears. This is the good result of this practice. He then treads on the final step leading to salvation. सचित्त फल-सब्जी का त्याग परिवार का त्याग करेमि भंते! सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं मणेणं, बायाए, क करेमि, न कारवेमि, करतपि अन्नं न समजाणा खेतीबाड़ी का त्याग धन-सोना-चाँदीआदि का त्याग तस्स भंते पडिक्कमा निंदामि गरिहामि अ बोसिरामि जीवन पर्यंत कार्यों के की

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