Book Title: Agam 08 Antkruddasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वैसा करो, प्रमाद न करो । उसके बाद अरिहंत अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवनभर के लिए निरंतर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे। आज हम छहों भाई बेले की तपस्या के पारण के दिन यावत् अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर, तीन संघाटकोंमें भिक्षार्थ भ्रमण करते तुम्हारे घर आ पहुंचे हैं। तो देवानुप्रिये! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मुनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम नहीं हैं । वस्तुतः हम दूसरे हैं ।'' उन मुनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गए।
इस प्रकार की बात कहकर उन श्रमणों के लौट जाने के पश्चात् देवकी देवी को इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत और संकल्पित विचार उत्पन्न हुआ कि "पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार नामक श्रमण ने मुझे बचपन में इस प्रकार कहा था-हे देवानुप्रिये देवकी ! तुम आठ पुत्रों को जन्म दोगी, जो परस्पर एक दूसरे से पूर्णतः समान नलकूबर के समान प्रतीत होंगे । भरतक्षेत्र में दूसरी कोई माता वैसे पुत्रों को जन्म नहीं देगी । पर वह कथन मिथ्या नीकला, क्योंकि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है कि अन्य माताओं ने भी ऐसे यावत् पुत्रों को जन्म दिया है । अतः मैं अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान की सेवा में जाऊं, वंदन-नमस्कार करूँ, और इस प्रकार के उक्तिवैपरीत्य के विषय में पर्छ । ऐसा सोचकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा"शीघ्रगामी यानप्रवर-उपस्थित किया । तब देवानन्दा ब्राह्मणी की तरह देवकी देवी भी उपासना करने लगी।
तदनन्तर अरिहंत अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर बोले-'हे देवकी ! क्या इन छह अनगारों को देखकर तुम्हारे मन में इस प्रकार का संकल्पित विचार उत्पन्न हुआ है कि-पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार ने तुम्हें एक समान, नलकूबरवत् आठ पुत्रों को जन्म देने का कथन किया था, यावत् वन्दन को नीकली और नीकलकर शीघ्रता से मेरे पास चली आई हो । देवकी देवी ! क्या यह बात सत्य है ? 'हाँ प्रभु, सत्य है।
अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा- देवानुप्रिये! उस काल उस समयमें भद्दिलपुर नामक नगरमें नाग गाथापति था वह पूर्णतया सम्पन्न था । नागरिकों में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । उस नाग गाथापति की सुलसा नाम की भार्या थी। उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहा था-'यह बालिका निंदु होगी । तत्पश्चात् वह सुलसा बाल्यकाल से हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई। उसने हरिणैगमेषीदेव की प्रतिमा बनवाई । प्रतिमा बनवा कर प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके यावत् दुःस्वप्न निवारणार्थ प्रायश्चित्त कर आर्द्र साड़ी पहने हुए उसकी बहुमूल्य पुष्पोंसे अर्चना करती । पुष्पों द्वारा पूजा के पश्चात् घुटने टेककर पाँचों अंग नमाकर प्रणाम करती, तदनन्तर आहार करती, निहार करती एवं अपनी दैनन्दिनी के अन्य कार्य करती । तत्पश्चात् उस सुलसा गाथापत्नी की उस भक्तिबहुमानपूर्वक की गई शुश्रूषा से देव प्रसन्न हो गया । पश्चात् हरिणैगमेषी देव सुलसा गाथापत्नी को तथा तुम्हें दोनों को समकालमें ही ऋतुमती करता और तब तुम दोनों समकालमें ही गर्भ धारण करती, और समकाल में ही बालक को जन्म देतीं । प्रसवकाल में वह सुलसा गाथापत्नी मरे हुए बालक को जन्म देती । तब वह हरिणैगमेषी देव सुलसा पर अनुकंपा करने के लिए उसके मृत बालक को हाथों में लेता और लेकर तुम्हारे पास लाता । इधर उसी समय तुम भी नव मास का काल पूर्ण होने पर सुकुमार बालक को जन्म देती । हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे पुत्र होते उनको हरिणैगमेषी देव तुम्हारे पास से अपने दोनों हाथों में ग्रहण करता और उन्हें ग्रहण कर सुलसा गाथापत्नी के पास लाकर रख देता । अतः वास्तव में हे देवकी ! ये तुम्हारे ही पुत्र हैं, सुलसा गाथापत्नी के पुत्र नहीं है।'
तदनन्तर देवकी देवी ने अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान के पास से उक्त वृत्तान्त को सूनकर और उस पर चिन्तन कर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदया होकर अरिष्टनेमि भगवान को वंदन नमस्कार किया । वे छहों मुनि जहाँ विराजमान थे वहाँ आकर उन छहों मुनियों को वंदना नमस्कार करती है । उन अनगारों को देखकर पुत्र-प्रेम के कारण उनके स्तनों से दूध झरने लगा । हर्ष के कारण लोचन प्रफुल्लित हो उठे, कंचुकी के बन्धन टूटने लगे, भुजाओं के आभूषण तंग हो गये, उसकी रोमावली मेघधारा से अभिताडित हुए कदम्ब पुष्प की भाँति खिल उठी। उन छहों मुनियों को निर्निमेष दृष्टि से चिरकाल तक निरखती ही रही । तत्पश्चात् उन छहों मुनियों को वंदननमस्कार करके जहाँ भगवान अरिष्टनेमि विराजमान थे वहाँ आई, अरिहन्त अरिष्टनेमि को वन्दन-नमस्कार करके
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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