Book Title: Agam 08 Antkruddasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 19
________________ आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक चले । वहाँ पहुँच कर पद्मावती देवी शिबिका से ऊतरी । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव जहाँ अरिष्टनेमि भगवान थे वहाँ आए, आकर भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदना-नमस्कार किया, इस प्रकार बोले-'भगवन ! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है । यह मेरे लिए इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और मन के अनुकूल चलने वाली है, अभिराम है । भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान है, मेरे हृदय को आनन्द देने वाली है । इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर के पुष्प के समान सूनने के लिए भी दुर्लभ है; तब देखने की तो बात ही क्या है ? हे देवानु-प्रिय ! मैं ऐसी अपनी प्रिय पत्नी की भिक्षा शिष्या रूप में आपको देता हूँ। आप उसे स्वीकार करें ।' कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सूनकर प्रभु बोले- देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो ।' तब उस पद्मावती देवी ने ईशान-कोण में जाकर स्वयं अपने हाथों से आभूषण एवं अलंकार ऊतारे, स्वयं ही अपने केशों का पंचमुष्टिक लोच किया । फिर भगवान नेमिनाथ के पास आकर वन्दना की । इस प्रकार कहा"भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुःख रूपी आग में जल रहा है । यावत् मुझे दीक्षा दें।" इसके बाद भगवान नेमिनाथ ने पद्मावती देवी को स्वयमेव प्रव्रज्या दी, और स्वयं ही यक्षिणी आर्या को शिष्या के रूप में प्रदान की। तब यक्षिणी आर्या ने पद्मावती को धर्मशिक्षा दी, यावत् इस प्रकार संयमपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। तब वह पद्मावती आर्या ईर्यासमिति यावत् ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। तदनन्तर उस पद्मावती आर्या ने यक्षिणी आर्या से सामयिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, बहुत से उपवास-बेले-तेले-चोले-पचोले-मास और अर्धमासखमण आदि विविध तपस्या से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। इस तरह पद्मावती आर्या ने पूरे बीस वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना से आत्मा को भावित कर, साठ भक्त अनशन पूर्ण कर, जिस अर्थ-प्रयोजन के लिए नग्नभाव, (आदि धारण किए थे यावत्) उस अर्थ का आराधन कर अन्तिम श्वास से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गई। वर्ग-५ अध्ययन-२ से८ सूत्र - २१ उस काल और उस समय में द्वारका नगरी थी । उसके समीप रैवतक नाम का पर्वत था । उस पर्वत पर नन्दनवन उद्यान था । द्वारका नगरी में श्रीकृष्ण वासुदेव राजा थे । उन की गौरी नाम की महारानी थी, एक समय उस नन्दनवन उद्यान में भगवान अरिष्टनेमि पधारे । कृष्ण वासुदेव भगवान के दर्शन करने के लिए गये । जन | परिषद लौट गई। कष्ण वासदेव भी अपने राज-भवन में लौट गए । तत्पश्चात गौरी देवी पद्मावती रानी की तरह दीक्षित हुई यावत् सिद्ध हो गई। इसी तरह गांधारी, लक्ष्मण, सुसीमा, जाम्बवती, सत्यभामा और रुक्मिणी के भी छह अध्ययन पद्मावती के समान ही जानना। वर्ग-५ अध्ययन-९,१० सूत्र - २२ उस काल उस समय में द्वारका नगरी के पास रैवतक नाम का पर्वत था, जहाँ एक नन्दनवन उद्यान था। वहाँ कृष्ण-वासुदेव राज्य करते थे । कृष्ण वासुदेव के पुत्र और रानी जाम्बवती देवी के आत्मज शाम्बकुमार थे जो सर्वांग सुन्दर थे । उन शाम्ब कुमार की मूलश्री नाम की भार्या थी । अत्यन्त सुन्दर एवं कोमलांगी थी । एक समय अरिष्टनेमि वहाँ पधारे । कृष्ण वासुदेव उनके दर्शनार्थ गए । मूलश्री देवी भी पद्मावती के समान प्रभु के दर्शनार्थ गई। विशेष में बोली-''हे देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव से पूछती हूँ यावत् सिद्ध हो गई । मूलश्री के ही समान मूलदत्ता का भी सारा वृत्तान्त जानना । वर्ग-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 19

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