Book Title: Agam 08 Antkruddasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 18
________________ आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समीप पाण्डु मथुरा की ओर जाओगे । रास्ते में विश्राम लेने के लिए कौशाम्ब वन-उद्यान में अत्यन्त विशाल एक वटवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर पीताम्बर ओढ़कर तुम सो जाओगे । उस समय मृग के भ्रम में जराकुमार द्वारा चलाया हुआ तीक्ष्ण तीर तुम्हारे बाएं पैर में लगेगा । इस तीक्ष्ण तीर से विद्ध होकर तुम काल के समय काल करके वालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी में जन्म लोगे । प्रभु के श्रीमुख से अपने आगामी भव की यह बात सुनकर कृष्ण वासुदेव खिन्नमन होकर आतध्यान करने लगे। तब अरिहंत अरिष्टनेमि पुनः बोले-''हे देवानुप्रिय ! तुम खिन्नमन होकर आर्त्तध्यान मत करो । निश्चय से कालान्तर में तुम तीसरी पृथ्वी से नीकलकर इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में आने वाले उत्सर्पिणी काल में पुंड्र जनपद के शतद्वार नगर में ''अमम'' नाम के बारहवें तीर्थंकर बनोगे । वहाँ बहुत वर्षों तक केवली पर्याय का पालन कर तुम सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होओगे ।' अरिहंत प्रभु के मुखारविन्द से अपने भविष्य का यह वृत्तान्त सूनकर कष्ण वासदेव बडे प्रसन्न हए और अपनी भजा पर ताल ठोकने लगे। जयनाद करके त्रिपदी-भमि में तीन बार पाँव का न्यास किया-कूदे । थोड़ा पीछे हटकर सिंहनाद किया और फिर भगवान नेमिनाथ को वंदन-नमस्कार करके अपने अभिषेक-योग्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ हए और द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए अपने राजप्रासाद में आए । अभिषेकयोग्य हाथी से नीचे ऊतरे और फिर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ आए | वे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिराजमान हुए । फिर अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर बोले देवानुप्रियों ! तुम द्वारका नगरी के शंगाटक आदि में जोर-जोर से घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो कि"हे द्वारकावासी नगरजनों ! इस बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष-स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी का सूरा, अग्नि एवं द्वैपायन के कोप के कारण नाश होगा, इसलिए हे देवानुप्रियों ! द्वारका नगरी में जिसकी ईच्छा हो, चाहे वह राजा हो, युवराज हो, ईश्वर हो, तलवर हो, माडंबिक हो, कौटुम्बिक हो, इभ्य हो, रानी हो, कुमार हो, कुमारी हो, राजरानी हो, राजपुत्री हो, इनमें से जो भी प्रभु नेमिनाथ के निकट मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेना चाहे, उसे कृष्ण वासुदेव ऐसा करने की आज्ञा देते हैं । दीक्षार्थी के पीछे उसके आश्रित सभी कुटुंबीजनों की भी श्रीकृष्ण यथायोग्य व्यवस्था करेंगे और बड़े ऋद्धि-सत्कार के साथ उसका दीक्षा-महोत्सव संपन्न करेंगे ।'' इस प्रकार दो-तीन बार घोषणा को दोहरा कर पुनः मुझे सूचित करो ।' कृष्ण का यह आदेश पाकर उन आज्ञाकारी राजपुरुषों ने वैसी ही घोषणा दो-तीन बार करके लौटकर इसकी सूचना श्रीकृष्ण को दी। इसके बाद वह पद्मावती महारानी भगवान अरिष्टनेमि से धर्मोपदेश सूनकर एवं उसे हृदय में धारण करके प्रसन्न और सन्तुष्ट हुई, उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा । यावत् वह अरिहंत नेमिनाथ को वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-भन्ते ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा करती हूँ। जैसा आप कहते हैं वैसा ही है । आपका धर्मोपदेश यथार्थ है । हे भगवन् ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर फिर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ । प्रभु ने कहा-'जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो । हे देवानुप्रियों ! धर्म-कार्य में विलम्ब मत करो ।' बाद पद्मावती देवी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर द्वारका नगरी में अपने प्रासाद में आकर जहाँ पर कृष्ण वासुदेव थे वहाँ आकर अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर, मस्तक पर अंजलि कर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोली-'देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत नेमिनाथ के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ । कृष्ण ने कहा- देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो ।' तब कृष्ण वासुदेव ने अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया-देवानुप्रियों ! शीघ्र ही महारानी पद्मावती के दीक्षामहोत्सव की विशाल तैयारी करो, और तैयारी हो जाने की मुझे सूचना दो। तब आज्ञाकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और दीक्षामहोत्सव की तैयारी की सूचना दी । इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने पद्मावती देवी को पट्ट पर बिठाया और एक सौ आठ सुवर्णकलशों से यावत् निष्क्रमणाभिषेक से अभिषिक्त किया । फिर सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित करके हजार पुरुषों द्वारा उठायी जाने वाली शिबिका में बिठाकर द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए नीकले और जहाँ रैवतक पर्वत और सहस्राम्रवन उद्यान था उस और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 18

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