Book Title: Agam 08 Antkruddasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 17
________________ आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग सूत्र - १८, १९ "भगवन् ! यावत् मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृत्दशा के पंचम वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?'' '' हे जंबू ! यावत् मोक्ष-प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृत्दशा के पंचम वर्ग के दस अध्ययन बताए हैं। पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवती, सत्यभामा, रुक्मिणी, मूलश्री और मूलदत्ता । वर्ग-५ अध्ययन-१ सूत्र-२० जम्बूस्वामी ने पुनः पूछा-'भन्ते ! श्रमण भगवान महावीर ने पंचम वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?'' ''हे जंबू ! उस काल उस समय में द्वारका नामक नगरी थी, यावत् श्रीकृष्ण वासुदेव वहाँ राज्य कर रहे थे । श्रीकृष्ण वासुदेव की पद्मावती नाम की महारानी थी । (राज्ञीवर्णन जान लेना) । उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि विचरते हुए द्वारका नगरी में पधारे । श्रीकृष्ण वंदन-नमस्कार करने हेतु राजप्रासाद से नीकलकर प्रभु के पास पहुँचे यावत् प्रभु अरिष्टनेमि की पर्युपासना करने लगे । उस समय पद्मावती देवी ने भगवान के आने की खबर सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हई । वह भी देवकी महारानी के समान धार्मिक रथ पर आरूढ़ होकर भगवान को वंदन करने गई । यावत् नेमिनाथ की पर्युपासना करने लगी । अरिहंत अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव, पद्मावती देवी और परिषद को धर्मकथा कही । धर्मकथा सूनकर जन-परिषद् वापिस लौट गई। तब कृष्ण वासुदेव ने भगवान नेमिनाथ को वंदन-नमस्कार करके उनसे इस प्रकार पृच्छा की-''भगवन् ! बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी यावत् साक्षात देवलोक के समान इस द्वारका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?" 'हे कृष्ण !' इस प्रकार संबोधित करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया-''हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान इस द्वारका नगरी का विनाश मदीरा, अग्नि और द्वैपायन के कोप के कारण होगा ।'' अरिहंत अरिष्टनेमि से द्वारका नगरी के विनाश का कारण सून-समझकर श्रीकृष्ण वासुदेव के मन में ऐसा विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-वे जालि, मयालि, उवयालि, परिससेन, वीरसेन, प्रद्यम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, दृढनेमि और सत्यनेमि प्रभति कुमार धन्य हैं जो हिरण्यादि देयभाग देकर, नेमिनाथ प्रभु के पास मुण्डित यावत् प्रव्रजित हो गए हैं । मैं अधन्य हूँ, अकृत-पुण्य हूँ कि राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्च्छित हूँ, इन्हें त्यागकर भगवान नेमिनाथ के पास मुण्डित होकर अनगार रूप प्रव्रजित होने में असमर्थ हूँ। भगवान नेमिनाथ प्रभु ने अपने ज्ञान-बल से कृष्ण वासुदेव के मन में आये इन विचारों को जानकर आर्त्तध्यान में डूबे हुए कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा- 'निश्चय ही हे कृष्ण ! तुम्हारे मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ-वे जालि, मयालि आदि धन्य हैं यावत् मैं प्रव्रज्या नहीं ले सकता । हे कृष्ण ! क्या यह बात सही है ?'' श्रीकृष्ण ने कहा- 'हाँ भगवन् ! है ।'' "तो हे कृष्ण ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव अपने भव में धन-धान्य-स्वर्ण आदि संपत्ति छोड़कर मुनिव्रत ले लें । वासुदेव दीक्षा लेते नहीं, नहीं एवं भविष्य में कभी लेंगे भी नहीं।'' श्रीकृष्ण ने कहा-''हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं ?" "हे कृष्ण ! निश्चय ही सभी वासुदेव पूर्व भव में निदानकृत होते हैं, इसलिए मैं ऐसा कहता हूँ कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव कभी प्रव्रज्या अंगीकार करें।" __ तब कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमि को इस प्रकार बोले-'"हे भगवन् ! यहाँ से काल के समय काल कर मैं कहाँ जाऊंगा, कहाँ उत्पन्न होऊंगा ?'' अरिष्टनेमि भगवान ने कहा-हे कृष्ण ! तुम सूरा, अग्नि और द्वैपायन के कोप के कारण इस द्वारका नगरी के जल कर नष्ट हो जाने पर और अपने माता-पिता एवं स्वजनों का वियोग हो जाने पर राम बलदेव के साथ दक्षिणी समुद्र के तट की ओर पाण्डुराजा के पुत्र युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डवों के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17

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