Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका
जैन आगम चार वर्गों में विभक्त हैं—१. अंग, २. उपांग, ३. मूल और ४. छेद। यह वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। विक्रम की १३-१४ वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं है। नंदी सूत्र में दो वर्गीकरण प्राप्त होते हैंपहला वर्गीकरण-१. गमिक-दृष्टिवाद
२. अगमिक---कालिकश्रत-आचारांग आदि । दूसरा वर्गीकरण-१. अंगप्रविष्ट
२. अंगबाह्य । अंग बारह हैं—१. आचार, २. सूत्रकृत्, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृतदशा, ६. अनुत्तरोपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवाद।
भगवान महावीर की वाणी के आधार पर गौतम आदि गणधरों ने अंग-साहित्य की रचना की। अंगों की संख्या बारह है, इसलिए उन्हें द्वादशाङ्गी कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र उसका तीसरा अंग है। इसका नाम 'स्थान' [प्रा० ठाणं] है। इसमें एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिए इसका नाम 'स्थान' रखा गया है।
संख्या के अनुपात से एक द्रव्य के अनेक विकल्प करना, इस आगम की रचना का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है । उदाहरणस्वरूप प्रत्येकशरीर की दृष्टि से जीव एक है। संसारी और मुक्त इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं, अथवा ज्ञानचेतना और दर्शनचेतना की दृष्टि से वह द्विगुणात्मक है। कर्म-चेतना, कर्मफल-चेतना और ज्ञान-चेतना की दृष्टि से वह त्रिगुणात्मक है । अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इस निपदी से युक्त होने के कारण वह त्रिगुणात्मक है। गतिचतुष्टय में संचरण शील होने के कारण वह चार प्रकार का है। पारिणामिक तथा कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय जनित भावों के कारण वह पंचगुणात्मक है । मृत्यु के उपरान्त वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अध:-- इन छहों दिशाओं में गमन करता है, इसलिए उसे षड़विकल्पक कहा जाता है। उसकी सत्ता सप्तभंगी के द्वारा स्थापित की जाती है
१. स्यात् अस्त्येव जीवः-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा जीव है ही। २. स्यात् नास्त्येव जीव:-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा जीव नहीं ही है।
१. (क) नन्दी, सूत्र ८२ : ठाणेणं एगा इयाए एगुत्तरियाए बुड्ढीए दसट्टाणगविवड्ढियाणं भावाणं परवणया आघविज्जति । (ख) कसायपाहुड, भाग १, पृ० १२३ :
ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणमेगादिएगत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि । २. ठाणं, १।१७ :
एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं । ३. ठाणं, २।४०६:
दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव, असिद्धा चेव ।
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