Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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'धम्मो मंगल मुक्कट्ठे अहिंसा संजमो वबो इनके मौलिक शब्दों को हटाकर वहां उनके पर्यायवाची शब्दों की योजना करना, जैसे--पुण्णं कल्लाणमुक्कसं, दयासंवरणिज्जरा । यह अन्याभिधान नामक व्यंजनातिचार है ।
सूत्र के अक्षर-पदों का हीन या अतिरिक्त उच्चारण करना अथवा उनका अन्यथा उच्चारण करना भी व्यंजनातिचार है।
इस सारे विवरण का निष्कर्ष यह है कि सूत्रपाठ की भाषा, मात्रा, बिन्दु, शब्द, शब्दसंख्या और पाठ्यक्रम मौलिकता सुरक्षित रहनी चाहिए इस व्यवस्था के अतिक्रमण के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई। भाषा, मात्रा, बिन्दु आदि का परिवर्तन करने पर लघुमासिक प्रायश्चित प्राप्त होता है सूत्रपाठ को अन्यथा करने पर लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है'।
चूर्णिकार ने विषय के उपसंहार में लिखा है-सूत्रभेद अर्थभेद, अर्थभेद से चरणभेद, चरणभेद से मोक्ष असंभव हो जाता है । वैसा होने पर दीक्षा आदि कर्म प्रयोजन- शून्य हो जाते है । इसलिए व्यंजन-भेद नहीं करना चाहिए ।
इसी प्रकार अर्थभेद भी नहीं करना चाहिए । जो अर्थ अनुक्त और अघटित हो, वह नहीं करना चाहिए अर्थ का परिवर्तन करने पर गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित प्राप्त होता है।
सूत्र और अर्थ दोनों का एक साथ परिवर्तन करने पर पूर्वोक्त दोनों प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं । *
सूत्र और अर्थ के मौलिक स्वरूप के सुरक्षित रखने की दिशा में आगमों के रचनाकाल में चिन्तन प्रारंभ हो गया था। प्रस्तुत सूत्र में इसका स्पष्ट निर्देश है । ग्रन्थाध्ययन में मुनि को सावधान किया गया है कि वह सूत्र और अर्थ की अन्यरूप में योजना न करे । अथवा
१.
भाष्य गाव १८, चूर्णि भाग १, १०१२।
२. निशी भाष्य गाथा १५, चूर्णि भाग १, पृ० १२ :
सुतभेया प्रत्यमेओ । प्रत्यमेया चरणभेओ । चरणभेया ग्रमोक्खो मोक्खाभावा दिखादयो किरियाभेदा अफला भवन्ति । तम्हा वंजणभेदो ण कायब्वो ।
३. निशी भाष्य चूर्णि भाग १ ० १३ ४. वही;
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