Book Title: Adhyatma aur Pran Pooja Author(s): Lakhpatendra Dev Jain Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 4
________________ कृतज्ञता ___मैं परम पूज्य समाधिस्थ आचार्य श्री १०८,वीर सागर जी का अत्यन्त ऋणी हूं, जिन्होंने मुझे मेरी बालक अवस्था में दया करने के संस्कार दिए। ___ मैं परम पूज्य समाधिस्थ आचार्य श्री १०८ नेमिसागर जी अत्यन्त ऋणी हूं, जिन्होंने मुझे क्रोध व मान कषाय के नियंत्रण के लिए प्रेरित किया व मार्ग दर्शन दिया। उनके चरणों से जो अमृत झरता था, उसकी दिव्य अनुभूति मेरी चिर-स्थायी सम्पत्ति है। (स्थान- लखनऊ)। __मैं परम पूज्य आचार्य श्री १०८, दया सागर जी का अत्यन्त ऋणी हूं, जिन्होंने मुझे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और जिनके आशीर्वाद के बगैर इस पुस्तक का संकलन मन नहीं था। शा... लखना मुशहाटी) मैं परम पूज्य उपाध्याय श्री १०८ ज्ञान सागर जी का अत्यन्त ऋणी हूं, जिन्होंने मृत्यु को मित्रवत समझने और उसका स्वागत करने का उपदेश दिया (स्थानसोनागिर) ___मैं परम पूज्य मुनि श्री १०८ सुधासागर जी का अत्यन्त ऋणी हूं, जिन्होंने जैन धर्म की सेवा करने की भावना प्रेरित की। (स्थान: अलवर, राजस्थान) अन्त में मैं अपने पिता श्री स्व० श्री द्वारका प्रसाद जी जैन, माताश्री स्व० श्रीमती अनार देवी जैन का अत्यन्त कृतज्ञ हूं, जिन्होंने मुझे धर्म के संस्कार दिए। मैं अपने आदरणीय जीजाजी श्री भगवती प्रसाद जी जैन व बड़ी बहिन श्रीमती चन्द्र प्रभा जैन (जो चलती-फिरती धार्मिक चारित्र की जीवंत मूर्ति हैं) का अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे समय-समय पर प्रेरणा दी। मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जैन का सहयोग के लिए अत्यन्त आभारी हूं। अल्पज्ञता जिन वाणी एक महासागर है। उसके वर्णन में मुझ जैसे अल्पज्ञ से कदाचित भूल या गल्ती हो जाना स्वाभाविक है। मेरी मुनिराजों एवम् विद्वजनों से प्रार्थना है किPage Navigation
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