Book Title: Adhyatma aur Pran Pooja
Author(s): Lakhpatendra Dev Jain
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ अनात्मा में अन्तर समझ लेते हैं, तो नवीन कर्मों का बंध होना बंद कर, कर्मों का आना (आश्रव) रोकते हैं जो संवर कहलाता है। फिर व्यवहार रत्नत्रय, तत्पश्चात निश्चय रत्नत्रय के बल से अधिकाधिक - यहाँ तक कि सम्पूर्ण निर्जरा करके आत्मा के मोक्ष अर्थात् आत्मा के विशुद्ध स्वभाव की प्राप्ति कर परमात्मा बन जाते हैं और पंच परावर्तन (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव) रूपी संसार से सदैव के लिए मुक्त हो जाते हैं। उक्त सभी परिभाषायें अलग-अलग न होकर एक दूसरे की पूरक हैं अथवा सहगर्भित हैं।

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