Book Title: Adhyatma Aradhana
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 13
________________ शुद्ध संयम संयम कहा है द्विविध, पहला इन्द्रियां मन वश करो। षट् काय जीवों पर दया, रक्षा अपर संयम धरो॥ पंचेन्द्रियों के अश्व चंचल हैं, इन्हें वश में रखू । संयम सहित धर कर धरम, अमृत रसायन को चखू ॥४८॥ व्यवहार से संयम कहा, निश्चय सुरत निज की रहे। 'मैं शुद्ध हूँ' उपयोग सम्यक् ज्ञान धारा में बहे ॥ त्रय रत्न का निर्मल सलिल,जो ज्ञान मय नित बह रहा। अवगाह इसमें नित करो, निश्चय यही संयम कहा ॥४९॥ शुभ भावना से विधि सहित, यह दान है व्यवहार से। होगा सु निश्चय दान जब, मुंह मोड़ लो संसार से॥ है पात्र शुद्ध स्वभाव अरू, दाता कहा उपयोग को। सम्पन्न होता दान जब, सम्यक्त्व का शुभ योग हो॥५३|| उपयोग का निज रूप में ही, लीन होना दान है। है यह अनोखा दान जो, देता परम निर्वाण है ॥ शुभ दान से हो देवगति, अरू शुद्ध से मुक्ति मिले। चैतन्य उपवन में रहो, तव पुष्प आनन्द के खिलें ॥५४॥ सत्श्रावकों को शुद्ध आवश्यक, कहे षट् कर्म हैं। जो भव्य इनको पालते, मिलता उन्हें शिव शर्म है। रचते सदा जो प्रपंचों को, वे भ्रमे संसार में। मेरी लगे भव पार नैया, फँसे नहीं मझधार में ॥५५॥ (१) मैत्री भावना जग के सकल षट्काय प्राणी, ज्ञान मय रहते सभी। मुझको रहे सत्वेषु मैत्री, हो सफल जीवन तभी ॥ व्यवहार में सब प्राणियों के प्रति हो सद्भावना। निश्चय स्वयं से प्रीति हो, बस यही मैत्री भावना ॥५६|| शुद्ध तप इच्छा रहित निश्क्ले श हो, तप साधना उर धारना। द्वादस विधि तप आचरण कर, कर्म रिपु निरवारना ॥ रागादि सब विकृत विभावों, पर न दृष्टि डालना। निज रूप में लवलीन होकर, शुद्ध तप को पालना ॥५०॥ निश्चय तथा व्यवहार से, शाश्वत रहे तप की कथा। निर्द्वन्द होकर धारिलो, मिट जायेगी जग की व्यथा ॥ पुरुषार्थ के इस मार्ग पर, आलस कभी करना नहीं। यह शुद्ध तप पहुंचायेगा,जहां ज्ञान झड़ियां लग रहीं॥५१।। शुद्ध दान जो वीतरागी साधु उत्तम, और मध्यम अणुव्रती। तत्वार्थ श्रद्धानी जघन है, पात्र अविरत समकिती ॥ श्रावक सदा देता सु पात्रों को, चतुर्विधि दान है। आहार औषधि अभय अरू, चौथा कहा वह ज्ञान है ॥५२॥ (२) प्रमोद भावना जो मोक्ष पथ के पथिक हैं, निज आत्म ज्ञानी संत हैं। वे देशव्रत के धनी हैं अथवा, मुनि गुणवन्त हैं। उन ज्ञानियों को देखकर, भर जाए हियरा प्रेम से। बस हो प्रमोद सु भावना, श्रद्धान मय व्रत नेम से ॥५७॥ 21

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