Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 3
________________ • १०८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अनुसार षोडश कारण हैं जो लगभग समान हैं (पृ. १०), श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा में मान्य ३४ अतिशयों की तुलना, संकोच, विस्तार और सामान्य दृष्टिभेद की चर्चा हुई है (पृ. ३८), समवशरण की व्याख्या (पृ. ४१-४३) बड़ी युक्तिसंगत हुई है । 'आवश्यक नियुक्ति' (गाथा ३५१-५८) का उद्धरण देकर प्राचार्य श्री ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि परिव्राजक परम्परा सम्राट भरत के पूत्र मरीचि से शुरू हई है जो सूकूमार होने के कारण परीषह सहन नहीं कर सका और त्रिदण्ड. क्षर-मण्डन. चन्दनादि का लेप, छत्र, खडाऊं, कषायवस्त्र, स्नान-पानादि का उपयोग विहित बता दिया। कहा जाता है यही मरीचि बाद में तीर्थंकर महावीर हुआ (पृ. ४६-४७) । परिव्राजक परम्परा की उत्पत्ति का यह वर्णन कहाँ तक सही है, नहीं कहा जा सकता, पर इतना अवश्य है कि परिव्राजक संस्था बहुत पुरानी है। उत्तरकाल में यह शब्द विशेषण के रूप में श्रमण भिक्षु के साथ भी जुड़ गया । 'महापुराण' (१८-६२.४०३) में मरीचि के शिष्य कपिल को परिव्राजक परम्परा का प्रथम आचार्य माना गया है। बाद में यहाँ ऋषभदेव को जैनेतर परम्पराओं में क्या स्थान मिला है, इसका भी आकलन किया गया है। ऋषभदेव के वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्षी-तप का पारणा किये जाने के उपलक्ष्य में 'अक्षय तृतीया' पर्व का प्रचलन, व्यवहारतः उसे संवत्सर तप की संज्ञा का दिया जाना, ब्राह्मी और सुन्दरी को बालब्रह्मचारिणी कहे जाने पर उसे 'दत्ता' शब्द का सम्यक् अर्थ बताकर युक्तिसंगत सिद्ध करना, सनत्कुमार चक्रवर्ती को तद्भवमोक्षगामी मानने वाली परम्परा को मान्यता देना, आदि जैसे विषयों से संबद्ध प्रश्नों को सयुक्तिक समाधान देना प्राचार्य श्री की प्रतिभा का ही फल है। ___ तीर्थंकर ऋषभदेव से सुविधिनाथ (पुष्पदन्त) और शान्तिनाथ से महावीर तक के पाठ, इन कुल १६ अन्तरों में संघ रूप तीर्थ का विच्छेद नहीं हुआ । परन्तु सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक के सात अन्तरों में धर्मतीर्थ का विच्छेद हो गया। प्राचार्य श्री का अभिमत है कि यह समय राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष के कारण जैन धर्म के लिए अनुकूल नहीं रहा हो। यह भी माना जाता है कि ऋषभदेव से सुविधिनाथ तक के अन्तर में 'दृष्टिवाद' को छोड़कर ग्यारह अंग शास्त्र विद्यमान रहते हैं पर सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक के अन्तरकाल में बारहों ही अंगशास्त्रों का पूर्ण विच्छेद हो जाता है । शान्तिनाथ से महावीर के पूर्व तक भी 'दृष्टिवाद' का ही विच्छेद होता है, अन्य ग्यारह अंगशास्त्रों का नहीं । (प्रवचन सारोद्धार, द्वार ३६) । (पृ. १४) । तीर्थकर अजितनाथ से नमिनाथ तक के तीर्थंकरों की जीवन-घटनाओं का वर्णन अधिक नहीं मिलता। पर उनके पूर्वभव, देवगति का आयुकाल, च्यवन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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