Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 6
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. लब्धिधारी, पूर्वधारी, वादी, साधक जीवन, प्रायु प्रमाण, माता-पिता की गति, निर्वाण तप, निर्वाण तिथि, निर्वाण नक्षत्र, निर्वाण स्थल, निर्वाण साथी, पूर्वभव नाम, अन्तराल काल आदि विषयों पर दिगम्बर श्वेताम्बर ग्रन्थों के आधार पर अच्छे ज्ञानवर्धक चार्ट प्रस्तुत किये हैं । यह खण्ड विशुद्ध परम्परा का इतिहास प्रस्तुत करता है और यथास्थान दिगम्बर परम्परा को भी साथ में लेकर चलता है । शैली सुस्पष्ट और साम्प्रदायिक प्रभिनिवेश से दूर है । द्वितीय खण्ड इस खण्ड को प्राचार्य श्री ने केवलिकाल, श्रुतकेवलिकाल, दशपूर्वधरकाल, सामान्यपूर्वधरकाल में विभाजित कर वीर नि. सं. से १००० तक की अवधि में हुए प्रभावक प्राचार्यों और श्रावक-श्राविकाओं का सुन्दर ढंग से जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है और साथ ही तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक परम्पराओं का भी आकलन किया है । केवलिकाल : • १११ वीर निर्वाण सं. १ ने ६४ तक का काल केवलिकाल कहा जाता है । महावीर निर्वाण के पश्चात् दिगम्बर परम्परानुसार केवलिकाल ६२ वर्ष का हैगौतम गणधर १२ वर्ष, सुधर्मा ( लोहार्य ) ११ वर्ष तथा जम्बू स्वामी ३६ वर्ष । परन्तु श्वे. परम्परानुसार यह काल कुल ६४ वर्ष का था - १२ + ८ + ४४ । इनमें इन्द्रभूति गौतम का जीवन अल्पकालिक होने के कारण सुधर्मा स्वामी प्रथम पट्टधर थे । इन्द्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर शेष & गणधरों का निर्वाण महावीर के सामने ही हो चुका था । श्राचार्य श्री ने सुधर्मा को पट्टधर होने में दो और कारण दिये । पहला यह कि वे १४ पूर्व के ज्ञाता थे, केवली नहीं जबकि गौतम केवली थे। दूसरा कारण यह कि केवली किसी के पट्टधर या उत्तराधिकारी नहीं होते क्योंकि वे आत्मज्ञान के स्वयं पूर्ण अधिकारी होते हैं । तीर्थंकर महावीर ने निर्वाण के समय सुधर्मा को तीर्थाधिप बनाया और गौतम को गणाधिप मध्यमपावा में । ( गणहरसत्तरी २, पृ. ६२ ) । सम्पूर्ण द्वादशांग तदनुसार सुधर्मा स्वामी से उपलब्ध माना जाता है । यद्यपि उसमें शब्दत: योगदान सभी ग्यारह गणधरों का ही रहा है । जम्बूस्वामी ४४ वर्ष तक पट्टधर रहे । द्वादशांगों में 'आचारांग' का 'महापरिज्ञा' लोप आचार्य श्री की दृष्टि में नैमित्तिक भद्रबाहु (वि. उसमें शायद मंत्रविद्याओं का समावेश था जो साधारण Jain Educationa International नामक सातवे अध्ययन का सं. ५६२ ) के बाद हुआ । साधक के लिए वर्जनीय For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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