Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 9
________________ • ११४ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व में यह स्थिति समाप्त हो गई और दिगम्बर-श्वेताम्बर के नाम से सम्प्रदाय-भेद प्रकट हो गया। दि० परम्परा के अनुसार यह काल वी० नि० सं० ६०६ हो सकता है। प्राचार्य श्री ने दोनों परम्पराओं का तुलनात्मक अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है (पृ० ६१३) । समग्र कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भद्रबाहु की परम्परा दि० सम्प्रदाय से और स्थूलभद्र की परम्परा श्वे० सम्प्रदाय से जुड़ी हुई है। अर्धफलक सम्प्रदाय का यहाँ उल्लेख दिखाई नहीं दिया जो मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की प्रतिकृति में दिखाई देता है । संभव है, श्वे० सम्प्रदाय का यह प्रारूप रहा है । इस प्रसंग में 'सान्तरोत्तर' शब्द का भी अर्थ द्रष्टव्य है। शीलांक के शब्दों में जो आवश्यकता होने पर वस्त्र का उपयोग कर लेता है अन्यथा उसे पास रख लेता है। 'उत्तराध्ययन' की टीकाओं में 'सान्तरोत्तर' का अर्थ महामूल्यवान और अपरिमित वस्त्र मिलता है। किन्तु 'पाचारांग' सूत्र २०६ में आये 'सन्तरुत्तर' शब्द का अर्थ भी द्रष्टव्य है। वहाँ कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधुओं का कर्तव्य है कि वे जब शीत ऋतु व्यतीत हो जाये, ग्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीर्ण न हुए हों तो उन्हें कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये। 'सान्तरोत्तर' के इन अर्थों पर विचार करने पर लगता है, अचेल का अर्थ वस्त्राभाव के स्थान में क्रमशः कुत्सितचेल, अल्पचेल और अमूल्यचेल हो गया है। 'पाचारांग' सूत्र १८२ में अचेलक साधु की प्रशंसा तथा अन्य सूत्रों (५-१५०-१५२) में अपरिग्रही होने की आवश्यकता एवं 'ठाणांग' सूत्र १७१ में अचेलावस्था की प्रशंसा के पांच कारण भी इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं। धीरे धीरे यापनीय और चैत्यवासी जैसे सम्प्रदायों का उदय हुना। आचार्य श्री ने इन सम्प्रदायों के इतिहास पर भी यथासम्भव प्रकाश डाला है। उनकी दृष्टि में यापनीय संघ वि० की द्वितीय शताब्दी में दिगम्बर सम्प्रदाय से और चैत्यवासी सम्प्रदाय सामन्तभद्र सूरि के वनवासीगच्छ से वि० सं० ८०० के आसपास अस्तित्व में आया। हरिभद्रसूरि ने चैत्यवासियों की शिथिलता की अच्छी खासी आलोचना की है। यहाँ प्राचार्यश्री ने दिगम्बर सम्प्रदाय में जाने माने आचार्य समन्तभद्र (द्वितीय शताब्दी) को समन्तभद्र सूरि होने की संभावना व्यक्त की है (पृ० ६३३) जो विचारणीय है। वाचक वंश परम्परा में हुए प्राचार्य स्कन्दिल (वी० नि० सं० ८२३) के नेतृत्व में मथुरा में आगमिक वाचना हुई। स्कन्दिल और नागार्जुन (बल्लभी) . १. देखिए लेखक का ग्रन्थ “जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास" पृ० ३७-५६. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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