Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 13
________________ व्यक्तित्व एवं कृतित्व आगमानुसार श्रमण- वेष धर्म प्रचार की चर्चा करते हुए लेखक ने 'आचारांग' सूत्र, 'प्रश्न व्याकरण' और 'भगवती सूत्र' के आधार पर यह सिद्ध किया है कि मुखस्त्रिका, वस्त्र पात्र प्रादि धर्मोपकरणों का प्रमुख स्थान था । दूसरी परम्परा सवस्त्र अवस्था में मोक्ष प्राप्ति को स्वीकार नहीं करती थी । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 'आचारांग' के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को भी प्राचार्य श्री उतना ही प्राचीन मानते रहे हैं जितना प्रथम श्रुतस्कन्ध को जो साधारणतः कोई स्वीकार नहीं कर सकेगा । वे सम्पूर्ण श्रागम शास्त्रों के विलुप्त होने की बात को भी स्वीकार करते हैं ( पृ० ३७६ ) । और यह भी प्रश्न खड़ा करते हैं कि दूसरी परम्परा के पास फिर कोई सर्वज्ञ या गणधरों या चतुर्दश / दस पूर्वधरों द्वारा निर्यूढ कोई धर्मग्रन्थ सर्वमान्य है ? यह प्रश्न विचारणीय है । • ११८ उत्तरवर्ती श्राचार्य परम्परा (वी० नि० सं० १००० के बाद ) : तीर्थंकर महावीर के बाद यथासमय परिस्थितियों के अनुसार प्रचारनियमों में परिवर्तन होता गया । शिथिलाचार के साथ ही अन्य धर्मों के आकर्षक आयोजनों और आरतियों के तौर तरीकों को अपनाया जाने लगा । लोक प्रवाह को दृष्टि में रखते हुए धर्मसंघ को जीवित रखने के लिए धर्म के स्वरूप में समयानुकूल परिवर्तन होता रहा । इस अध्याय में लेखक ने २७वें पट्टधर देवद्धिगण क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती काल की मूल श्रमण परम्परा के प्राचार्यों को प्रमुख स्थान देते हुए क्रमबद्ध युगप्रधानाचार्यों का विवरण प्रस्तुत किया है जिसे सामान्य श्रुतधरकाल (१) माना है और २७वें युगप्रधानाचार्य तक के बिवरण को सामान्य श्रुतधरकाल ( २ ) के अन्तर्गत नियोजित किया है । भ० महावीर के २८वें पट्टधर आचार्य वीरभद्र के समकालीन २६वें युग प्रधानाचार्य श्री हारिल्ल सूरि, भद्रबाहु (द्वितीय) - ( वी० नि० सं० १०००१०४५) और मल्लवादी ( वि० की छठी शताब्दी) का मूल्यांकन किया । आचार्य सामन्तभद्र और समन्तभद्र को अभिन्न व्यक्तित्व मानकर उन्हें वि० की ७वीं शताब्दी में रखा है ( पृ० ४३३) । इसी क्रम में बट्टकेर (पांचवीं छठी शती ई०) शिवार्य, सर्वनन्दि और यतिवृषभाचार्य का भी काल निर्णय किया है । २९वें पट्टधर शंकरसेन, ३० वें पट्टधर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तथा आगे के क्रमश: पट्टधर आचार्य वीरसेन, वीरजस, जयसेन, हरिषेण आदि का विवरण दिया है । यही जैनधर्म दक्षिणापथ में किस प्रकार इसका भी अच्छा विवेचन किया है ( पृ० ४७४ ) । संकटापन्न स्थिति में रहा, तृतीय भाग की विशेषताओं का आकलन हम इस प्रकार कर सकते हैं— १. दिगम्बर संघ की भट्टारक परम्परा का रोचक और तथ्यपूर्ण इतिहास | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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