Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 8
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ध्यान की साधना की, उसी समय उनकी अनुपस्थिति में आगमों की वाचना वी. नि. सं. १६० के आसपास पाटलिपुत्र नगर में हुई, उन्होंने प्रार्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम १० पूर्वी का सार्थ और शेष पूर्वों का केवल मूल वाचन दिया, उन्होंने चार छेद सूत्रों की रचना की (पृ. ३७७) । • ११३ दशपूर्वधर काल : वी. नि. सं. १७० में श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गारोहण के बाद दशपूर्वधरों के काल का प्रारम्भ होता है । श्वे. परंपरा वी. नि. सं. १७० से ५८४ तक कुल मिलाकर ४१४ वर्ष का और दि. परंपरा वी. नि. सं. १६२ से ३४५ तक कुल मिलाकर १८३ वर्ष का दशपूर्वधर काल मानती है । आर्य 'स्थूलभद्र गौतम गोत्रीय ब्राह्मण नंद साम्राज्य के महामात्य शकटाल के पुत्र थे । वररुचि भी इसी समय का प्रकाण्ड विद्वान था । नन्दवंश का अभ्युदय और अन्त तथा मौर्यवंश का अभ्युदय भी इसी काल में हुआ । सिकन्दर, चन्द्रगुप्त और चाणक्य से सम्बद्ध घटनाओं का भी यही काल था । आचार्य श्री ने अनेक प्रमाण देकर चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक काल वी. नि. सं. २१५ अर्थात् ई. पू. ३१२ निश्चित किया है । आर्य महागिरि के समय सम्राट बिन्दुसार और आर्य सुहस्ति के समय सम्राट अशोक और सम्प्रति ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान किया । 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली आर्य सुहस्ती से सम्बद्ध रही है । आर्य बलिस्सह के समय कलिंग, खारवेल और पुष्पमित्र शुंग का राज्य था | आर्य समुद्र के समय कालकाचार्य और सिद्धसेन हुए । इसके बाद आर्य वज्रस्वामी और आर्य नागहस्ति हुए । दिगम्बर परंपरा में भी एक बज्रमुनि हुए हैं जो विविध विद्याओं के ज्ञाता और धर्म - प्रभावक थे । वज्रस्वामी और वज्रमुनि एक ही व्यक्तित्व होना चाहिए जिनके स्वर्गारोहण के बाद वी. नि. सं. ६०६ में और दिगम्बर परम्परानुसार वी. नि. सं. ६०६ में दिगम्बर श्वेताम्बर परंपरा का स्पष्ट भेद प्रारम्भ हुआ (पृ. ५८५ ) । सामान्य पूर्वधर काल : वी. नि. सं. ५८४ से वी. नि. सं. १००० तक सामान्य पूर्वधर काल रहा । आरक्षित के पश्चात् भी पूर्वज्ञान की क्रमशः परि हानि होती रही और वी. नि. सं. १००० तक संपूर्ण रूपेण एक पूर्व का और शेष पूर्वों का आंशिक ज्ञान विद्यमान रहा । आार्यरक्षित सामान्य पूर्वधर प्राचार्यों में प्रधान हैं । वे अनुयोगों के पृथक्कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । आर्य सुधर्मा से लेकर आर्य वज्रस्वामी तक जैन शासन बिना किसी भेद के चलता रहा । उसे ‘निर्ग्रन्थ' के नाम से कहा जाता था । परन्तु वी.नि.सं. ६०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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