Book Title: Acharya Hastimalji ki Itihas Drushti Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 2
________________ • श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. की अविरल परम्परा से प्राप्त प्रामाणिक इतिवृत्त के रूप में स्वीकार किया है । अपने समर्थन में 'पउमचरियम्' की एक गाथा को भी प्रस्तुत किया है जिसमें पूर्व ग्रंथों के अर्थ की हानि को काल का प्रभाव बताया गया है।' यही बात आचार्य श्री ने द्वितीय खण्ड के प्राक्कथन में लिखी है – “ इस प्रकार केवल इस प्रकरण में ही नहीं, आलेख्यमान संपूर्ण ग्रन्थमाला में शास्त्रीय उल्लेखों, अभिमतों अथवा मान्यताओं को सर्वोपरि प्रामाणिक मानने के साथ-साथ आवश्यक स्थलों पर उनकी पुष्टि में प्रामाणिक आधार एवं न्यायसंगत, बुद्धिसंगत युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं । मतभेद के स्थलों में शास्त्र सम्मत मत को ही प्रमुख स्थान दिया गया है (पृ. २६) । यह बात सही है कि पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिक, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र ही प्राचीन आर्यों का इतिहास शास्त्र था । परन्तु विशुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि को उसमें खोजना उपयुक्त नहीं होगा । जब तक धर्मशास्त्र परम्परा पुरातात्त्विक प्रमाणों से अनुमत नहीं होती, उसे पूर्णतः स्वीकार करने में हिचकिचाहट हो सकती है। तीर्थङ्करों के महाप्रातिहार्य जैसे तत्त्व विशुद्ध इतिहास की परिधि में नहीं रखे जा सकते 1 • १०७ तीर्थंकरों में 'नाथ' शब्द की प्राचीनता के संदर्भ में आचार्य श्री ने 'भगवती सूत्र' का उदाहरण 'लोगनाहेणं', 'लोगनाहाणं' देकर यह सिद्ध किया है कि 'नाथ' शब्द जैनों का अपना है । नाथ संप्रदाय ने उसे जैनों से ही लिया है । यतिवृषभ ( चतुर्थ शती) ने 'तिलोयपण्णत्ति' में संतिणाह, प्रणतणाह आदि शब्दों का प्रयोग किया है (४-५४१/५६६) । जैन परम्परा के कुलकर और वैदिक परम्परा के मनु की संख्या समान मिलती है । 'स्थानांग' और 'मनुस्मृति' में सात, महापुराण ( ३ / २२६-२३२) और 'मत्स्यपुराण' ( वां अध्याय) आदि में चौदह और 'जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति' में ऋषभ को जोड़कर १५ कुलकर बताये गये हैं । तुलनार्थ यह विषय द्रष्टव्य है । तीर्थंकरत्व प्राप्ति के लिए 'आवश्यक निर्युक्ति' के अनुसार बीस कारण (१७६-१७८, ज्ञाताधर्मकथा ८ ) और 'तत्त्वार्थ सूत्र' (६.२३) या 'आदिपुराण' १. एवं परंपराए परिहाणि पुव्वगंथ प्रत्थारणं । नाऊण काकभावं न रुसियब्धं बुहजरणेणं ।। पउमचरियम् जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम खण्ड, अपनी बात, पृ. १० २. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वि. खं, प्राक्कथन, पृ. २६ ३. पुराणमितिवृत्तमाख्यायि कोदाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतिहासः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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