Book Title: Padmurtimayam Stotra panchakam
Author(s): Amrut Patel
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 11 पादमूर्तिमयं स्तोत्रपञ्चकम् अमृत पटेल: परमपूज्य काव्यमर्मज्ञ विद्वद्वर्य मुनिवर श्रीधुरन्धरविजयजी पासेथी प्राप्त थयेल हस्तप्रतोनी झेरोक्ष कोपीने आधारे प्रस्तुत पादपूर्ति स्तोत्रोनुं सम्पादन थयुं छे. तेमां रघुवंश महाकाव्य, भक्तामरस्तोत्र, "संसारदावा०" स्तुति तथा "आनन्दानम्र" ० स्तुतिनां अलग अलग चरणनी पूर्तिरूपे आ स्तोत्रो रचायां छे. प्रस्तुत स्तोत्रोना उपजीव्य साहित्यना ऐतिहासिक क्रमने मुख्य मानीने, सम्पादनमां-सौ प्रथम रघुवंशपादपूर्तिरूप (१) श्री ऋषभदेव स्तोत्र (२) श्रीवीतरागस्तोत्र, (३) भक्तामर स्तोत्रनां प्रथमपादनी पूर्तिरूप श्री ऋषभदेवस्तोत्र (४) 'संसारदावा'. स्तुतिनी पादपूर्तिरूप महावीरजिनस्तोत्र (५) 'आनन्दानम्र'. स्तुतिनी पादपूर्तिरूप श्रीशान्तिजिन स्तोत्र-क्रम राख्यो छे. परंतु पादपूर्तिकारोना समयानुसारे नहीं. प्रतिपरिचय - पांचेय स्तोत्रो लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्यामन्दिर अमदावादनां हस्तप्रतभण्डारनी हस्तप्रतोनी झेरोक्षकोपीओ रूपे छे. 'रघुवंशपादपूर्तिस्तोत्रो (१,२)नी ह.प्र. नंबर-ला.द.भे.सू. २२२५६ छे. ते पंचपाठ छे, (३) भक्ता. पा. स्तोत्रनी ह.प्र.-ला.द.भे.सू. ३००५० छे. अक्षर सुवाच्य अने सुन्दर छे. (४) संसारदावा० पा. स्तोत्रनी ह.प्र. ला.द. भे. सू ४१-१० छे. पं. दानसारगणिले वि.सं. १५६३मां लखी छे. (५) 'आनन्दानम्र' पा. स्तोत्रनी ह.प्र.-ला.द. भे.सू. २९९९७ छे. बधी प्रतोनां बे-बे पत्रो छे. पांचमांथी मात्र 'संसारदावा' पादपूर्तिस्तोत्रनो ज उल्लेख मळे छे. अने ते पण अछडतो ज. बाकीनां स्तोत्रोनो उल्लेख मळतो नथी. सम्पादनमा भक्ता पा. स्तोत्रनी टिप्पणी जरूर मुजब आपी छे... ___ रघुवंश पा.स्तोत्रमा प्रत्येक पाद पछी ( )मां रघुवंशना सर्ग-- श्लोक अने चरणनो अंक शोधीने अंग्रेजीमां आपेल छे, परंतु (१) ऋषभ देवस्तोत्रमा १८मा पद्यमां अने (२) वीतरागस्तोत्रमा रजा पद्यमां BY स्थान मळ्यु नथी. स्तोत्र/स्तोत्रकार-रघुवंश महाकाव्य बधा सर्गमांथी भिन्न भिन्न पद्योनां बे-बे चरणो लईने पादपूर्तिरूप ऋषभदेव स्तोत्र अने एज महाकाव्यनां प्रथम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनुसन्धान-३८ सर्गनां भिन्न-भिन्न पद्योमाथी त्रण त्रण चरणो लईने श्रीवीतरागस्तोत्रनी रचना थई छे. तेमां रघुवंशनां ते ते पदोनां वर्ण्य विषयने बदले श्रीऋषभदेव तथा श्रीवीतरागपरमात्मानां सन्दर्भमां अर्थघटन अवचूरि द्वारा रजू थयेल छे. स्तोत्रकार (श्री संघहर्ष-धर्मसिंह शिष्य) मुनिराज श्रीरत्नसिंह (१८मो विक्रमशतक पूर्वार्ध) पादपूर्तिकार तरीके प्रस्थापित छे. तेमणे भक्तामरस्तोत्रनां चतुर्थ चरणने आधारे "प्राणप्रियं नृपसुतः" थी शरु थतुं नेमिभक्तामर (लेखन संवत् २१७३०)नी रचना करी छे. भक्तामरस्तोत्र (विक्रम ७मो शतक)ना प्रथमचरणनी पादपूर्तिरूप श्रीऋषभदेवस्तोत्र, भक्ता.पा.स्तोत्रो (२४) मां सम्भवत: प्राचीनतम छे. कारण के विक्रमसंवत् १६८०मां लिपिकृत 'भक्ता.पा.स्तोत्र जे समयसुन्दरकृत छे, तेनो ज भक्ता.पा.स्तोत्रोमां सौथी प्रथम उल्लेख छे. ज्यारे प्रस्तुत भक्ता.पा.स्तोत्रना कर्ता पं. महीसागर गणिनो समय विक्रमना १६मा शतकना पूर्वार्धनो छे. प्रस्तुत स्तोत्रमा अन्तिम पद्यमा तपा. लक्ष्मीसागरसूरिनो उल्लेख छे, ते (वि.सं. १४६४-१५४१) प्रभावक आचार्य हता. अमणे ६ वर्षनी लघुवयमा वि.सं. १४७०-उदयपुरमा मुनिसुन्दरसूरि पासे प्रव्रज्या स्वीकारी हती. लक्ष्मीसागरसूरिसन्तानीय सोमजयसूरिओ (प्रायः १५२५-१५३३) अमदावादमां महीसमुद्र तथा लब्धिसमुद्र, अमरनन्दि अने जिनमाणिक्यने वाचकपद आप्यु हतुं, पण्डित महीसमुद्र पण्डितपदनी प्राप्ति पछी स्तोत्रनी रचना करी हशे. संसारदावा० पा.स्तोत्र अने 'आनन्दानम्र०' पा.स्तोत्रनां कर्ता ज्ञानसागरसूरि छे. बे ज्ञानसागरसूरिनी माहिती उपलब्ध छे. (१) तपा. देवसुन्दरसूरिशिष्य (२) बृ.त. रत्नसिंहसूरिशिष्य. (१) चन्द्रगच्छीय सोमतिलकसूरि-शिष्य देवसुन्दरसूरिना ज्ञानसागरसूरि शिष्य हता. ज्ञानसागरसूरिओ वि.सं.१४४०मां आवश्यक अवचूर्णि, १४४१मां उत्तराध्ययन अवचूरि अने ओघनियुक्ति अवचूर्णिनी रचना करी छे. तथा मुनिसुव्रतस्तव, घनौघ नवखण्डपार्श्वनाथस्तवन वगेरे स्तोत्रोनी पण रचना करी छे. (२) सैद्धान्तिक मुनिचन्द्रसूरिना शिष्य बृ.त.रत्नसिंहसूरिना शिष्य ज्ञानसागरसूरिओ वि.सं. १५१७७६ स्तम्भतीर्थमां विमलनाथचरित्रनी रचना करी छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 13 देवसुन्दरसूरि अने रत्नसिंहसूरिनो शिष्यगण विद्वान छे. बन्नेनो समय जोके लगभग समान शतकमां छे, परंतु प्रस्तुत स्तोत्रना कर्ता ज्ञानसागरसूरि ओ देवसुन्दरसूरिनां शिष्य होवा वधु सम्भव छे. कारण के रत्नसिंह-शिष्य करतां देवसुन्दरसूरि-शिष्य वधु प्राचीन छे. तथा स्तोत्र, अवचूर्णि वगेरे ग्रन्थो एमनी रचनाओ छे. रत्नसिंहसूरिशिष्य ज्ञानसागरसूरिजीना नामे मात्र विमलनाथ चरित्र छे. छतां 'विमलनाथ चरित्र' जोईने निर्णय करवो योग्य छे. संसारदावा.अने वीतरागस्तोत्र आ बने स्तोत्रोमा मात्र कर्तानां सांकेतिकनामो - 'ज्ञानाम्भःसागराभः' तथा 'श्रीज्ञानसिन्धुः' छे. साक्षात् नामो नथी अने गुरुनाम पण नथी. तथा बन्ने स्तोत्रोना कर्ता कोण ? एक ज झानसागरसूरि के अलग अलग ज्ञानसागरसूरि ? आ बाबतमा बन्ने स्तोत्रोना आन्तरसम्बन्ध खास करीने स्त्रग्धराछन्दना पद्यमां केटलीक समानता बन्ने स्तोत्रोना कर्ता एक ज होवा विषे संकेत करे छे. जेमके बन्ने स्तोत्रोमां रचना प्रौढ छे. तथा संसार०पा.स्तोत्रनुं १३९ पद्य तथा आनन्दा०पा.स्तोत्र, १५मुं पद्य, संसार०पा.स्तोत्र, १४ मुं पद्य तथा आनन्दा०पा.स्तोत्रनुं ४धुं पद्य, रचनानी केटलीक समानता धरावे छे. पोतानां उपजीव्य मुजब 'आनन्दा' पा.स्तोत्रमा ओजसगुणनी प्रौढि छे. तो 'संसारदावा'. पा. स्तोत्रमा प्रासादिकता छे. बन्नेमां तीर्थंकरनां शरीरनी उंचाई माटे एक ज शब्द 'प्रमिततनुः' छे. लाञ्छन माटे पण 'एक ज शब्द 'अङ्कः' छे, अन्तिम पद्योमां एवं शब्द छे, पोतानुं नाम संकेतमां अपायुं छे. माटे बन्ने स्तोत्रोना कर्ता एक ज होवा वधु सम्भव छे. अने ते देवसुन्दरसूरिशिष्य होवा जोईअ. टिप्पणी : १. (४) 'संसारदावा. पूर्ति-- आना कर्ता ज्ञानसागर छे' (ही.र.कापडिया जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास. खंड २, पृष्ठ २५८, सम्पा. आ. श्री मुनिचन्द्र सूरिजी ई.स. २००४) (४) नेमिभक्तामर, एजन, पृ. २६४ ३. भक्तामरपादपूर्तिरूप काव्यो, एजन, पृ. २५३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-३८ गुरुगुणरत्नाकर, जै.साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, मो.द.देसाई सं. आ.श्री मुनिचन्द्रसूरि, ई.स. २००६, पेरा ७ मो, पृ. ३२७ "इति श्रीऋषभदेवस्तोत्रं श्री पण्डितमहीसमुद्रगणिपादविरचितम्" ला.द. भे. सू. ३००५० नी झेरोक्ष कोपी. स्तम्भतीर्थमां शाणराजे वि.सं. १५०८ मां विमलजिनप्रासाद बंधाव्यो. श्रीरत्रसिंह सूरिए प्रतिष्ठा करावी. वि.सं. १५१७ मां शाणराजे विनंती करवाथी विमलनाथ चरित्रनी रचना करी-विमलनाथ चरित्र भाषांतर, मो.द. देसाई, जै.सा.नो संक्षिप्त इतिहास सं. आ.श्री मुनिचन्द्रसूरि. ई.स. २००६, पेरा ७१९. रघुवंशपदद्वयसमस्यानिबद्धं युगादिजिनस्तवनम्, तदवचूरिश्च अथाभ्यर्च्य विधातारं, शर्मणस्त्वत्पदाम्बुजम् । [A 1-25-1] स्निग्धगम्भीरनिर्घोषं रचयामि तव स्तवम् ॥१॥ [B 1-35-2) अथः प्रजानामधिप: प्रभाते । [A 2-1-1] यस्ते सपर्यां विधिवत् तनोति ॥ एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं प्राप्नोत्यावद्भुतभाग्यसिन्धुः(?) |॥२॥ निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य सन्तते- A 3-1-1] र्यस्त्वां नयेद् दृष्टिपथं गरिष्ठधीः ॥ दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं [B 3-8-1] श्रेयो निवासं विदधाति तद्गृहे ||३|| स्तुत्यं स्तुतिभिरर्थ्याभि-र्यस्त्वां स्तौति प्रशस्तगीः || [A 4-6-3] स हि सर्वस्य लोकस्य मान्यतामेति मानवः ॥४॥ [B 4-8-1] कल्येन वाचा मनसा च शश्वत् [A 4-4-1] प्रभोरुपास्ति तव यस्तनोति ।। कालोपपन्नातिथिभागधेयं तन्मन्यिरे न क्षयमेति पृक्तम् ॥५।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 पर्ध्यवर्णा स्तरणोपपन्नं [A 6-4-1] न के श्रयन्ते भविनो भवन्तम् ॥ तं प्राप्य सर्वावयवानवा [B 6-69-1] यदीशोऽहं जिन ! का गतिर्मे(?) ॥६॥ उद्भासितं मङ्गलसंविधाभिः [A 7--16-3] स्वर्ग समासाद्य सुखानि भुङ्क्ते ॥ महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ [B 7-18-1] क्रमाच्छिवं याति तवार्चनेन ॥७॥ अनपायपदोपलब्धये [A 8-17-1] हदा(दि) ये त्वां दधते पुराविदः ॥ भगवन् ! परवानयं जनो [B 8-81-2] भवभोगैकरति; करोमि किम् ॥८॥ प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि [A 9-58-4] ध्यानानि चेतसि तवापि पुर:स्थितेन ॥ प्रोवाच ! कोशलपतिप्रथमापराधः [B 1-19-4] क्षन्तव्य एष करुणाम्बुनिधिर्यतोऽसि ॥९।। किञ्चिदूनमनून॰ ! स्वामिन्नद्यापि वर्तते ॥ [A 10-1-3] उदधेरिव रत्नानि त्रीणि प्राप्तानि यत् प्रभोः ॥१०॥ [B 10-30-7] गन्धवद् रुधिरचन्दनोक्षितां [A 11-20-3] मूर्तिमीश ! तव पश्यतां नृणाम् ।। पक्ष्मपातमपि वञ्चनां मनो [B 11-36-4] मन्यते नलिननेत्र ! नेत्रयोः ॥११॥ सा पौरान् पौरकान्तस्य पुनाति तव गीरियम् ॥ [A 12-3-3] नभो-नभै स्ययोवृष्टिं या जिगाय त्वदीरिता ॥१२॥ [B_12-29-3] सेवाविचक्षणहरीश्वर ! दत्तहस्त ! श्रेयोऽर्पणे सुकृतिनां शरणं श्रये ते ।। इक्ष्वाकुवंशगुरवे प्रयतः प्रणम्य [B 13-70-1] तुभ्यं विभो ! परमहं - भजामि किञ्चित् ॥१३।। विपाकविस्फूर्जथुरप्रसह्यः [A 14-62-4] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-३८ स्वकर्मणां शर्मद ! किं करोमि ॥ सम्पत्स्यते ते मनसः प्रसादो [B 14-76-4] यदा तदा सिद्धिसुखं न दूरे ॥१४॥ कृतैशीतापरित्यागस्तापोऽपि न विरागवान् | A 15-1-1] आदिष्टवा मुनिभिः कदा त्वच्चरणं श्रये ॥१५|| [B_15-10-1] पुरः परॊध्य प्रतिमाऽगृहाया {A 16-39-2] स्थितस्य याते मम नाथ ! तुष्टिः || सा मैंन्दुरा संश्रयिभिस्तुरङ्गैनजैर्नवा वारिविहारवद्भिः ॥१६॥ दुरितं दर्शनेन घ्नन् वन्दनेनेहितप्रदः ॥ [A 17-74-!] दूरापवर्जितच्छत्रैः सुरेन्द्रैस्त्वमुपास्यसे ॥१७।। [B 17-19-1] दमान्वित: पद्मदलाभदृष्टि- [A ?] र्गुणाम्बुनिधिर्बुद्धिनिधिर्विधिज्ञः ॥ पतिः पृथिव्याः कुलकैरवेन्दु- [B ?] युगादिनाथो जयताज्जिनेन्द्रः ॥१८।। एवमिन्द्रियसुखानि निविश- [19-47-1| नप्यधीश्वरनुतिं तनोति यः ।। तं प्रमत्तमपि न प्रभावतो [B 19-48-3] दुर्णतिः स्पृशति सौतमेति च ॥१९॥ श्रीसङ्घहर्षसुविनेय[क]धर्मसिंहपादारविन्दमधुलिण्मुनिरत्नसिंहः । श्रीमधुगादिजिनवर्णनवर्ण्यवर्णं स्तोत्रं चकार रघुवंशपदप्रधानम् ॥२०॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 17 रघुवंशपदत्रयसमस्यानिबद्धं श्रीवीतरागस्तवनम् रघुवंशादिसर्गस्य पदत्रयसमस्यया । कुर्वे स्तोत्रं जगद्भर्तुः समीहितफलप्रदम् ॥१॥ लोकान्तरसुखं पुण्यं स्मृत्वा सपदि सत्वरः । A 1-69-1] B ?] स्रिग्धगम्भीरनिर्घोषं वितनोमि विभोः स्तवम् ॥२॥ [C 1-36-1] भीमकान्तैर्नृप ! गुणैस्तनुवाग्विभवोऽपि सन् । [A 1-16-1 ___B1-9-2] [C 1-13-3] आत्मकर्मक्षमं देहं स्तवं कृत्वा पुनाम्यहम् ॥३॥ अनिन्द्या नन्दिनी नाम वागर्थप्रतिपत्तये । [A 1-82-3 B1-1-2] [A 1-61-1] तव मन्त्रकृतो मन्त्रै-दुःसाधैरलमेव च ।।४।। सो हमिज्याविशुद्धात्मा प्रार्थनासिद्धिशंसिनः । [A 1-68-1] B 1-42-3] [C 1-2-3] तितीपुर्दुस्तरं मोदा-'पंगमात् ते श्रये क्रमौ ॥५॥ आ समुद्रक्षितीशानां माननीयो मनीषिणाम् । [A 1-5-1] [B 1-12-2] अदूरवर्तिनी सिद्धि विधेहि भगवन् ! मम ॥६॥ [A 1-87-1] सरसीष्वरविन्दानां यर्थी कालप्रबोधिनाम् । [A 1-43-1] B 1-6-4] C1-5-11 सोहमाजन्मशद्धानां गम्योऽसि ज्ञानभास्करः ॥७॥ C Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान-३८ सर्वातिरिक्तसारेण विद्यानां पारदृश्वनः । [A 1-42-2] ___B 1-23-2] आदेशं देशकालज्ञ: मौलौ बिभ्रति ते प्रभो ! ॥८॥ [C 1-92-3] ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ द्वयमेवार्थसाधनम् । [A 1-22-1] __B1-19-2] अनुभावविशेषात् तु त्वग्ने वास्त्यपरे नहि ?|९|| [A 1-37-3] आकारसदृशप्रज्ञ परत्रेह च शर्मणे । - [A 1-15-1] ___B 1-69-4] उपस्थितेयं कल्याणी-भक्तिर्मनसि ते सताम् ॥१०॥ [A 1-87-3] तयाँ हीनं विधातर्मा प्रारम्भसदृशोदयम् । [A 1-70-1] B1-15-4] [C 1-11-1] असह्यपीडं भगवन् ! नवकर्मकर्थितम् ॥११॥ नमामवति सद्वीपा रत्नसूरपि मेदिनी ॥ A 1-91-1] __B 1-65-2] [A 1-23-1] अनाकृष्टस्य विषयैर्बोधिर्मेऽस्तु भवे भवे ॥१२॥ इत्याप्रसादादस्यास्त्वं परिचर्यापरो भव । [A 1-91-1] B_1-91-2] अविघ्नमस्तु ते भूयाः रे जीव ! शिवसौख्यभाक् ॥१३।। [C 1-92-3] श्रीसङ्घहर्ष सुविनेयक धर्मसिंह पादारविन्दमधुलिण्मुनिरत्नसिंहः । श्रीमज्जिनेन्द्रगुणवर्णनवर्ण्यवर्णं स्तोत्रं चकार रघुवंशपदप्रधानम् ॥१४॥ इति श्रीरघुवंशपदत्रयसमस्यानिबद्धं श्रीवीतरागस्तवनम् ॥ -X--- Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 महीसमुद्रगणिरचितं 'भक्तामर पादपूर्तिमयं आदिजिनस्तोत्रम् भक्तामरप्रभुशिरोमणिमौलिमाला मन्दारसारमकरन्दकदम्बकायौँ । नाभेयदेव ! भवतो भवदीयपादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ यस्य स्तुतिर्मतिमतामपि गोचरः स्या नो योगिनां गुणमहागरिमाऽमराद्रेः ॥ शालीनताऽतिमहतीयमहो यदेषा स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ त्वामेव देवमपसन्तमसं श्रयन्ते सन्तः कषायकलुषानपरानुपेक्ष्य । काचं विमुच्य मणिमात्महिताय विज्ञं मन्य: क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ शक्नोति नो तव जिन ! स्तवनाय धीर __ धीमान् पुमान् क इह मन्दमतिस्तु मादृग् ॥ पद्भ्यां हि गन्तुमगशृङ्गमिवाङ्ग ! पङ्गुः को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥ देव ! त्वदेकशरणं करुणागुणाब्धे ! मामीश ! मोचय महारिपुमोहरुद्धम् ॥ कष्टे कलिव्यसनत: सविता समर्थो नाभ्येति कि निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ ग्रन्थि विभिद्य जिन ! मोहमयं बभूव त्वदर्शने रुचिरसौ शिवसौख्यहेतुः ॥ मूलेषु यत् परिणमत्युदकं घनस्य तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः ॥६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अनुसन्धान-३८ बाह्यान्तरारिबलमप्यखिलं विशालं त्वद्ध्यानसन्निधिविधायिधियामधीश ! ॥ भूरिप्रभाव ! भजते विशरारुभावं सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥ त्वत्पादपङ्कजयुगप्रणिधानयोगा न्नाभेय ! नाशमुपयाति महान्त्यघानि ॥ वातोद्भुतः किल कियच्चिरमब्जपत्रे मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।।८।। लक्ष्मीविलासवसति विदुरा विदन्तु नामैव ते स्मरणतोऽस्य यदाप्यते श्रीः ।। मिथ्येन्दुमण्डलमथातपवारणं वा पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ।।९।। त्वांमष्टकर्ममलमुक्तमुपास्य नष्ट कर्माष्टको हि भजतीति भजे भवन्तम् ॥ किं सर्वतोमुखसुखैषिभिरिष्यते स भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ श्रोतुं सुराः समुपयन्ति गिरं गुरो ! ते देवेश ! दिव्यमपि गीतरसं निरस्य । स्वाधीनसौधरससारसराः पिपासुः क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥ उत्पाद्यते कथमधीश ! तवात्मतत्त्व मर्वाग्दृशामनुपमानमतीन्द्रियं च ॥ आलोकितं क्वचिदपि श्रुतपूर्वकं वा यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥ वागौचितीं व्रजति सा किमु कोविदानां यत् ते त्वदीययशसामतिनिर्मलानाम् ।। नेतस् ! तदप्युपमयन्ति शशाङ्कबिम्बं यद् वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ||१३|| Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 कोधं निरुध्य परिमथ्य मदं निहत्य मोहं प्रमुष्य निखिलानपि शेषदोषान् ॥ ये त्वां श्रिताः शिवपथे पथिका जिनेन्द्र ! कस्तान्निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ||१४|| कर्मक्षयोत्थमिह वीर्यमनन्तमर्हन् ! यादृक् तव त्रिभुवनेऽपि परस्य नेदृक् ॥ केनाप्यपश्चिमजिनेश्वरमन्तरेण किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५॥ पूर्णः शशी निशि दिवा च दिवाकरः स्यात् गेहे तथा गृहमणीति जगत्प्रतीतः ॥ दीपाः कियद् वियति दीप्तिकृर्तस्ततस्तु उद्बोधयन् कुमुदमभ्युदयेन नाना- दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥१६॥ "पद्मालिकां मुकुलयंश्च तमोर्ग्रहस्य || ग्रासं विश्व ( ? ) दधदातपवारणानि यन्नित्यमस्तरहितं परिवर्धमान सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥ १७॥ तेजश्च नैककलमुज्ज्वलमप्यखण्डम् ॥ जाग्रद् यशस्तव जिगाय जिनेन्द्रचन्द्र ! विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ||१८|| यद्यस्ति नो भवति भक्तिरसस्तदानी न स्युस्सुदुस्तपतपांस्यपि सत्फलानि ॥ सञ्जायते सपदि बीजमृते हि सस्य कार्यं कियज्जलधरैर्जलभारनत्रैः ॥ १९ ॥ श्रुत्वा श्रुतोपनिषदं परदर्शनानां त्व [च्छा]शने सुकृतिनः कति नो रमन्ते ॥ विद्वन्मनो मणिषु मोहमुपैति यद्वन् नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ||२०|| 21 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 किं विश्वमोहनमिमामुत कार्मणं ते मूर्ति किमुत्तमवशीकरणं वदामः ॥ तर्न यत् सकृदपीक्षितपूर्विणां तां देवाः परेऽपि ददते दिविषत्सुखानि कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेपि ॥ २१॥ कुर्यात् प्रतीच्यपि कवेरुदयं रवेस्तु शैवं त्वनन्तसुखमर्पयसि त्वमेकः ॥ ज्ञानक्रियाद्वयमयं यमपायमुक्त प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ||२२|| . सर्वात्मसंयमवतां सुगमं वितानं १४ माख्य: सुखाश्रय ! महोदयमार्गमीश अनुसन्धान- ३८ त्वां शब्द-रूप-रस- गन्धगुणव्यपेतं व्याघातवर्जितममूर्त्तमसङ्गमेकम् ॥ नानाभिधाभवदुपाधिभिदं न के के नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ||२३|| विश्वे विभो ! परममङ्गलमङ्गिनां त्वा ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ||२४|| मेकः शरण्यशरणं शरणार्थिनां च ॥ किं त्वेकमेव भवतारणकारि कुर्वे : श्रीवीतराग ! विगतान्तरवैरिवार ! व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ||२५|| शक्तिर्न मे तपसि नापि जपे पटुत्वं ध्याने न धैर्यममलं च मनोऽपि नो मे ॥ तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणा ||२६|| नाद्यापि मे मतिरुपैति तवोपदेशे प्रीतिं प्रयाति विषयेषु न यद् विरागम् ॥ मन्ये मया क्वचन पूर्वभवेषु तत् त्वं स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 लोकस्थितिप्रथितपातकपार्श्ववर्ती(त्ति-) निःशेषकर्मपटलापगमात् तवात्मा || धत्ते महोऽधिकमहोभ्रमदभ्रमुक्तं बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववत्ति ॥२८॥ सिंहासने स्थितवतस्तव हेमरत्न रम्ये स्फुरत्युरु विशेषवतीव दीप्तिः ॥ प्रातः प्रभा प्रचुरधातुरसैरुपेता | __तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ नेतविभूषति भृशं भवदंसदेशं हेमोपमं मरकतद्युतिकाऽलकाऽऽली ।। कल्पद्रुकाननततिः परितः प्रकाम मुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०॥ दोषत्रयीविजयिनं त्रिसुपर्वसाल संस्थं त्रिकालविदमीश ! भवन्तमाशु ॥ रत्नत्रयीगुरुगुणा नृपतित्रिशक्तिः प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ अत्रोचितः कविकृतोऽस्त्युपमोपमेय-- भावो न वेदमवधारयितुं धरेयम् ॥ यत्रादधासि चरणौ तदधः सुवर्ण __पद्मानि तत्र बिबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३२॥ तीर्थाधिपत्यपदवी भुवनोपकार-- सारा यथा तव तथा न भवेत् परेषाम् ।। सौख्यावहः सवितुरस्त्युदयस्तु यादृक् तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशितोऽपि ॥३३॥ दुर्वार वैरि-करि-केसरि-वारि-मारि चौरोरगप्रभृतिसम्भवमाभवं ते । निःशेषभीतिहरणौ चरणौ शरण्यौ दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३४॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 यत् तिष्ठति ग्रहगणस्तव पादपीठे सेवापरो मुकुलिताग्रकरः स्वमौलौ । क्रूरोऽपि युक्तमिह स प्रतिकूलभावा भूयो भवभ्रमभवं श्रममङ्गभाजां तृष्णाभवं परमनिर्वृतिनाशनं च ॥ अन्तः परीतमुपतापमलं मलं च न्नाऽऽक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३५॥ त्वन्नामकीर्त्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥३६॥ नैवाहितः स्फुरति कोपि परोपतापो मूर्च्छा च नो सविषया प्रकृताऽपकृत्या । नो भोगभङ्गिजनिता विकृतिश्च तस्य त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ||३७| कल्याणकेषु भगवन् ! भवतः प्रभूतो दूतप्रभावविभवैर्यदि नारकाणाम् ॥ नश्यत्यशेषमसुखं तदिहोच्यते किं अनुसन्धान- ३८ सत्पुण्यचञ्चचरिता गुणिपक्षदक्षा: त्वत्कीर्त्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ||३८|| गर्जगुणैः परमहंसपदं पृणन्त प्रीत्या परागरसरङ्गभृतो मरालीः ॥ रुद्धा विरोधिभिरधीश ! धृती धरेशैः स्त्वद्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ||३९|| बद्धाश्च बन्धनशतैश्चलिताश्च चौरैः ॥ प्राप्ता परं व्यसनमप्यभयं पदं हि त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४०॥ रूपं निरूपयितुमीश ! तदीशते ते केऽनुत्तरा जगदनुत्तररूपिणोऽपि ॥ यस्याग्रतोऽञ्जनमिवापगताङ्गभासो मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४१॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 25 त्वत्राममन्त्रमिव नाथ ! पवित्रपात्र - मत्र श्रियामसममुक्तिकरं स्मरन्तः । बाह्यान्तरद्विविधबन्धभृतोऽपि बाढं सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४२।। तं सर्वतोमुखमुपैति सुखं समग्र श्रीभिः समं शमितदुर्मतिदुःस्थताभिः ॥ मन्त्रं महान्तमिव तत्र नियन्त्रितात्मा यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ यस्ते स्तुति प्रथमतीर्थपते । प्रथीयः पुण्योदयां प्रथयति प्रथमानभावः ॥ श्रीसूरसुन्दरमहामहसा लसन्तं तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ इत्थं श्रीजिननाभिनन्दनविभो(भु)भक्त्यात्तभक्तामरस्तोत्रान्त्यांहिसमस्यया स्तुतपदः, स्तुत्याल्पमत्या मया ॥ तत्त्वातत्त्वपथप्रकाशनरवेर्माहात्म्यमालालसललक्ष्मीसागरसार्वसोमजयदः स्तादाप्तदिव्यो रयः(रथः) ॥४५!! इति श्रीऋषभदेवस्तोत्रं श्रीपण्डितमहीसमुद्रगणिपादविरचितम् छ।। श्रीज्ञानसागरसूरि विनिर्मितं संसारदावा० पादपूर्तिमयं ___ महावीरस्तोत्रम् । कल्याणवल्लीवनवारिवाहं श्रेयःपुरीसत्पथसार्थवाहम् || हर्षप्रकर्षेण नुवामि वीरं संसारदावानलदाहनीरम् ॥१॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अनुसन्धान-३८ विभो ! जनास्ते जगति प्रधानाः ये त्वां भजन्ते दलिताभिमानाः । सम्प्राप्तसंसारसमुद्रतीरं सम्मोहधूलीहरणे समीरम् ॥२॥ केनाऽपि जिग्ये नहि मोह-भूपः प्रकाममुद्दामतमःस्वरूपः ॥ विना भवन्तं भुवनैकवीरं मायारसादारणसारसीरम् ॥३॥ सुवर्णसद्वर्णलसच्छरीरं सिद्धार्थभूपालकुलाम्रकीरम् । औदार्य-धैर्यादिगुणैर्गभीरम् नमामि वीरं गिरिसारधीरम् ॥४॥ अन्यां विहाय महिलां महिमाभिरामा भेजे जिनेश ! भवता किल मुक्तिरामा ॥ कैवल्यनिर्मलरमासुषमानवेन भावावनामसुरदानवमानवेन ॥५॥ सत्राकिनायकनिकायशिरांसि यानि । ब्रह्मादिदैवतगणेन मनाग् नतानि ।। त्वत्पादनीरजरजः स्पृहयन्ति तानि चूलाविलोलकमलावलिमालितानि ॥६॥ तापापहा भविकभृङ्गविराजमाना मूर्तिस्तव प्रवरकल्पलतोपमाना ॥ दत्ते जगत्त्रयपते ! सुमन:समूहै: सम्पूरिताभिमतलोकसमीहितानि ॥७॥ येषामधो नवसुवर्णसमुद्भवानि सञ्चारयन्ति विबुधा नवपङ्कजानि ॥ भूपावकानि रजसा किल तावकानि कामं नमामि जिनराज ! पदानि तानि ॥८॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 तावत् तृष्णाकुलितमतयः पापतापोपगूढा दुःखीयन्ते नवनवभव [ वे ] ग्रीष्मकाले कराले || यावल्लोका घनमिव भवच्छासनं नो लभन्ते बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामम् ॥९॥ पीयूषाभं तव सुवचनं वर्यमाधुर्ययुक्तं स्वादं स्वादं विपुलहृदयक्षीरसिन्धोः समुत्थम् | क्षारं नीरं कुसमयमयं कामयन्ते न भव्या जीवा हिंसा विरललहरीसङ्गमागाहदेहम् ॥१०॥ निःपुण्यानां न सुलभमिह श्रीमदानन्दहेतुं विज्ञैर्धन्यैस्तव जिनपते ! शास्त्ररूपं निधानम् ॥ चित्ताऽऽवासे लसदचलना निर्जिताऽमर्त्यभूभृच् चूलावेलं गुरुगममणीसङ्घलं दूरपारम् ॥११॥ अव्याबाधारस्सपदि विबुधास्सच्चिदानन्दलीनाः पुण्यापीना अजरममरं संश्रयं संश्रयन्ते || यस्मात् पीत्वाऽसमशमसुधां तं जिनेन्द्र ! त्वदीयं सारं वीरगमजलनिधिं सादरं साधु सेवे ॥ १२ ॥ ये दुर्गाश्चोपसर्गा भवति कुमतिना सङ्गमे वा हतास्ते तस्यापत् सङ्गमायाऽजनिषत तदनु ध्यानसन्धानैः ॥ दैवैर्दिव्या समोदं तव शिरसि तदा पुष्पवृष्टिर्विचक्रे आमूलालोलधूलीबहलपरिमलालीढलोलालिमाला ||१३|| शान्तं कान्तं नितान्तं निरुपमसुषमालाभवन्तं भवन्तं दृष्ट्वा लीना स्वयं सा जिनवर ! कमला चञ्चलापि स्वभावात् । विन्यस्ता शौरिणा या विधिसविधगता संस्थिता षट्पदाली 27 झङ्कारारावसाराऽमलदलकमलाऽऽगारभूमीनिवासे ॥ १४ ॥ केचिद् गायन्ति देवाः प्रमदभरभृतो नाथ ! नृत्यन्ति केचित् स्त्राते जाते सुमेरौ त्वयि जनिसमये रत्नसिंहासनस्थे || रम्यक्षौमावृताङ्गे मृदुतरचरणे भासुरस्कारमौलि - च्छायासम्भारसारे वरकमलकरे तारहाराभिरामे ॥ १५ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुसन्धान-३८ सिंहाङ्कः सप्तहस्तप्रमिततनुरयं सम्पदः सर्वभव्याः देया देया यदीयाननकमलभवा द्वादशाङ्गीमयाङ्गी ॥ दक्षो मोक्षोपयोगी वदति भगवतीं भारती नित्यमेवं वाणीसन्दोहदेहे भवविरहवरं देहि मे देवि ! सारम् ॥१६॥ एवं देवाधिदेवः सदतिशयचयैः सर्वत: शोभमानः काव्यैः 'संसारदावा' स्तुतिपदकलितैः कोविदैर्वर्ण्यमानः ।। सद्ध्येयस्त्रैशलेय: स भवतु भविनां भूतये वर्धमानः ज्ञानाम्भःसागराभः सकलसुखकरः श्रीजिनो वर्धमानः ॥१७|| ॥ इति महावीरस्तवनं पं. दानसारगणिना लिखितं सम्वत् १५६३ फाल्गुन शुदि १ ॥ श्रीज्ञानसागरसूरिविनिर्मितं 'आनन्दानम्र'.... पादपूर्तिरूपं श्रीशान्तिजिनस्तवनम् । [स्रग्धरावृत्तम्। चञ्चच्चामीकराभप्रवरवरतनुद्योतिरुद्योतिताशः श्रीशान्तिः शान्तिदाता स भवतु भविनां भाविनां तीर्थनाथः । यत्पादौ सप्रसादौ जगति नतवतामुल्लसन्तिा?]प्रभुता(प्रभुत्व)मानन्दानम्रकम्रत्रिदशपतिशिरःस्फारकोटीरकोटी ॥१॥ नौमि श्रीविश्वसेनक्षितिपतितनयं विश्वविश्वाधिपं तं शिवाय श्रेयसी यं स्वयमपि सुकृतार्जिता चक्रिलक्ष्मीः ॥ भक्तिप्राग्भारभारप्रणमदविकलाक्षोणिभृन्मौलिमोलिप्रेखमाणिक्यमालाशुचिरुचिलहरीधौतपादारविन्दम् ॥२॥ भोगान् रोगानिवाहो(हे)विषमिव विषयान् शस्त्रिकावद् वरस्त्री: प्रौदं तत्याज राज्यं रज इव रभसा दूषणानीव भूषाः ।। वन्दध्वं मुक्तिरामाविलसनमनसं तं जनास्त्यागिनं भो ! आद्यं तीर्थाधिराजं भुवनभवभृतां कर्ममर्मापहारम् ॥३॥ भीतो हर्यक्षभीतो वनदवदरतस्त्यक्तरङ्गः कुरङ्गो दीनो लीनो यदीये सुचरणशरणे निर्भयं प्राप सौख्यम् ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 शोभावन्तं भवन्तं तमिह जिनपते ! सर्वजीवानवन्तं वन्दे शत्रुञ्जयाख्यक्षितिधरकमलाकण्ठशृङ्गारहारम् ॥४॥ सिद्धान्तास्ते त्वदीया अपरमत अहो वादिवादे कृतान्ताः श्रीशान्ते ! भान्ति शान्ता मधुरतरसुधास्वादतः श्रान्तिकान्ताः । सिंहायन्ते धरायां नखरचितमहाडम्बराः स्फूर्जयन्तो माद्यन्मोहद्विपेन्द्रस्फुटकरटतटीपाटने पाटवं ये[ते] ॥५॥ विद्वद्वृन्दैरमेयास्त्रिभुवनमखिलं लङ्घयन्तः स्वशक्त्या दोषारीणाम जेयाः सकलसुरनराधीश्वरैश्चापि गेयाः ॥ सन्दोहास्त्वगुणानां विकटसुभटवद् भेजिरे सज्जयित्वं बिभ्राणाश्शौर्यसारा रुचिरतररुचां भूषणायोचितानाम् ||६|| प्रोद्यत्कैवल्यलक्ष्मीविपुलकुचतटस्फारशृङ्गारकारा: साराः पीयूषधाराधरबहलगलबिन्दुवृन्दानुकाराः ॥ त्वद्व्याहाराः सुहारा इव गुणनिचिता लोकमुद्योतयन्ते सद्वृत्तानां शुचीनां प्रकटनपटवो मौक्तिकानां फलानाम् ॥७॥ पूर्वं यैस्तत्क[ त्यक्त ] गर्वं भवशुभविधिना विश्वमान्या त्वदाज्ञा भावाऽऽविर्भूतहर्षप्रकरपुलकितौ (तं) पालिताक्षालिताद्या (घा) | मुक्तौ रागादिमुक्ता असमसुखरताः कर्मकुम्भिप्रभेदे तेऽमी कण्ठीरवाभा जगति जिनवरा विश्ववन्द्या जयन्ति ॥८॥ भोगो रोगोऽपि तेषां भवनमिव वनं हव्यवाहोऽम्बुवाहो पूतायन्ते च भूताः स्थलमिव सलिलं दुर्जनाः सज्जनाऽऽभाः ॥ जतो यैः कण्ठपीठे लुठित इव भवन्नामजापस्त्रिसन्ध्यं सद्बोधाऽवन्ध्यबीजं सुगतिपथरथः श्रीसमाकृष्टिविद्या ॥९॥ तेषामेषा विशेषाद् विषयविषभवा वासना भासते वा । धत्ते चित्ते निवासं विषमतममहामोहमिथ्यात्ववासः ॥ धर्मः शर्मप्रदस्ते श्रवणपटयुगैर्न श्रुतो विश्रुतो यै: रागद्वेषाहिमन्त्रः स्मरदवदवथुः प्रावृषेण्याम्बुवारः ||१०| केचिच्चारित्ररत्नं कति लघु विरतिं त्वद्विहारेण लब्ध्वा लोकास्तत्त्वावलोकाद् बहुसुकृतधराः सम्मदादेवमाहुः ॥ 29 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसन्धान-३८ यस्मादस्मादृशानामुपलसमधियां धर्मिताऽभूदकस्माज्जीयाज्जैनागमोऽयं निबिडतमतमःस्तोमतिग्मांशुबिम्बम् ॥११॥ निःशङ्का वीतपङ्का यदि हृदि भवतां सच्चिदानन्दवाञ्च्छा विज्ञाः सज्ज्ञातदृष्ट्या परिहरि(र)त तदाऽनल्पसङ्कल्पजालम् । सेवध्वं देवदेवं जिनवरमचिरानन्दनं सर्वदा यो द्वीपः संसारसिन्धौ त्रिभुवनभवनज्ञेयवस्तुप्रदीपः ।।१२।। सोऽपि स्वामिन् ! स्वभावात् सकृदपि भवतः पूजयन् पादपद्म प्राज्यं प्राप्नोति राज्यं निरुपमकमलां निर्मला चाप(पि) कीर्तिम् ।। विप्रो वा क्षत्रियो वा वणिगपि घटकृल्लोहकारोऽपि यद् वा यः पूर्वं तन्तुवायः कृतसुकृतलवैर्दूरितः पूरितोऽधैः ॥१३।। आरूढो रूपलक्ष्मी गुणततिषु तथा प्रौढिमानं भवान् भोः ! पूर्व प्रौढं त्रिलोकी-परिवृढ ! सुदृढं तीर्थकृत्कर्मबन्धात् । नृणां स्त्रीणां सुराणां नयनपथि यथा विंशतिस्थानकादिप्रत्याख्यानप्रभावादमरमृगदृशामातिथेयं प्रपेदे ॥१४।। दुर्ग दुष्टोपसर्ग विदलयति सतामाहतानां समूलं । लक्ष्मीमुख्यं च सौख्यं रचयति रुचिरं स्वीयचित्तानुकूलम् ॥ निर्वाणी यक्षिणीयं गरुड इति सुरः शासने ते मुनीनां सेवाहेवाकशाली प्रथमजिनपदाम्भोजयोस्तीर्थरक्षः ॥१५|| रङ्गगौराङ्गकान्तिर्विशदवृषगतिनिष्कलङ्क मृगाङ्क धत्ते नित्यं भवानीहितकरणरतो ब्रह्मचारिश्रितो यः ॥ सर्वज्ञः शान्तिनाथः प्रबलबहुलसद्दपकन्दर्पघाते दक्षः श्रीयक्षराज: स भवतु भवतां विघ्नमर्दी कपर्दी ॥१६॥ एवं श्रीज्ञानसिन्धुप्रसरशशधरः सद्गुणौधैः गंभीरश्चत्वारिंशत्सुचापप्रमिततनुविभाभासुरो विश्वमित्रम् । श्रीशान्ते ! पीतकान्ते त्रिजगदभिमते चारुचिन्तामणिस्त्वं ख्यातः शुद्धावदातः स्तुत इह मयका सम्पदां सद्म जीया: ॥१७॥ इति श्रीशान्तिनाथस्तवनम् । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 31 अवचूरि (१) - रघुवंशसमस्यास्तोत्रस्यादिमस्य 1 'अथ' इति स्तोत्रस्यारम्भे मङ्गलार्थमव्ययम् । 2 निष्पादकम् । 33 सुखस्य । 4 स्निग्धगम्भीरनिर्घोषं यथा स्यात् तथा इति क्रियाविशेषणं भक्ति प्रागल्भ्यवशादुत्कृष्टतासूचकम् ॥१॥ 5 'अथः' इति कर्तृविशेषणं, "थो मिथ्यावाचके श्रान्ते शोके च [(ऽथा]ऽरब्धवस्तुनि'. [विश्वशम्भुकृतैकाक्षरनाममालिका ६४] इत्याद्येकाक्षराभिधानवाक्यात्, 'अथः सूनृतवाक्, एतेन धर्मित्वोक्तिः, अश्रान्तः इति पूजापरत्वोक्तिः, अशोकः इति हर्षोत्कर्षोक्तिः । एवं हि पजा विधीयमाना । बहुफला भवति । 6 प्रजानामधिपः कुटम्बवान् पुत्र-पौत्रादिपरिकरपरिवृतः नृपतिरपि वा। 7 एकातपत्रमिति भूपतिपक्षे स्वल्पराज्यो राजा बहु राज्यं प्राप्नोति, अन्यत्र तीर्थकृच्चक्रिपदवीम् ॥२॥ ___B इक्ष्वाकुवंशस्य सन्ततेरत्रोत्पन्नत्वाद् हेतुभूतम् । 9 क्रमेणाधिकतरम् ॥३॥ 10 स्तुतियोग्यं, । 11 अर्थमुक्ताभिः । 12 तीर्थकृत्त्वमाप्नोति इत्यर्थः ॥४॥ 13 त्रिकरणशुद्ध्या । 14 अर्थिप्राप्यं, कृपणस्य हि धनमर्थिनामप्राप्यं भवति, भगवदुपास्तिप्राप्तं धनं सत्पात्रसुप्राप्यं भवति । 15 पृक्तं धनं [अभिधान चिंतामणो' देवकाण्ड 192 तेम पद्ये 'पृक्थं' अस्ति] ||५|| 16 परााः प्रकृष्टाः वर्णा गुणा यशो वा येषां (वर्णाः... गुणे ॥ यशस्ताल० हैम. अनेकार्थसङ्ग्रह 154] | 17 संसाराम्भोधितरणार्थं प्राप्तं । 18 धर्मानुष्ठानपराङ्मुखः, त्वदुपास्तिरहितः ॥६॥ ___19 मङ्गलोपचारकलितम् ॥७॥ 20 मोक्षपदप्राप्त्यर्थम् । 21 भूत-भावि-भावावबोधिनो महर्षयः, "पुरापूर्व- भविष्यार्थयो:" [-] इत्युक्तत्वात् । 22 भोगैकरतत्वात् तदायत्तः ॥८॥ 23 प्रोवाच इति हे प्रोव! हे अच! प्रकर्षेण उ: रक्षकः रक्षार्थ वाचकावेतौ... वि-का ११]वो वदनं [-यस्य सः प्रोवः, तस्य सम्बोधनम् - हे प्रोव ! 1 24 अ: चन्द्रः, च: चारुदर्शनः [तस्य सम्बोधनं] हे अच! । 25 कौशला: देशाः, तेषां पतयो राजानः, तेषां प्रथमः, “पढमराए व" [] इत्युक्तेः ।।९।। ____ 26 अनूना-पूर्णा ऋद्धिर्यस्य स अनूनर्द्धिः, तस्य सम्बोधनम् । 27 ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानि ॥१०॥ 28 सुगन्धि रुधिरं कुङ्कमं, चन्दनं श्रीखण्डः, ताभ्यां चर्चिताम् । 29 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 हे कमललोचन ! ॥११॥ 30 श्रावण-' - भाद्रपदयोः ॥१२॥ 31 परिचर्यापरायणा हरयो देवेन्द्रा धनिनश्च यस्य सः, तस्य सम्बोधनम् । 32 हे सुकृतिनां श्रेयोऽर्पणे दत्तहस्तः [ इत्यन्वयः ] | 33 नु इति वितर्के तुभ्यं प्रणम्य परमन्यं कञ्चिदपि देवं अहं न भजामि ॥१३॥ 34 पूर्वोधाजितदुःकर्मारिजृम्भितम् । 35 कृतः शीतस्य अपरित्यागो येन सः तत्परीषहसहत्वात् ॥१४॥ 36 परार्ध्या प्रकृष्टा प्रतिमा आकृतिर्यस्य सः, तस्य सम्बोधनम् ] | 37 हे अग्रह ! अनगार ! हे अय ! " योऽतिकुत्सने [ योऽतिकुसिते - इति विश्व. नाममाला ९८] इत्यनेकार्थवचनात् । 38 वाजिशाला ॥१५॥ 39 स्तुतिमाहात्म्यात् । 40 मोक्षसुखम् ||१९| 41 युगादिजिनवर्णनेन वर्ष्या वर्णनीया वर्णा अक्षराणि यत्र ॥ २० ॥ अनुसन्धान- ३८ अवचूरि : ( 2 ) रघुवंशसमस्यास्तोत्रस्य द्वितीयस्य 1 परलोकेषु केन पुण्येन सुखं भवतीति विचार्य || २ || 2 भीमानि मितां स्तोकां (?) करोतीति भीमः भयविनाशकः इत्यर्थः, तस्य सम्बोधनं हे भीम ! | 3 हे नृप ! | 4 [गुणैरिति ] "औदार्यं समता कान्ति:" [वाग्भट्टालङ्कार ३.२] इत्यादिभिः दशभिः काव्यगुणैस्तनुवाग्विभवोऽपि सन् । 5 आत्मनः कर्माणि सांसारिका व्यापाराः, तत्करणे समर्थाम् ॥३॥ | 7 हे जिन ! तव नामवाक् 'श्रीवीतराग' इत्येवंरूपा । 7 अर्थप्रतिपत्तये अभिमतार्थसिद्धये भवेत् चेत्, तर्हि तव मन्त्रैः अलं पूर्यताम् कीदृशैः ? साधयितुमशक्यैः । 8 मन्त्रं धर्मविचारं करोति इति तस्य ॥४॥ 9 [इज्या] "यज देवपूजासङ्गतिकरण - दानेषु" [-] इति वचनात् देवपूजादिभि: सुकृतैर्विशुद्धः आत्मा यस्य सः । 10 केवलावबोधात् । 11 तरितुमशक्यं संसारसागरमित्यर्थाद् ज्ञेयम् ||५|| 12 आसमुद्रक्षितीशां चकिप्रमुखाणां मनीषिणां बुद्धिमतां महर्षीणां माननीय: । 13 समीपवर्तिनीं मुक्ति ||६|| 2 14 हे सोहम ! सह ऊहेन मया च वर्त्तते इति [ स + ऊह + म] सोहम: तत्सम्बोधनं । ऊहो दोषपरिज्ञानं मा लक्ष्मीः शोभा, [ मा मातरि तथा लक्ष्म्यां सुधाकलश-एकाक्षरनाममाला ३५ ] 15 काले वाद [ ] क्यादौ प्रबोधो ज्ञानं येषां ते । 16 जन्मप्रभृति निर्दोषाणां सत्त्वानां इति शेषः] 1 17 त्वं गम्योऽसि, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी-2007 18 ज्ञानेन केवलावबोधेन भास्कर इव भास्करः / 19 यथा काले सूर्योदयसमये विकाशवतां पद्मानां भास्करो गम्यो भवति / [तथा] // 7 // 20 सर्वेभ्य: विद्वद्भ्योऽधिकं बुद्धिबलं न्यायो वा प्रेम [-] |8|| 21 'नहि' इत्येकमव्ययं निषेधवाचकं [ ] // 9 // 22 देव! तव भक्तिः कल्याणकारिणी, सतां मनसि समागता सती - सुधा कलश-माला 23] / / 11 / / 24 अस्य / आः / त्वं / इति पदच्छेदः, आ: इति अव्ययं, सन्तापप्रकोपसूचकं, जीवं प्रति सन्तापप्रकोपपूर्वकं वक्ति [आः सन्तापेऽव्यये कुध्या.... सुधाकलश-माला 3] // 13 // भक्तामरपादपूर्तिस्तोत्रटिप्पण 1. 'भूधातोः प्रथमगणस्य परस्मैपदिन: वर्तमानायां तृतीयपुरुषस्य द्विवचनस्य रूपम् / 2. 'अङ्ग' इति कोमलामन्त्रणेऽव्ययम् 3. पिता / 4 'अस्य' इति नाम्नः / 5 स्वाधीनं सौधरसेण पीयूषरसेण सारं श्रेष्ठं सरः यस्य स-इति विग्रहः कार्यः। 6 चर्मचक्षुषां छद्मस्थानाम् इति यावत् 17 'ते' इति कोविदाः / 8 'ततः' इति तेभ्यो दीपेभ्यः / 7 'कुमुदं' इति शशिविकसि जलजं, अथ च कौ पृथिव्यां मुद् हर्षः इति कुमुद्, तां इति द्वितीयोऽर्थोप्यूयः | 10 पद्मानां आलिका श्रेणिः तां, अथवा पदस्य मालिका पद्मालिका, तां पदपदवीम इत्यर्थः / 11 तमः अज्ञानं, तस्य ग्रह: ग्रहणं बन्धनम् अज्ञानबन्धनं इत्यर्थः, अथ वा तमो राहुः ["तमो राहुः सैहिकेयो"... इति अभिधान चिन्तामणि-देवकाण्डे 121] तस्य ग्रहः, य: पर्वणि जायते सः, तस्य // 12. 'विधन्'-विधत् विधाने [हैमधातुपाठे 1372 तमस्य] धातोः वर्तमानकृदन्तस्य शतृप्रत्ययान्तस्य पुंलिङ्गे प्रथमाया एकवचनरूपम् / 13 'ऋते' इति "विनाऽर्थकमव्ययम् / 14 'आख्यः' इति आपूर्वकस्य 'ख्यांक' अदादेर्धातोरद्यतनभूतकालस्य द्वितीयपुरुषैकवचनरूपम् / 15 'त्रिशक्तिः' इति गजाश्वपदातिरूपा नृपाणां तिस्त्रः शक्तयो भवन्ति / ठे. 203, B. एकता एवन्यू, बेरेज रोड, वासणा, अमदावाद-७