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पं. देवचन्द रचित नवतत्त्व-चोपाई
- साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
जैन दर्शनना सिद्धान्तमा प्रवेश करवारूप प्राथमिक प्रकरण ग्रन्थमां आवतुं 'नवतत्त्व प्रकरण', जेनी ६० गाथा प्राकृतमां प्रचलित छे, जेमां जगतनुं दर्शन 'जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आश्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध-मोक्ष' आ नवतत्त्वना माध्यमथी बताव्युं छे. 'नवतत्त्व प्रकरण' ग्रन्थना सन्दर्भमां गुर्जर भाषामां चोपाई, रास वगेरे अनेक रचना पूर्वपुरुषोए करेली छे. जेमांनी आ 'नवतत्त्व चोपाई'नी बे हस्तप्रतिनी झेरोक्स आ. विजय शीलचन्द्रसूरिजीए मने आपेल तेना परथी आ वाचना तैयार करेल छे. तेमांनी (१) नवतत्त्व चोपाईना कर्ता - वाचक भानुचन्द्रना शिष्य देवचन्द्र छे ।
आ कृतिनी छेल्ली त्रण गाथामां कर्ताए पोतानी गुरुपरम्परा बतावी छे. श्रीविजयदेवसूरि-शिष्य विजयसिंहसूरि, उपाध्याय सकलचन्द्र, पण्डित सूरचन्द्र, वाचक भानुचन्द्र तेमना शिष्य देवचन्द्र.
चोथा पाप तत्त्वनुं वर्णन बतावती ढाळमां अन्ते गाथामां वाचक भानुचन्द्र कया ? तेनो स्पष्ट उल्लेख को छे. "प्रतिबोधी अकबर सुलताण, मुंकाव्युं श्रीशेजूंज दाण; भानुचंद गुरु सीस सुजाण, देवचंद कहइ तत्त्व वखांण". जेमणे अकबर सुलतानने प्रतिबोध करी शेर्छजय पर- दांण मूकाव्युं हतुं ते भानुचन्द्र गुरुना शिष्य देवचन्द्रे आ रचना करी छे.
आ प्रतमां छेल्ली बे गाथामां भानुचंद वाचक० सुधी प्रतिना अक्षर एक सरखा छे, पछीनी लीटी 'जनचंद, तास सिस कहें देवचंद०.... अने छेल्ली गाथा जुदा अक्षरना मरोडथी लखायेली छे.
आ प्रतिनी वाचना लख्या पछी पू. मुनिश्री सुजसचन्द्रविजयजी म. पासेथी एज कर्तानी नवतत्त्व चोपाईनी बीजी बे प्रतिनी झेरोक्ष मळी, जेने कख संज्ञा आपी छे अने तेना जरूरी पाठभेद नोंधी आ साथे आप्या छे.
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• क प्रति – पत्र-१०, सं. १७६६मा फागण वद-६ना गुरुवारे, सौराष्ट्र देशना पोरबंदिर (पोरबंदर) नगरमां, ऋषि ओधवजीना शिष्य ऋषि हीरजीने पठनार्थे, ऋषि प्रेमजीए लखेली छे । आ प्रतिमां अन्ते अलग अक्षरे 'ऋ० प्रेमजी ओधवणीइं पुस्तक भण्डारे कर्यो' एम लखेला छे । • ख प्रति - पत्र-७, सं. १८१६ श्रावणवद-१ना गुरुवारे, राधनपुरमां लखायेली छे । अने एमां प्रान्ते अलग अक्षरे 'जीर्णगढ संवत १८३० फागण सुदि-११ उतरीया गीरनार । ॐ श्री पूज' एम लखेल छे. • क मां नवतत्त्व चोपइ लखेल छे. • ख मां बाजुमां (हांसियामां) 'नवतत्त्व सज्झाय' एम लखेल छे । • क अने ख प्रतिनी भाषा प्रयोगनी भिन्नताक संज्ञ क प्रतिमां – अन्त्य ओ अने उ ना स्थाने अउ प्रयोग वधु छे. दा.त. करो ना स्थाने करउ, तणुं ना स्थाने तण्णउं. अन्त्य ई ना स्थाने ईय (पाछल य कार) वाळा प्रयोग दा.त. विवरी ना स्थाने विवरीय, अधूरीना स्थाने अधूरीय, हकार युक्त प्रयोग दा.त. समकालिं ना स्थाने समकाल्हइं, इम ना स्थाने इम्मि, जिम ना स्थाने ज्यिम्मि छे । ख संज्ञक प्रतिमां – एकारवाळा प्रयोग बधे छे दा.त. कहई ना स्थाने कहे छे. आवा प्रयोगो पाठभेदमां नोंध्या नथी. • प्रस्तुत कृतिमां कुल २०४ गाथा छ । जेमां जीवतत्त्व - गाथा-१६, अजीवतत्त्व - गाथा-२०, पुण्यतत्त्व - गाथा१७, पापतत्त्व - गाथा-३८, आश्रवतत्त्व - गाथा-२१, संवरतत्त्व - गाथा३५, निर्जरातत्त्व - गाथा-१०, बन्ध तत्त्व - गाथा-१२, मोक्षतत्त्व- गाथा-३५, आ नव तत्त्वना जेटला भेद छे तेने विस्तारथी अर्थ बताववापूर्वक निरूप्या
• संवर तत्त्वनी गाथा २४ पछीनी गाथाओ, निर्जरातत्त्वनी बधी गाथा अने बन्ध तत्त्वनी चोथी गाथा सुधीनी प्रायः २५ गाथा क अने ख संज्ञक प्रतिमां आनाथी भिन्न छे, जेथी ख प्रतिनी ए गाथाओ टिप्पणमां नोंधी छे अने ए
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गाथा सन्दर्भित क. प्रतिना पाठभेद तेनी पाछळ ज नोंध्या छ ।
जैन पारिभाषिक शब्दोना अर्थ अहीं नोंध्या नथी. अघरा शब्दोना ज नोंध्या छे ।
नवतत्त्व चोपाइ १॥६॥
सयल जिणेसर प्रणमी पाय सारदवांणी करो पसाय नवयतत्त्व जिनसासण सार सुणयो कहुं संखेपि विचार ॥१॥ तत्त्व तत्त्व मुखि सहु को कहइं तत्वारथ विरलो को लहइं जाण्या विण नवतत्व विचार किम पालई जिनधर्माचार ॥२॥ जिवादिक नवतत्व विचार सद्दहतां समकित निरधार आगम अरथ अछइं अति घणो बादर बोल कहउं ते सुणो ॥३॥ जीव अजीव पुण्य पाप स्वरुप आश्रव संवर निर्जररूप बंध मोक्ष ए नवनां भेद विवरी कहुं सुणो ते वेद ॥४॥ जीवतत्त्व पहलुं जिन कहें जीवतणा दस प्राण सद्दहई पंचेंद्रीबल मनवयकाय सासोस्वास अनइं परमाय ॥५॥ एकेंद्री च्यारप्राण विख्यात छ बेंद्री तेंद्री सात आठ चउरिंद्री नव असन्नीया पंचेद्री दस प्रांण सन्नीया ॥६॥ जीव होइं ते प्रांणज धरइं प्राणवियोगि ते पणि मरइ । जीव तणउं लक्खण चेतना चउदभेद कहीइं जीवना ॥७॥ प्रथवी-पाणी-अगनि-वन-वाय ए पांचई एकेंद्रीकाय । मुख नासिका नयन कान नहीं एकेंद्रीने काया कही ॥८॥ एहना भेद संखेपी कह्या सूक्ष्म मनइं बादर बें थया सूक्षम ते जे दीसइं नहीं बादर ते जे दीसई सही ॥९॥ बेंद्री काया मुख अधिकता तेंद्री काय मुख नाशी छता चउरिंद्री काया मुख घ्राण नयणतणुं चउथउं अहिनाण ॥१०॥ विगलेंद्रीना भेद त्रिण थया अधिक कांन पंचेंद्री कह्या असन्नि सन्नि एहना भेद दोय समूर्छिम गर्भज होइं सोय ॥११॥
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भेद सात ए जीवह जाणि पज्जत्तापज्जत्त वखाणि । जे पर्यापति पूरी करइं ते पज्जत्तपणुं अनुसरई ॥१२॥ ए पर्यापति अधूरी जेह अपर्यापता कहीइं तेह । षट् पर्यापति खंधि कही आहार सरीरमें इंद्री सही ॥१३॥ सास वचन छटुं मन पछई एकेंद्रीनई च्यारज अछई । विगल असन्नी पांच प्रधान गर्भज पंचिंद्री षट मान ॥१४॥ इणिपरि दोय भेद सातना करतां चौद भेद जीवना कडं लवलेशह तेहy हीर जीवतत्त्व छई गुहिर गंभीर ॥१५॥
वस्तु सूक्षम बादर सूक्षम बादर एकेंद्री दो भेद बिति चउरिंद्री त्रिणि पुण पंचेंद्रीना दोय लेवा सन्नि असन्नी मिलि सग ते पज्जत्तापज्जत्त करेवा चऊद भेद ए जीवना सद्दहतां आनंद
वाचक श्रीभानुचंदगुरु सीस कहें देवचंद ॥१६॥ बीजुं अजीवतत्त्व हवइं सुणो चउद भेद तेहना पणि गणो अजीव ते जिहां नो हइं जीव तेहनो अरथ अछइं अतीव ॥१॥ धर्मअधर्म आकाशास्तिकाय त्रिणइं त्रिहुं भेदे नव थाय खंध देश प्रदेसई करी दशमो काल भेद मनि धरी ॥२॥ च्यार भेद पुदगल बंधाणु खंध-देश-प्रदेश-परमाणु इणी परि चउद भेद मनि धरी अवर एहनुं निसुणो चरी ॥३॥ अस्ति कहतां 'जीवप्रदेश कहीइं काय समूह विसेस । धर्मास्तिकाय पूरयो चउद राज तेतलो कह्यो खंध जिनराज ॥४॥ खंध थिको उणो ते देश देशथी ऊणो तेह प्रदेश अधर्म अनइं आकाशास्तिकाय त्रिणि भेद एहना इम थाय ॥५॥ दशमो काल तणो जे भेद खंधादिक तस नो हई च्छेद । कालमांन समयादिक बहु ते कहितां सुणयो हवंई सहु ॥६॥
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"ऊपरा ऊपरि पोयण पान कुंलां बत्रीसइं तसंमान समकालिं कोइक बलवंत सूई साथिं वींधई करि तंत ॥७॥ एकथी१० बीजइ सूई जाय विचिं असंख्य समय तिहां थाय । जीर्ण वस्त्र वलि फाडई कोई त्रागिं त्राग समय विधि सोय ॥८॥ समय असंख्याते एक आवली बि सइं छप्पन्न तेहज सांकली क्षुल्लक भव एक एह प्रकासि साढा सतर भव स्वासोस्वासि ॥९॥ महूरतनी आवली एक कोडि लाख सतसठि सहस सत्योत्यरि जोडि दो सइं सोल उपरि ते वली मुहुरत बि घडी ए आवली ॥१०॥ बीजु बि घडी मान जगीस पांसठि सहस १२साधिक छत्रीस सूक्ष्मनिगोदि जीव भव जाय बीजी पर महुरत इम थाय ॥११॥ महूरतमान त्रीजुं हवइं सूणो सहस त्रिणिनई सातसई १३गणो सासोस्वास त्रिहुतरि बलि कह्या महुरतभेद गुरुवचनें लह्यां ॥१२॥ एहवा त्रीस महूरत १४जाय रातिदिवस एक एतलें थाय १५तिणिं पनरे पखि दो पख मास वरसतणा पणि बारइं मास ॥१३।। असंख्य वरस एक पल्यना जोडि सागर पल्य दस कोडाकोडि इम उच्छर्पिणी नई अवसर्पिणी दस दस कोडाकोडि सागर तणी ॥१४॥ कालचक्र एतलई नीप, कालमान ए अढीद्वीपर्नु ए पुदगलपरावर्त्ति जाय चउभेदे पुदलग(गल) कहिवराय ॥१५॥ परमाणं खंधादिक च्यारि अनंत परमाणू खंध विचारि तेहथी थोडो कहीइं देश देशथी ऊणो तेह प्रदेश ॥१६॥ परमाणूनो भाग न होय केवलज्ञानी जाणे सोय विविध वर्ण गंध रस फास पुदगल भेद अनंत निवास ॥१७॥ धर्माधर्म पुदगल आकाश काल सहित पंच अजीव प्रकाश जेह चलावें तेहज धर्म थिर राखइ ते कह्यो अधर्म ॥१८॥ अवर पदारथ द्यइं अवकाश ईणइं लख्यण बोल्यो आकाश लोक धर्माधर्म अढीद्वीप काल पुदगल सघलई गगन विशाल ॥१९॥१६
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वस्तु अजीवभेदह अजीवभेदह धर्माधर्म आकाश त्रिणि त्रिणि भेदज एहनां खंध देश प्रदेश कालभेद दसमो कह्यो पुदलग (गल) च्यार विशेश चउद भेद ए अजीवना सद्दहतां आनंद वाचक श्री भानुचंदगुरु सीस कहें देवचंद ॥२०॥१७
पुण्य प्रकृति त्रीजी हवई कहुं भेद बेंइतालीस तेहना लहुं सुख विलसइं शातावेदनी पहली प्रकृति कही पुण्यनी ॥१॥ पुण्यप्रकृति गुण बीजो एह उंचु गोत्र लहइं नर जेह मानवभव मुंकी मानवी त्रीजई थाइं वली मानवी ॥२॥ चोथइं नरानुपूर्वी होय अवरगति बांधि अंति १८ नर सोय आनुपूर्वी तेहज तुं जाणि अनेथि जातां आणि ताणि ॥३॥ पांचमइं नरथी सुरगति लही देवानुपूर्वी छट्ठि कही जाति पंचेंद्री लहई सातमई पुण्यतत्व निसुणो आठम ||४|| ऊदारिक वैक्रीय आहार तैजसकार्मण पंच प्रकार पहलां त्रिण देह अंगोपांग हूया धुरिथी पनरह भंग ॥५॥ पहलु व्रजऋषभनाराच संघयण भेद ए सोलमो साच पहलुं समचउरंस संठाण सतरसमो ए भेद प्रमाण ||६|| अढारमइं वर्ण वारु रूप उगणीसमई देह गंध अनूप वीसमइं रस रूडी वली जेह एकवीसमई सुकुमाल स्वदेह ||७|| अतिभारे हलूओ नवि होय अगुरुलघुकाय बावीसमई जोय दूर्द्धषरूप देखी सहू नमई पराघात कर्म त्रेवीसमई ॥८॥ सुरभि स्वास होइं चोवीसमई आतप सूरय परि पंचवीसमई ससि सम सोहईं सभा मझारि उद्योतकर्म छव्वीसमई धारि ॥९॥ गज जिम शुभगति सतावीसमई अंगोपांग शुभ अठावीसमई त्रसदसादि कर्म हवइं सुणो जाणें भेद छाया तावड तो ॥१०॥ भयथी त्रासइं ते तत्र ( त्रस ) कहिआ ओगणत्रीसमई १९विगलिंदिआ जस दीसइं परगट देह मर्म त्रीसमई बांध्युं बाद कर्म ॥११॥
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सुरपरि पूरी करइं पजत्त एकत्रीसमानी एहज २°वत्त बत्रीसमई काया जीव एक वनसपती ते नाम प्रत्येक ॥१२॥ जे दृढ दांत दाढांदिक हाड ते थिरकर्म तेत्रीसमुं जाड नाभि उपरि सुभ काया२१ अंग चोत्रीसमई शुभ नामनो रंग ॥१३॥ सकल लोक मोहई २२एकलो शुभगकर्म पांत्रीसमई भलो सुस्वर नामकर्म छत्रीसमई मीठी वांणि सुरनर मन गमई ॥१४॥ बोल्युं वचन मानइं सहु कोय आदेअकर्म सात्रीसमुं सोय पूठि जसकीरति बोलाय अडत्रीसमइं जस नांम पसाय ॥१५॥ पूरुं सुर-नर-तिरि आउखुं ए त्रिहुं स्युं एकतालीस लखें। अदभूत बेंइतालींसमुं पूण्य तीर्थंकर पद आपइं धन्य ॥१६।। इणि परि पुण्य प्रकृति परमाण बइतालीस कही जिनभाण श्रीभानुचंदवाचक गुरुतणो सीस देवचंद कई भवि सुणो ॥१७॥२३
चोथं पापतत्व हवई सुणो ब्यासी भेद तेहना पणि २४गणो पुण्यइं ज्ञानवंत नर थाय ते पांचइं पणि पापइं जाय ॥१॥ ज्ञानांतराय ते कहीइं सही मति आवरण मति चोखी नहीं अक्षर मात्र मुखई नवि चढइं श्रुतनाणावरणइं नवि पढइं ॥२॥ अवधिनाण वार्यु आवतुं अवधिज्ञानावरण ते छतुं चोथु मणपज्जव न उपजइं मणनाणावरण ते भजइं ॥३॥ सर्व जीवनुं लहइं स्वरूप लोकालोक प्रकाशक रूप भवकोटी भाजई आमलो ते केवल कहीइं निर्मलो ॥४॥ एहवं नावइं पंचमनाण ते केवलावरण- प्राण छतुं वित्त पात्रे२५ नवि दीइं ते दानांतर फल लीइं ॥५॥ लाभ वांछतां साहमुं जाय ते लाभांतराय पसाय घरि खावा-पीवा छई घणुं भोगांतराय ते अलखामणुं ॥६॥ कर्म योगिं मल्यां दंपती नीरस कंइ नवि २६बाझइं रती सुखनी वात रही वेगली अहनिसि करतां दीसई कली ॥७॥ ए तो अंतरायनो योग पाम्या २७चूकई जे उपभोग यौवनवय नीरोगी काय पणि निर्बल ते वीर्यांतराय ॥८॥
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पाप प्रकृति दश ए अंतराय नव पणि बीजा कर्मनी थाय चक्षुदर्शनावरण ते जोय नेत्ररोग पडलादिक होय ॥९॥ अचक्षुदर्शनावरणनो भेद निर्बल बीजां इंद्री वेद अवधिदर्शनावरण ते कहइं अवधिदर्शन जेथी नवि लहइं ॥१०॥ चोथु केवलदर्शन नहीं केवलदर्शनावरण ते २४सही निद्रा ते जे जागई सुखि निद्रा निद्रा जागइ दुखि ॥११॥ प्रचला उभां बइंठां उंघ प्रचलाप्रचला हीडतां उंघ थीणद्धी निद्रा पांचमी पाप प्रकृति ए ओगणीसमी ॥१२॥ एहना गुण श्रीजिनमुखि २९भणइं निद्रावशि नर हस्ती हणइं वासुदेवसुं अर्द्धबल थाय पापइं सातमी नरगइं जाय ॥१३॥ वीसमई नीचकुलिं अवतरइं नीचगोत्रउदय इम करइं एकवीसमइं दुर्गति दुखभोग तेह अशाता वेदिनी योग ॥१४॥ बावीसमई मिथ्यात्व मनि रमई साचा देवगुरुधर्म नवि गमई थावरदशकतणी हवइं वात कहतां सुणयो ते अवदात ॥१५॥ थावर ते थिर थानकि काय त्रेवीसमई एकेंद्री थाय हाली चाली न सकई कही थावरनामकर्म ए सही ॥१६।। सूक्ष्म कर्म हवइं चोवीसमइं सूक्षमनिगोदमांहिं जीव भमइं तेहनां सरीर न देखइं कोय अपर्यापतो पंचवीसमइं होय ॥१७|| गाजर मूलादिक जे काय चोथो थावर ते कहवराय अनंत जीवनइं एक ज देह छवीसमो साधारण तेह ॥१८॥ सतावीसमई जीव ढीला अंग अठावीसमई पुरुषारथभंग दोभागी ३०दीठी नवि गमइं दोभागकर्म ते ओगणत्रीसमइं ॥१९॥ घोघरस्वर दुःस्वर त्रीसमई वचन अनादेय एकत्रीसमइं ३१रूडु करतां अपयस होय बत्रीसमइं दस थावर होय३२ ॥२०॥ नरकगतिनइं नरग आउखुं नरगानुपूर्वी नरगत्रिक लखुं एतलई पातक पांत्रीस थाय हवइ निसुणो पंचवीस कसाय ॥२१॥ क्रोध-मान-माया-लोभ अतोल च्यार चोकुं ते थाइं सोल अनंतानुबंधनइं अपच्चखाण प्रत्याख्यान संजलणो जाण ॥२२॥
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क्रोध-मान-माया-लोभ अनंत जावजीव लगइं नवी जंत समकित हणी नरगगति लहइं भव अनंता भमी दुख सहइं ॥२३।। एह अप्रत्याख्यानीया च्यार संवच्छर लगइं रहई निरधार देशविरति नवि पामई सही गति तिर्यंचतणी ते कही ॥२४॥ पच्चखाणीया चोमासी च्यार चारित्र विना मानवगति सार संज्वलना पखवाडो रहइं मुगति विना सुरनी गति लहइं ॥२५॥ च्यार च्यार करतां सोल ए कह्या पंचवीसमाहिं नोकसाय नव लह्या हास्य कर्म ते हासुं करइ रतिकर्मइं रूडूं दीठई ठरई ॥२६।। अरतिकर्मइं रति न लहइं कही शोककर्मइं शोकिओ रहइं सही भयकर्मइं बीकण जीव थाय नबला आगलि नाठो जाय ॥२७|| कर्म दुगंछा ते कहवाय अणगमतुं दीठई दुख थाय मुखि थुकई नई मरडइ नाक पुण्यतणो इम टालइ वाक ॥२८॥ पुरुषवेद तृणदाह समान क्षण एक प्रजली थाइ मांन कोऊ दाह सरिखो स्त्रीवेद स्त्रीनइं अधिको पुरुषउ भेद ॥२९॥ नपुंसकवेद नगरनो दाह अहनिसि प्रजलई अतिहिं अगाह पणतीस पंचवीस साठि ए थई पापइं दुखिओ दुरगति जई ॥३०॥ तिरियदुगं जीव जाई तीर्यचि तिरिआनुपूर्वी आणइं खंचि इगबितिचउरिंद्रीनी जाति कुच्छित पापइं ए षट भाति ॥३१॥ चालई चालि खर करहातणी विरूई गति ते कुखगति भणी अडसठिमुं ते उपघात कर्म कंठ दशन मुख पीडा मर्म ॥३२॥ वर्ण-गंध-रस-चोथो स्पर्श ए विरूया ते पाप विमर्श काली वर्ण देह विरूओ गंध कडूओ रस खर स्पर्श संबंध ॥३३॥ वर्ण गंध ए बोहोत्त्यरि पातक भेद कह्या, संघयण संस्थानना धुरि बें रह्या पहलुं संघयण नई पहलुं संठाण ए बें पुण्य प्रकृति अहिनाण ॥३४॥ पहइलुं वज्रऋषभनाराच बीजूं संघयण ऋषभनाराच नाराच त्रीजुं अर्द्धनाराच चोथु पांचमुं कीलिका साच ॥३५॥ छटुं छेवढं ते कर्तुं समचउरंस संठाण धुरि लद्यु बीजुं न्यग्रोधमंडल जिस्युं सादि त्रीजुं चोथु वामन वस्युं ॥३६।।
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अनुसन्धान-५७
पांचमुं कुब्ज षट् हुंड संठाण आगल्या दश ते पाप बंधाण पंच पंच संघयण संठाण ब्यासी भेदतणो ए ३५ मा ||३७|| प्रतिबोधी अकबर सुलताण मुंकाव्युं श्रीशेत्रुंज दाण भानुचंद गुरु सीस सुजाण देवचंद कहई तत्त्व वखाण ॥३८॥३६
पांचमुं आश्रव तत्त्व विचारि भेद बेतालीस तेहना धारि काया जीभ आंखि नाशा कान मोकलां पांचई आश्रव मान ॥१॥ क्रोध मान माया लोभ कषाय अयुक्ति प्रयुंज्या आश्रव थाय जीव हणई नई जुटुं लवई परधन लेवा निज मति ठवई ॥२॥ कुसीलं परिग्रह अव्रत पंच चऊद भेद आश्रव ए संच त्रणि योग जे मन वच काय पाप प्रयुंज्या आश्रव थाय || ३ || एतलई सतर भेद मनि जाणि हवई पंचवीस क्रिया वखाणि पहली क्रिया कही कायकी जयणा विण होई काया थकी ॥४॥ शस्त्रादिकथी पातिक जेह अधिकरणकी बीजी तेह जीवाजीव ऊपरि जे द्वेष त्रीजी प्रद्वेषकी ए देख ॥५॥ अवर तपावई आपरं तपईं परितापनकी चोथी थपई जीवनई जे चूकवरं प्राण थकी ते कहीई प्राणातिपाती ॥६॥ मूलनी पंच क्रिया ए कही एहथी वीस अवर पणि लही करसण प्रमुख आरंभ आचरई ते आरंभकी क्रिया करई ॥७॥ धण कण ढोर दास मेलवरं परिग्रहकी किरीया केलवई मायाप्रत्ययकी आठमी कपटइं धर्म करई आनमी ॥८॥ मिथ्या श्रुत सद्दहणा करी मिच्छादंसणवत्ती खरी अपच्छखाणी अविरति कही कुतिक जोणा दृष्टिकी लही ॥९॥ पुष्टिकी राग थिकी सुकुमाल फरसई जीव पशू स्त्री बाल अथवा राग द्वेष मन धरी पुठिं पृष्टिकी किरीआ करी ॥१०॥ पाडुची किरीया तेरमी ३७ अपूर्व वस्तु परनी नवि गमी निज धण घरनुं वर्णन सुणी हर्षे ते सामंतोवणी ॥११॥
अथवा तक्रघृतादि मझारि जीव पडई तें पातक धार परवश करइं अरिंट ढिंकूया यंत्रादिक नेसत्थीकि (क्रि)या ॥१२॥
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ससलादिक आहेडो करई साहत्थी हाथि हत्थीआर धरई जीवाजीवथी अणावइं जेह आणावणी सतरमी तेह ||१३|| सूत्रधार करई काष्टना कौंच माहिं खीलीना ते संच रायना घरथी अणावइं सालि अजीव थकी इम पड्या जंजालि ॥१४॥ अढारमी हवइं वीआरणी फल ईटालादिक फोडणी
अथवा दलाल दोभासुं करई परवंची पाप पोत भई ॥१५॥ सूनई मन ल्यई मुकइं कांइं अनाभोगकी किरीया थाई
इह परलोक विरुद्ध जे नाम ते अणवकंखपच्चईआ नाम ॥१६॥ मन वच काया सावद्य योग अन्ना पओग क्रियानो योग अथवा कुंभारादिक थकी वस्तु घटादि करावइं की ॥१७॥ कुटंब मली बांधइ अष्टकर्म सामुदानकी ३९ किरिया मर्म माया लोभ कही प्रेमकी क्रोध मान ते प्रद्वेषकी ॥१८॥ ईरीयावही किरिया साधुनई अथवा केवलज्ञानी कनइं हींडतां बोलतां लागइं क्रिया तिण लघुकर्मतणी विक्रिया ॥ १९॥ तेहज कर्म समय दो रहइं त्रीजइं विसराल जिनवर कह ए पंचवीस क्रिया ते लही कर्म आवई तिण आश्रव कही ॥२०॥ ए आश्रव बइतालीस भेद साधुनई ए पंचतत्व विच्छेद भानुचंदवाचक शिष्य सार ४ ९ देवचंद कहई तत्वविचार ॥२१॥४२
संवर तत्व छटुं सुखकार जेणि कीधइं लहीइं भवपार भेद सतावन तेह प्रधान कहुं सुणो छांडी अभिमान ॥१॥ पंच सुमति त्रिणि गुपतिसु कर्म बावीस परीसह दस यतिधर्म बार भावना चारित्र पंच संवर द्वार सतावन संच ॥२॥ सूर्यकिरण जेणे पंथई४३ भर्या पल्हलां लोके जिहां संचऱ्यां युगदृष्टिं जयणा तिहां करई पहिली ईर्यासुमति ४४ गति धरई ॥३॥ भाषासुमति सत्य मीठी वाणि पापरहित करई निरवाणि
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एषणा त्रीजी ल्यइं अणगार दोष बइतालीस शुद्ध आहार ||४|| लेतां मुकतां पूंजइं जोय आयाणभंडनिखेव्वणा सोय थुंक सलेखम मल मांतरूं परठवतां जीव जतन ज ४५ खरूं ॥५॥
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अनुसन्धान-५७
मन वच काय गुपति त्रिणि कही आठई प्रवचनमाता सही । बावीस परीसह इहां ऊपजइ ते खमतां संवर नीपजइं ॥६॥ भूख खमई सदोष न लीइं आहार तरस्यो सच्चित ज[ल] करइं परिहार शीत सहई नवि तापइं अगनि उहनालिं अंघोलि न पवन ॥७॥ डांस मसा करडई ते खमइ च्छठई मइलां वस्त्र मुनि गमई कुठाम अरति परीसह सहई स्त्रीरूप देखी नवि गहगहइं ॥८॥ चरीया परीसह न रहइं एक गामि नवकल्पी ४६विचरइं ठामि ठामि निसीहा परीसह काउसगि जिहां सादिक भय न करइ तिहां ॥९॥ सिय्या परीसह अग्यारमो पोसाल पाटि पाडूई खमो अक्रोश परीसह लोक अजाण विरूउं बोलई खमई सुजाण ॥१०॥ अज्ञानी को हणइं प्रहार खमतां वध परीसह धारि मोटां कुल मई हरां छइं आज याचना मागतां नाणइं लाज ॥११॥ हुं न लहुं शुद्ध बीजो लहइं अलाभ परीसह खेद नवि ४७वहइं सोलमो रोग परीसो (स)ह खमइं सावद्य ऊषध आरति वमइं ॥१२॥ कंटक तृणां परीसह कहई उन्हालई मल दीलई सहइं सत्कार परीसह सबल अगाह स्तुति करतां न करइं उत्साह ॥१३॥ प्रज्ञा परिसह वीसमो जेह ज्ञान भण्यो नवि फूलई तेह अज्ञान परीसह कर्मइं लह्यो नावडई ज्ञानहृदय नवि दह्यो ॥१४॥ देवगुरुधर्म उपरि निसंदेह समकित परिसह कहीइं तेह ए बावीस परीषह खमइं साधू सदा संवरमां रमई ॥१५॥ हवइं दसविध यतिधर्म पालवो खंति खिमा करी क्रोध टालवो आर्जव सरलपणइं ते जाणि मार्दव मानरहित हितवाणि ॥१६॥ मुत्ति मुंक्या सुखना लोभ बारभेद तप करई अलोभ८ संयम यतिधर्म सतरइं भेद सत्यवचन बोलइं ते वेद ॥१७॥ शौच अदत्त न ल्यइं एक रती अकिंचन द्रव्य न राखई यती ब्रह्मचर्य पालई नव वाडि ए दशकर्म (धर्म) हणइं कर्म धाडि ॥१८॥ बार भावना संवर सही पहिली अनीत्यभावना कही धन यौवन ठकुराईतणी माया म करो अस्थिर भणी ॥१९॥
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बीजी अशरण भावना लही मरण शरण को केहनइं ४९नहीं चउद राज ५°रडवड्यो संसार त्रीजी जीव न पाम्यो पार ॥२०॥ चोथी एकत्व भावना कहई मली मेलावो सहु को रहइं एकलो मात ऊदरि अवतरई एकलो इंहां थको पणि मरइ ॥२१॥ जीव अन्यनइं काया अन्य पांचमी अन्यत्व भावना धन्य कहि मेल्युं कोइ खाइं डोकरना घेवर परि थाय ॥२२॥ छट्ठी अशुचि भावना एह अपवित्र सात धातमइं देह सातमी आश्रव भावना जीव करइ मिथ्यात अविरति अतीव ॥२३॥ आठमी संवर भावना कहइं५१ समकित विरति शुभ ध्यानइ रहइं पूर्वकर्म संवरें नवा न बंधाइं इम चिंतवता संवर थाइं ॥२४॥ नवमी निर्जर भावना तपतेग नारकी प्रमुख दुख साहइं अनेक छट्ठ अट्ठम आतपन धरई तो घणां कर्मनो क्षय इम करई ॥२५॥ दशमी धर्मभावना कही संसार तारण श्री जिनधर्म सही लोक राज छे चउद प्रमाण सात हेठां सात उपरि जाणि ॥२६॥ सिद्धसिलां तिहां सिद्ध संठवइं इत्यादि लोकस्वरूप चिंतविं लोकभावना ए इग्यांरमी हवइं बोधिदुर्लभभावना बारमी ॥२७॥ ए श्रीसर्वज्ञ धर्मनुं लहिअQ वली समकित दोहिलं पामवं हवई चारित्र वखाणुं पंच प्रथम सामाय चारित्रं संच ॥२८॥ धर्मव्यापार टाली अन्य वृथा सावध व्यापार नियम ल्ये यथा छेदोपस्थाव बीजुं चारित्र भरत अनें वली ऐरवत क्षेत्र ॥२९॥ प्रथम चरम तीर्थंकर बार दीक्षा दीधा पूठिं धारिं । जो षट जीव ओलखतओ होइ तो माहाव्रत पांच उचरावई सोय ॥३०॥ परिहारविशुद्धि त्रीजुं ते कहुं तेहना भेद गुरुवचनई लहुं नव जण गच्छथी जूदा रही उपसर्गादि अहिआस्यइं सही ॥३१॥ अढार मास लगई जिस्यो तप कह्यो तिस्यो तप करें मन उमह्यो पछई वली आवई गच्छमां तेह अथवा तेह तप बीजी वार करेह ॥३२॥ सूक्ष्मसंपराय चोथु सुखकार परिणाम शुद्ध अति चोखा सार क्रोध-मान-मायोदय क्षय दोइ अतिसूक्ष्म मात्र लोचन(लोभ)नो जोइं ॥३३॥
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अनुसन्धान-५७
यथाख्यात चारित्र ते पांचमु अछे सर्व कषाय क्षय कीधा पछइं अथवा उपसमाव्यां हुई आवतां ए पंच चारित्र श्रीजिन भाखता ॥३४॥ भेद सत्तावन जे नर लहें संवर द्वारमा ते नर रहिं भानुचंदवाचक जयवंत सीस देवचंद कहइं ते संत ॥३५॥
निर्जरा तत्त्व सत्तम गुणखाणि बारह भेदें तप वखाणि कर्मक्षयनो कारणहार षड बाह्य षट अभितर धारि ॥१॥ प्रथम बाह्य ते कहुं हित धरी सुंणयो भवियां मन थिर करी इग बि ति दिन यावत षट मास अनसन करें जावजीव उल्लास ॥२॥ बीजो उणोदरी जांणी करो कवल बिडं त्रिहुं ते परिहरो वृत्तिसंक्षेप त्रीजो तप वली इत्यादि अभिग्रह मुंनि ल्ये रुली ॥३॥ सचित द्रव्यादि श्रावकने कहुं चोथा तपनो भेद हवइं लहुं रस परित्याग करें ते भलो कायकिलेस लोच पंचम गुणनिलो ॥४॥ इंद्रीय कषायनइं मन वच काय संवरतां प्राणी सुख थाय हवइं अभितर षट भेद प्रमाण प्रायछित्त आलोइं गुरु आगलि जाण ॥५॥ लाजरहित गुरु आगलि आवी गुरुदत्त तप करें मनि भावि बीजो विनय करें मन-वच-काय आसन प्रदानादिक उभो थाय ॥६॥ आचार्य उपाध्याय तपीया ग्लान बाल-वृद्ध-शिक्षादिक हित मान अन्न पान उसधादिक आणि आपें विश्रामण करें त्रीजें जाण ॥७॥ वाचना पुच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा चोथई एक मना आर्त रौद्रध्यान परिहरें धर्म शुकल पांचमि आदरई ॥८॥ छठइ काउसगा करई मनि भावि क्रोधादि विषयादि समावि बार भेद जे ए तप करें करम खपावीं शिवगति वरिं ॥९॥
भानुचंद वाचक गुरु सीस देवचंद नमइं निशिदीस अट्ठम तत्त्वतणो सुविचार चिहुं भेदिई सुणयो भवि सार ॥१॥ प्रकृतिबंध अनइं स्थिति-रसबंध चोथो प्रदेशबंध दलसंघ जिम दुध अनइं पाणि एकठां माटी अनइं धातु सामटां ॥२॥
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तिम एकळं कर्म हुई जीवसुं विवरीनइं तेहविं कहिसु जिम कोइक वैद्य थकी नीपनी गोली मधु वा गुलें करी संपनी ॥३॥ बांधतां च्यार वानां बंधाई द्रव्ययोगइं स्वभाव जूदा कहिंवाई स्थिति काल अनुभाग रस जेह प्रदेस दलपरिमाणइं तेह ॥४॥ एक गोली टालई खास खास एक हरई जलोदरनो वास। एकथी सन्निपात ते ५२जाय एक निवारइं पित्त नइं वाय ॥९॥ प्रकृति स्वभावई इम गुण करई बीजी स्थिति आयु इम धरइं दिन पख मास छ मास ते रहइं पछई विणसइं गुण नवि नहई ॥१०॥ त्रीजो रस गोलीनो जेह खारी खाटी मधुरी तेह प्रदेश चोथो तोल प्रमाण इम कहीइं गोली चउ माण ॥११॥ इण दृष्टांतई जीवनो धर्म पुद्गल लेई बांधई कर्म ज्ञान दर्शन चारित्र आदरई वारई दुख नइं सुख अनुसरई ॥१२॥ प्राणनइं प्रकृतिबंध ए कह्यो एगेई कर्म स्वभाव संग्रह्यो बीजुं स्थिति रहवा- आय नाण दंसणावरण वेदनी अंतराय ॥१३॥ त्रीस कोडाकोडिं सागर विशाल तेत्रीस सागर आयुनो काल वीस कोडाकोडि नाम गोत्रनुं आय सितरि कोडाकोडि मोहनी कहाय ॥१४॥ जघन्य वेदनी मुहूरत बार नाम गोत्र ते आठ५४ विचार स्थिति थोडी बीजां कर्म तणी अंतमुहत्तप्रमाण लघु भणी ॥१५॥ त्रीजुं अशुभकर्मरस लींब शुभकर्मरस साकरटींब कर्मतणां दल चोथु प्रदेश एक भारे हलूया लवलेश ॥१६॥ सोवन आठिल सम शुभ कर्म लोह५५ समान कहिइं अशुभकर्म बंध तत्त्व ए च्यार प्रकार देवचंद कवि कहें विचार ॥१७॥५६
नवमुं मोक्ष तत्त्व सुविचार सुक्ख अनंततणो भण्डार सकलकर्म तणो क्षयकरी जीव रहइं तिहां सुख अणुसरी ॥१॥ ५७सोगठी अग्यारि जिम अमर तिम [ति] हां प्रांणी पणि ते अमर गणधर तीर्थंकर पद इहां सर्वजीव अंतर नहीं तिहां ॥२॥ अर्द्धचंद्र सम तस आकार लाख पिस्तालिस योजन विस्तार तेहनो भेद न दीसई कोय पणि परूपणा नवविध होय ॥३॥
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५८
अनुसन्धान-५७
लोकाग्र भागईं ते रहईं नास्तिक होईं ते नवि सद्दहईं तेहनइं मोक्ष थापवा भणी पहिलो भेद कहै त्रिभूवन धणी ॥४॥ मोक्ष पदारथनो ए मतो एकपद नाम माटइ छई छतो
जे जे एक पद ते छई सही जिम जगि जीव देव घट दही ॥५॥ बै पद नाम पदारथ जेह केतला सत्य असत्य होइ तेह श्रीनंदन जिम हस्तीदंत राजपूत्रनई लक्ष्मीकंत ॥६॥
५९ जपाकुसुम अनई मृगशृंग ए बिहुं शब्दि छता शिर गंग बिहु शब्द नामईं अछता जेह ६० शशकशृंग वंध्यापुत्र तेह ||७|| तुरंगमसींग अनइं खरसींग पाडो ग्याभणो करहीसींग आकाशकुसुम संयोगी नाम एहनो कहीइं न दीसई ठाम ॥८॥ तिम एक पद नाम मोक्ष निसंदेह छई निश्चय मधुरो संदेह वली मार्गणाद्वारई करी मोक्ष परूपणा कऊं हित ६२ धरी ॥ ९ ॥ बीजो भेद मोक्षनो एह कुण कुण जीव लहइं पुण ह
मानव कोइक पामइं मुगति त्रिहुं गति नानई नही ते मुगति ॥१०॥ पंचेंद्रि कोईक सिद्धि जाय बित्ति चउरिंद्री नयें न कहाय त्रसकायथी शिवपुर होई पांच काय पुण न लहई शोय ॥११॥ भव्य जीव ते पामहं एह अभव्यजीव नवि पामई तेह
लहइं सन्निया मोक्ष ६३ दूयार असन्निया न लहइं निरधार ॥१२॥ पांचमहं चारित्र लहइं शिवसुक्ख पहिले चिहुं नवि पाम मुक्ख समकित भेद अछईं ते पंच पहिलां चिहुं नहि १४ नहि शिवसंच ॥१३॥ क्षायिक समकित जव जीव लहइं मोक्ष पामई ते जिनवर कहई अनाहारी मुगतिं जई मलई आहारी संसारई रलई ||१४|| केवलदर्शन शिवसुख सही चक्षु अचक्षु अवधि त्रिहु नहीं केवली मोक्ष लहइं सर्वदा बीजई चिहुं ज्ञानई नहीं कदा ॥१५॥ इणि दस थानकि पामई मुगति प्रथम द्वार ए जाणई सुमति बीजुं द्वार ते द्रव्य प्रमाण अभव्य जीवथी अनंत सिद्ध माण ||१६|| त्रीजुं क्षेत्र द्वार लोकाकाश अशंखमई भागि सिद्ध नीवास अथवा सर्वसिद्ध जिहां५ रहई लोक असंखमई भागि सिद्धि ६६ कहें ||१७||
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चोथु द्वार फरसना कहेश जे छई आकाशना सिद्ध प्रदेश मध्य जोयणभागि चोविसमइं सिद्ध रह्या छइं छेहलई गमई ॥१८॥ एह खेत्रथी अधिकी फरसना रुंधई चिहुं दिसि प्रदेश आकाशना तेजई रुंधई दीप आकाश सात प्रदेशी फरसना तास ॥१९॥ कालद्वार पांचमुं सिद्ध तणुं एक जीव आश्री आदि तस भणुं मोक्ष गया ते६७ जीव अनंत सर्वसिद्ध नहीं आदि न अंत ॥२०॥ छट्ठउ द्वार अंतर नवि सिद्ध सिद्ध चवी वली नो हइं सिद्ध सातमु भाग द्वार ते लहुं जहीइं पुछइं तइहीइं कहुं ॥२१॥ अनंतमो भाग ए निगोदनो मान मुगति पोहता सिद्धनो आठमुं भाव द्वार ते जोय केहइं भावई सिद्ध ज होय ॥२२॥ राग रोसनुं कर्मज नहीं उपसमिक बी ए रही त्रीजुं क्षायोपशमिक पा(भाव) चोथेइं क्षायक वरतइं भाव ॥२३॥ पांचमुं पारणामिक सही कर्म क्षप्यां तो शिवगति लही भव्याभव्य न होइ कदा जीव अजीव९ नहीं ए सदा ॥२४॥ क्षायिकनइं पारणामिक बेउ वर्त्तइ भाव सदा सिद्ध तेउ बीजा त्रणि न होइं भाव सर्वसिद्धनो एह स्वभाव ॥२५॥७० नवमुं अल्पबहुत्व सिद्ध द्वार तेहतणा हवइं कहुं विचार जन्म नपुंसक मोक्ष न जाय दीक्षा पणि तेहनइं नवि थाय ॥२६॥ कीधा जे छेदादिक करी मोक्ष लहइं ते दीक्षा वरी त्रीण वेदमांहिं नपुंसक जीव थोडा सिद्ध होइ सदीव ॥२७॥ तेथी स्त्रिवेद सिद्ध असंख तेथी पणि नर सिद्ध असंख। इम नर नारि नपुंसक सिद्ध थोडा तेह अनंता सिद्ध७१ ॥२८॥ ए नव द्वार मोक्षनां जाणि नवई तत्त्वना भेद वखाणि बसई छिहोत्यरि सर्व संखेव सद्दहतां समकित ततखेव ॥२९॥ मानइं जीवादिक नवतत्त्व समकितवंत कह्यो ते सत्व तिणि वारी दुगति एकंत भवसागरनो आण्यो अंत ॥३०॥ समकित अंतरमुहूरत मांन फरसिउं जेणइ आणी सांनि अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्तमान होइं संसारि अधिक नहीं ताण ॥३१॥
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६०
१.
४.
ए नवतत्त्वतणो विचार कहीइं कोइ न पामई पार संखेपि मति सारू कीध ग्रंथातर ए अरथ प्रसिद्ध ||३२|| सुविहित साधुतणो शृंगार श्रीविजयदेवसूरि गणधार तास पाटि प्रगट्यो सूरि सींह विजयसिंहसूरि राखि लीह ||३३|| गुरु श्री सकलचंद उवज्झाय सूरचंद पंडित कविराय भानुचंद वाचक जनेंचंद तास सिस कहें देवचंद ॥३४॥ ए चोपइ रचि करजोडि कविता कोइ म देजो खोडि
अधिकुं ओछं सोधि जोडि भणता गुणतां संपति कोडि ॥३५॥७३
१००८
नमः १०८ | अथ श्री नवतत्त्व चोपईच्छंद लिख्यंते । श्री सद्गुरुभ्यो नमः क । श्री गुरुभ्यो नमः
ख
क । ग्रंथि ख
-
२. बंधि
३.
होइ
ख ।
इतिश्री सिद्धियस्वरूपे जीवतत्त्वाधिकार संपूर्णः
ख ।
-
अजीव
५.
क ।
६. धम्म अधम्म आका०
७. दृष्टांत: क । ८. कल्लीयां क । कुल ९. तसु अनूँम्हांह्रह १०. एक व्यद्धयी बीजइंय ११. मिली ख
क ।
-
-
क। गणो
१२. साढाय क । साथि १३. गुण्णो १४. कह्यां दाय १५. दिवस
१६. वस्तु सिद्ध्य
१७.
सर्वगाथा
च ढाल
=
-
-
क ।
-
क ।
-
ख ।
-
ख ।
ख ।
क । जव थाय
क। एक वींधी बीजे ख ।
ख ।
-
३६ । अथ ढाल तृतीया
क । इति अजीव भेद
अनुसन्धान-५७
क। इति जीवतत्त्वसंपूर्णः
क । इतिश्री अजीवभेद संपूर्ण ख ।
-
-
। छंद चोपाई गाथा । अथ पूंण्यतत्त्वे
ख ।
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डिसेम्बर २०११
१८. अतिनर - क - ख । १९. बतीचउरिंदिया - ख । २०. चित्त - ख । २१. काया जीव एक अंग - ख । २२. मोहे पज्जत्त एकलो - ख । २३. सर्व गाथा - ५३ । ईति श्री पूंण्यतत्त्वाऽधिकार श्री नवतत्त्वप्रकरण चतुष्पद्यां
पुण्य तत्त्व संपूर्णः । श्री पुरबंदिरे ॥३॥ ॥ ० ।- क । २४. भणो - क । २५. पामे - ख । २६. सीझइं - ख । २७. रोकइंय - क । २८. कहीं - क । २९. वदई - क । ३०. निठुर - क । ३१. सारुय - क । ३२. जोय - ख । ३३. अणसुहातूं - क । ३४. 'वर्ण गंध' क-ख मां नथी । ३५. एह जांण - क । मंडाण - ख । ३६. सर्व्वगाथा छंद ९१ । इति श्रीपापतत्त्वाधिकार ४ । ॥०॥ - क । ३७. अवर - ख । ३८. ठांम - क । ३९. नो धर्म - ख । ४०. तिणइं - ख । ४१. पं. श्री देवचंद - क । ४२. ईत्याश्रवतत्त्व पंचमंमिहुंण्णे सर्व्वगाथा शंख्या आंकेण एकश्ण्य बार ११२ । ५।
अथ संवराऽधिक्हार षण्णहम्म ६ चोपईयच्छंदे ॥०॥ ऐं नमः १०८- । अथ
क इति आश्रवतत्व ५ ।। ४३. रथइंय - क । ४४. मनि - क - ख ।
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६२
अनुसन्धान-५७
४५. ज तत्व खरउं - क । ४६. विसिं - ख । ४७. लहे - ख । ४८. अक्ष्योभ - क । अखोभ ख । ४९. कही - ख । ५०. दडवडयउय - क । ५१. गाथा २४ना पहेला चरण पछी प्रायः २५ गाथा बन्ने प्रतिमा भिन्न छ जे भिन्न
गाथा - नीचे प्रमाणे छे. जे पाठ ख प्रतिमांथी नोंधेल छे क प्रतिना पाठभेद साथेनी टिप्पणमां जुओ ।
आठमी संवर भावना
विरति इंद्री दमतां पांचमी गति । ५१ःनिर्जरा नवमी मनि धरे कर्म अनंता खेरु करे ॥२४।। धर्मभावना दशमी कही जेथी वंछित पांमइ सही । लोकभावना चिंति पंडि जेहवो चउदराज ब्रह्मांडि ॥२५।। दुर्लभबोधिबीज बारमी शिवपुरगामीनिं मनि रमी । ए संवर बारे भावना चारित्र पांच सुंणो एक मना ॥२६।। तजे सर्व सावध व्यापार पहिलं समाईक आचार । छेदोपस्थान बीजुं ऊचरे जांणी छकाय महाव्रत धरे ॥२७॥ परिहारविसुद्ध त्रीजुं चारित्र मास अढार- तेह पवित्र । नव जण गछथी रहई आरामि तप संयम करी आवई ठामि ॥२८।। सुखम संपराय चोथु शुद्ध दशमें गुणठाणे लहि बुद्धि । क्रोध मांन माया मूलथी नहीं अंस मात्र लोभ रहे सही ॥२९।। यथाख्यातचारित्र पंचमुं मुलथी च्यार कषाय नीगर्नु । अति चोखो मननो परय्याय उपले चिहु गुंणठांणे थाय ॥३०॥ संप्रति धुरि बें चारित्र रह्यु आगला त्रिण विछदि गया । एतले संवर सतावन सार सद्दहतां लहीइं भवपार ॥३१।। प्रतिबोधी अकबर सुलतांण मुंकाव्युं श्री शेजय दांण । भानुचंद गुरु सीस सुजाण देवचंद कहे तत्त्व वखांण ॥३२॥
Eइति श्री संवरतत्त्व संपूरण ॥६॥
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३
हवें सातमुं तत्त्व निर्जरा बारे भेदे तप शिवसुखकरा । बाहिरि अभ्यंतर तप तप तप तपतां सघलां कर्म खपइ ॥१॥ बाह्य तपना षट भेद थाय पहिलो अणसण कहे जिनराय । उपवासादि छमासी करई तेथी कर्म कोडि निर्जरइ ॥२॥ बीजो ऊंणोदरी तप सार नरनें कवल बत्रीस आहार । स्त्रीनई कवल कह्या अठावीस नपुंसकनइं उत्कृष्ट पणवीस ॥३॥ त्रीजो वृतिसंक्षेप साधु धरई दत्त द्रव्यनी संख्या करें । चऊद नेम श्रावकने जेह संभारि संखेपि तेह ॥४॥ चोथो रसत्याग तप जांणि षटरस विगय संख्या मनि आंणि । लोचादिक कायक्लेस पांचमो संलीनता तप छडो(ठो) खमो ॥५॥ ते बीहुं भेद बाहिर अंगोपांग संवरइ' कषाय च्यार अंतरंग । षट्विध तप अभ्यांतर शुद्धि धुरि तप आलोअण ल्यई बुद्धि ॥६।। बीजौ विनय तप वडां गुणवंत जांणी वादइ पूजें संचा। अभ्यंतर तप त्रीजो भणो वेयावच्च दशविधि ते सुणो ॥७॥ आचार्य उवज्झाय ने ग्नाननइं तपसी ज्ञानीनइं Mबालनइं । धई आणी ओषध अन्नपांन वेयावचनु नो हइं यान ॥८॥ चोथो तप ते पंचविधि सज्झाय अभ्यंतर ए मुगति उपाय । भणे गणें अर्थनी पृछना धर्मकथा पांचमी चिंतना ॥९॥ पांचमो तप ते धर्म शुक्लध्यांन आर्त्तरौद्रनुं नही अभिधांन छठो काउसग तिप यथाशक्ति निर्दोष करतां पांमि मुक्ति ॥१०॥ इम तप बारेइ भेदे करे कर्म कठिन सघलां निर्जरइं । देवचंद कवि कहिए सार सातमु निर्जरा बार प्रकार ॥११॥
Nइति निर्जरातत्त्व संपूर्ण ॥७॥
आठमुं बंधन तत्त्व गंभीर सूक्षम छे पणि तेह- हीर । कहस्युं करवा परउपगार बंधतत्त्वना च्यार प्रकार ॥१॥ एणिपरि जीव मिल्यों कर्मबंध जिम एकठां फुल नि गंध । तिलनइं तेल जिम छई एकठां दुध पाणी जिम मल्यां सामठां ॥२॥ इणिपरि जीव मिश्रबंधे कर्म लोक दैव कहिं ते कर्म । कर्म भेट्यो सुखदुख सहे वईरभावि बे एकठां रहइ ॥३॥
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६४
कहीइंक थाय कर्म बलवंत कहीइंक जीव तस अंत । जीव कर्मनो एहवो ढाल एक एकनइ छलई ततकाल ॥४॥ कर्मबंधना च्यार प्रकार प्रकृति स्थिति रस प्रदेश अपार । प्रकृति कहीइं वस्तु स्वभाव स्थिति रहिवुं आयुखानो भाव ॥५॥ कडूओ मीठो रस अनुभाग प्रदेश ते दलसंचय लाग । मोदिकनें दृष्टांतइं बंध अथवा वैद्य गोटिका संबंध ॥६॥ कोईक वैद्य वाटइ ओषधी बंधई गुटिका नव नव विधी । तेह तणो ए चिहुं भेद पहिलुं प्रकृति कहुं ते छेद ||७|| कोईक गोली टाले ताव कोईक करे सबलाई भाव ।
एक श्लेषमानो हरे संता
॥८॥
ख ।
टिप्पण :
५१.A
नित्य निर्जरा
B सामायक व्रत उच्चार
C
संभार
क ।
संमीलितेन १४४ ॥ F कोडि सहीइं नि०
Gष्ट पुण पणवीस
बहू क ।
करवाय च्यार
क ।
-
D धार
क ।
E इति श्री सयंवर तत्त्वाधिकार षष्टम्मः संपूर्णः ६ ॥ एवं सर्व्व गाथा सह ए६० ॥ नमः १०८ ॥ क ॥
क ।
-
क ।
H गाथा च्छंदः मागध प्रां. शैलीं चेति ३
|
J
K संत
L
1
नीव करइतस
-
-
-
1
क ।
नमः १००८ ॥ - क
० कर्म्माकर्म्मः क ।
P
क ।
Q विभाव R एक गोली
क ।
क ।
क ।
-
गिलाण्णन्हइं
क ।
M वय बाल०
क ।
N इति सत्तमनिर्ज्जराऽधिकार चोपाई । सर्व्व गा० । १५५ ॥ ७ ॥ ६०॥ क्लीँ
क ।
अनुसन्धान-५७
-
क ।
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s एक गोली कोढनउय टालइंय व्याप ॥८॥ - क । ५२. ते सवि जाय - क । ५३. एग एगई य कर्म - क । एगई श्वकर्म - ख । ५४. आठ आठ - क । ५५. लोभ - क । ५६. इति अष्टमतत्वे बंधतत्त्वाऽधिकार संपूर्णः ८ । सर्व गाथा १७२ ।
अथ नवम मोक्ष्यतत्वाऽधिकार चऊप्पई च्छंदः ॥ ॥ श्री सारदाय नमः १०००५ ॥ - क ।
इति श्री बंधतत्त्व संपूर्णः ८ - ख । ५७. योगवी - क । ५८. नवभेदे य होय - क । नवभेद - ख । ५९. यथा कुसुम - क । ६०. शिस्याय शृंग - क । ६१. करही - क । ६२. करी - ख । ६३. दुवार - क । द्वार - ख । ६४. चिहुंना - ख । ६५. जिहां सुख लहइं - क । ६६. सिद्ध - ख । ६७. ते तो सिद्धिय अनंत - क । ६८. वरजइ - क - ख । ६९. ईति सर्व सिद्धिय सभावं व्याख्यातं अथ अल्पबहुत्वं च्छः । - क । ७१. लिद्ध - क । ७२. जगिचंद - क-ख । ७३. नवतत प्रकरण ग्रंथ विस्तार वृत्त्यि सूत्र गाथाय अधिकार ।
बालावबोध टबालो लह्यो अर्थालो विवरण संग्रह्यो ॥३६।। मूल सूत्र गाथा च्यालीस विरचित सूरि पूवि विनयीस । केवलनांण्ण घन विसवायवीस श्री माहवीर किल खलु प्रण्णम्मीस ॥३७॥
इतिश्री देवचंद नाम्ना कविराजार्हद्विरचितं श्री नवतत्त्व प्रकरण विस्तीर्ण
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________________ 66 अनुसन्धान-५७ गाथा चतुरपद चौपईच्छंदांशितुस्संपूर्णं // श्री श्री सौराष्ट्रदेशेषु श्री लवणसमुद्रौ क्ष्यीर एव श्री बंदिर सौदांमाय श्री पौरबंदिरे नगरे / सिरी विक्रमादीत्त संव 1700 / वर्ष 66 फागुण वदि छट्ठि गुरुवारे लिखितं ऋषि श्री ओधवजी तस्य शिष्य ऋषि हीरजी पठनार्थ ऋषि श्री प्रेमजी सुभं भवतु कल्याणमस्तु लिखक पाठक जयो / ऋ० प्रेमजी ओधवांणीइं पूस्तक भण्डारें कर्यो - क / इति श्री नवतत्त्व चउपई संपूर्ण / संवत् 1816 वर्षे श्रावणिमासे वदिपक्षे पडिवा 1 तिथो गुरुवारे लपिकृतं श्रेयतरात् श्री राधणपुर मध्ये / श्रीपार्श्व देवजी परसादात् श्रीरस्तु / कल्याण ___ जीर्णगढ संवत 1830 फागुण सुदि 11 उतरीया गीरनार ॐ श्री पूज. - ख / अघरा शब्दोनां अर्थ पान नं. गाथानं. चरी 4 13 जाड खंचि आनमी आठिल ग्याभणो चरित जाडु/जड, स्थूल (?) खेंचीने नम्र थईने बेडी गाभणो-गर्भयुक्त 13 17 C/o. देवीकमल जैन स्वाद्यायमन्दिर विकासगृह रोड, ओपेरा, अमदावाद-७