Book Title: Namaskar Mahatmyam
Author(s): Siddhasenacharya
Publisher: Kesarbai Gyanmandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेवश्रीमद्विजयकमलरिजैनप्रन्थमाला-प्रन्थाङ्क-१२. श्रीसिद्धसेनाचार्यविरचितम् श्रीनमस्कारमाहात्म्यम् । सम्पादक-मुनि कान्तिविजय प्रकाशक-पत्तनस्थकेसरवाईज्ञानमन्दिरसंस्थापकश्रेष्ठि नगीनवास करमचन्द संघवी प्रतयः ५०० मूल्यम् ०-१०-० विक्रम सं. २००४ वीर सं. २४७४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4% % प्राप्तिस्थान मुद्रकश्रीकेसरबाईज्ञानमन्दिर शाह गुलाबचंद लल्लुमाई c/o नगीनभाई हॉल, श्रीमहोदयप्रीन्टींगप्रेस पाटण [ उ० गूजरात. ] दाणापीठ-भावनगर. जिणसासणस्स सारो चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो । जस्स मणे नवकारो संसारो तस्स किं कुणइ ॥१॥ % शुद्धिपत्रकम् पहेला पृष्ठनी फूटनोटमां जन्ममरणदानत इत्यर्थः । आलु वधार अने बीजा पृष्ठनी फूटनोटमाथी ते लीटी रद करवी. श्लोक. अशुद्ध शुद्ध अर्कि , ०क्ति, ०ध्नस० न्धस० फूटनोटमा न्या चैते न्या. चैते निन्धन निन्छन %* Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कार माहात्म्ये ॥ ३ ॥ प्रकाशकीय - निवेदन | श्रीसिद्धसेनाचार्यविरचित 'श्रीनमस्कार माहात्म्य' नामनो आ ग्रन्थ, आचार्य - श्रीमद् विजयकमलसूरीश्वरजी जैनप्रन्थमालाना बारमा प्रन्थाङ्क तरीके श्रीकेसरबाईज्ञानमन्दिर तरफथी सम्पादित करावी समाज समक्ष रजू करतां अमने अतिशय आनन्द थाय छे. आ प्रन्थ अगाउ एक बार छपाई गयेल छे, परन्तु हालमां तेनी नकलो दुष्प्राप्य छे. आथी पू० मुनिराज श्रीमद्रङ्करविजयजीमहाराजनी सूचनाथी आ प्रन्थनी अति उपयोगिता लागवाथी तेनुं पुनः सम्पादन पूज्यपाद परमगुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजनी अध्यक्षतामां अत्र चातुर्मास विराजमान पू० मुनिराज श्रीकान्तिविजयजी महाराजद्वारा चार हस्तलिखितप्रतिओना आधारे अमोए करावेल छे. सम्पादनसम्बन्धी विगत तेओश्रीए सम्पादकीय - वक्तव्यमां लखी छे. तथा आ ज प्रन्थनो गूर्जरभाषामां सुन्दर भावानुबाद तेओश्रीए करी आपेल छे. ते पण मूल सहित पुस्तिकाकारे अमारा तरफथी ताजेतरमां ज बहार पडवानो छे. जिज्ञासुओने ते ग्रन्थ पण साथ राखवा भलामण छे. • वि० सं० २००४, पोष कृष्ण पञ्चमी. संघवी नगीनदास करमचंद, पाटणस्थ श्रीकेसरबाई ज्ञानमन्दिरना संस्थापक. प्रकाशकीय निवेदन । ॥ ३ ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये ॥ ४॥ सम्पादकीय - वक्तव्य । श्रीनमस्कार माहात्म्य ग्रन्थ के जेनुं मुद्रण अगाउ एक वार वि. सं. १९६८मां पंडित हीरालाल हंसराज तरफथी थई गयेल छे, तेनुं ज पुनर्मुद्रण श्रीकेसरबाई ज्ञानमन्दिरना संस्थापक संघवी नगीनदास करमचंद तरफथी मुनिराज श्रीभद्रङ्करविजयजी म.ना सदुपदेशथी कराववामां आव्युं छे. प्रतिओनो परिचय - आ ग्रन्थना सम्पादनमां चार हस्तलिखित प्रतिओनो उपयोग कर्यो छे भने मुद्रित प्रतिनो प्रेस कॉपी तरीके उपयोग कर्यो छे. १-२-३ क० ख० ग० संज्ञासूचित त्रण प्रतिओ पाटणस्थ श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरनी छे. १ क० प्रतिनो तत्रत्य नं. ४९०० छे, अने तेना पत्रो ५ छे. आ प्रति पंदरमी सदीमां लखायेली हशे. शुद्धतानी दृष्टिए आ प्रति वधु उपयोगी नीवडी छे. आथी मुख्य आधार तेनो ज राख्यो छे. आम छतां य जे स्थलोए आ प्रतिस्थ पाठ सर्वथा अशुद्ध जणायो छे त्यां शुद्ध जणायेली अन्य प्रतिना- पाठने मुख्य स्थान आप्युं छे, अने आ प्रति प्राचीन होवाना कारणे अशुद्ध जणाता एवा पण तेना पाठने रद्द नहि करतां फुटनोटमां पाठान्तर तरीके मूकेल छे. २ ख० प्रतिनो तत्रत्य नं. ५१८५ छे, अने तेना पत्रो १७ छे. आ प्रति १८मी सदीमां लखाएली इशे. शुद्धतानी दृष्टिए आ प्रति पण लगभग क० प्रति जेवी ज छे. सम्पादकीयवक्तव्य । ॥ ४ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA IRI सम्पाद कीयवक्तव्य। % % ३ ग० प्रतिनो तत्रत्य नं. ७३७९ छे, अने तेना पत्रो ७ छे. आ प्रति २०मी सदीमा लखायेली छे, अने तेमां नमस्कार-IPI शुद्धिनुं धोरण जोइए तेवु सचवायु नथी. माहात्म्ये । ४१. संज्ञासूचित प्रति अमदावादना डहेलाना उपाश्रयनी छे, अने तेना पत्र ५ छे. आ प्रति कममा कम ३०० वर्ष पहेलानी हशे. शुद्धिन धोरण आ प्रतिमां जोइए तेवु सचवायु नथी, छतां य कोई कोई स्थळे अन्य प्रतिस्थ अशुद्ध. | पाठना परिमार्जनमां आ प्रति मार्गदर्शिका बनी छे. ५हि संज्ञासूचित प्रति हीरालाल हंसराजद्वारा मुद्रित ययेल प्रति छे. एमां अनेक स्थळे अशुद्धिओ रही गयेली छे. आथी जे स्थलोए चारे हस्तलिखित प्रतिओधी तेना पाठो विरुद्ध जणावा साथे असङ्गत जणाया छे, तेने पाठान्तर तरीके पण नोंध्या नथी.. ग्रन्थ-परिचय-आ प्रन्थना श्लोक २१८ छे, अने तेना आठ प्रकाश पाडवामां आवेला छे. प्रथमना पांच प्रकाशमा क्रमशः १ अरिहंत, २ सिद्ध, ३ आचार्य, ४ उपाध्याय अने ५ साधु ए पांच परमेष्ठिर्नु वर्णन नवकारना पदोना प्रत्येक अक्षरने अनुलक्षीने खूबज आकर्षक रीते करवामां आव्युं छे. छट्ठा प्रकाशमां नवकारनी चूलिकाना चार पदनु रोचकशैलिथी विस्तृत वर्णन करवामां आव्युं छे. सातमा प्रकाशमा चार निक्षेपामा रहेला सर्वक्षेत्र अने सर्वकालना अरिहंतोना शरणनी प्रार्थना करी, अरिहंतनी वाणी अने मूर्तिनो लाभ नहि लेनाराने चोंकावनारी पण प्रेमभरी सूचना द्वारा उपालम्भ आपी अनेक दृष्टान्तो रजू करी कर्ताए अरिहंत परमात्मा उपरनी भक्तिनी रेलमछेल करी दीधी छे. % % % Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये । ॥ ६ ॥ आठमा प्रकाशमां अरिहंत आदि पांचे परमेष्ठिओनुं संक्षेपथी फरीने वर्णन करेल छे. यद्यपि प्रथमना पांच प्रकाशमां पण अरिहंत आदिनुं ज वर्णन छे अने आठमा प्रकाशमां पण एज वर्णन छे, तो तेमां फरक शुं ? आशंका सहेजे थई जाय, पण तेनुं समाधान ए छे के बन्ने प्रकाशनी शैली भिन्न छे. प्रथमना पांच प्रकाशमां प्रन्थकारे पांच पदना पांत्रीस अक्षरोने अनुलक्षीने ज वर्णन कर्यु छे अने ते पण विस्तारथी. ज्यारे आठमा प्रकाशमां अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु अने केवलिप्रणीतधर्मना शरणनी प्रार्थना करी जिनागम अने जिनवाणीनो महिमा संक्षेपमां वर्णव्यो छे. प्रान्ते नमस्कारनुं ध्यान करनारने केवां अनुपम फलो मळे छे तेनुं वर्णन करी छल्ला लोकमां कर्ताए रचना-स्थल अने पोताना नामनो निर्देश कर्यो छे. ग्रन्थकार परिचय - आ मन्थना रचयिता श्री सिद्धसेनाचार्य छे, एनो निर्णय तो प्रथम प्रकाशना बीजा श्लोकना ' सिद्धसेनाधिनाथाय ' आ उल्लेखथी, अगियारमा श्लोकना ' सिद्धसेनसरस्वती' आ उल्लेखथी अने आठमा प्रका शना छल्ला लोकना ' सिद्धसेनसरस्वत्या ' आ उल्लेखथी थई जाय छे, परंतु तेओश्रीनी सत्तासदी, गुरुपरम्परा, गच्छपरम्परा, विहारभूमि अने प्रन्थरचना आदिनो निर्णय करवा माद्रे आ ग्रन्थनी चारे हस्तलिखित प्रतिओमांथी कांई पण साधन अमने प्राप्त थयुं नथी. आथी ए नामना थई गयेला सूरिवरोना आजना उपलब्ध साधनो उपरथी मात्र नामो ज जणावुं छु, अने जणावेला नामो पैकी कया आचार्यदेवनी आकृति छे एनो निर्णय करी जणाववा इतिहासज्ञोने विनन्ति करुं छु. सम्पाद कीय वक्तव्य । ॥ ६ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये ॥ ७ ॥ १ श्री सन्मत्यादिप्रन्धना कर्ता तार्किकशिरोमणि श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि २ तत्त्वार्थशास्त्राना टीकाकार विन्नगणिशिष्य सिंह सूरिशिष्य भास्वामिशिष्य श्री सिद्धसेनसूरि । ३ जीतकल्पचूर्णिना कर्ता श्रीसिद्धसेनसूरि । ४ वादिकुञ्जरकेसरीत्यादिविरुदभृत् श्रीचष्पभट्टिसूरिगुरु श्रीसिद्धसेनसूरि । ५ बप्पभट्टिसूरि सन्तानीययशोभद्रसूरिंगच्छ भूषण यशोदेवसूरिशिष्य सं. ११२३ वर्षे विलासवईकहा सूत्रधार 'साहारण इति अपरनामक श्रीसिद्धसेन रि । ६ सं. ११४२ वर्षे प्रवचनसारोद्धारवृहद्वृत्तिकार श्रीसिद्धसेनसूरि । ७ सं. ११९२ वर्षे बृहत्क्षेत्र समासटीकाकार उपकेशगच्छीय देवगुप्तसूरिशिष्य श्रीसिद्धसेनसूरि । ८ श्री सिद्धिसागरसूरि सन्तानीय श्री सिद्धसेनसूरि सं. १२९४ । ९ श्रीनाणकीय गच्छालङ्कार श्रीसिद्धसेनसूरि सं. १४३३ । १० नाणावालगच्छीय श्री शान्तिसूरि सन्तानीय श्रीसिद्ध सेणसूरि सं. १५९२ । उपर्युक्त सूरिवरोथी प्रस्तुत ग्रन्थना कर्ता श्रीसिद्धसेनसूरि अन्य छे के तेओ पैकी ज कोई छे, ए कोई पण निर्णय थई शके तेतुं साधन अमने मल्युं नथी, छतां आ प्रन्थना अन्तिम लोक " सिद्धसेन सरस्वत्या सरस्वत्यापगातटे । श्रीसिद्धचक्रमाहात्म्यं गीतं श्रीसिद्धपत्राने " ॥ प्र० ८ श्लो० १६ ॥ सम्पाद कीय वक्तव्य । 119:11 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 नमस्कार माहात्म्ये सम्पादकीयवक्तव्य। ॥८॥ -% उपरथी एटलुं तो नकी थई शके छ के सिद्धपुर वस्या पछी थई गयेला श्रीसिद्धसेनसरिजीनी ज आ कृति छे. ऋण-स्वीकार- आ ग्रन्थना सम्पादन माटे तैयार करेली प्रेसकॉपी पू. मुनिराज श्रीमनकविजयजी म.जे जोई आपी योग्य सूचना करी छे, पू० पा० उपाध्यायजी श्रीमद् जशविजयजी म.ना शिष्य मुनि श्रीअशोकविजयजीए प्रफो जोवामां सहाय करी छे, श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरना ट्रस्टी नगरशेठ केशवलालभाई तथा वकील चीमनलाल संघवीए व्रण ह.लि. प्रतिओ आपवानी उदारता बतावी छे अने हीराचंद रतनचंदनी पेढीना मालीक शाह साराभाई जेशींगभाईए डहेलाना उपाश्रयनी प्रति मेळवी आपी छे. आथी ते सर्वनो आ स्थळे आभार मानी कृतज्ञता अनुभवू छु. उपसंहार- प्रान्ते एक विज्ञप्ति करी विरमुंछ के-दृष्टिदोषथी, असावधानीथी, मतिमान्यथी के प्रेसदोषथी जे कोई क्षतिओ रही गई होय तेने सुज्ञ महाशयो क्षम्य गणशे अने अनुकूळताए अमने जणाववा कृपा करशे, जेथी हवे पछीनी आवृत्ति प्रसिद्ध थाय त्यारे तेमां यथायोग्य सुधारो थई शके. AA%C5%9CSC नगीनभाई हॉल, पाटण, पोष कृष्ण पञ्चमी. विक्रम सं. २००४, वीर संवत् २४७५. मुनि कान्तिविजय, नगीनभाई हॉल, पाटण, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः प्रकाशा नमस्कारमाहात्म्ये। श्रीसिद्धसेनाचार्यविरचितम् । FESTNESSURESSESENTSENSUSHYFESSES श्रीनमस्कारमाहात्म्यम् । FRESSESSESSETTES प्रथमः प्रकाशः। LEVENESS 6SHSHRA% नमोऽस्तु पुरवे कल्प-तरवे जगतामपि । वृषभस्वामिने मुक्ति-मृगनेत्रैककामिने ॥१॥ तपोबानधनेशाप, महेन्द्रप्रणताह । सिद्धसेनापिनाथाय, श्रीशान्तिस्वामिने नमः ॥२॥ नमोऽस्तु श्रीसुव्रताया-जन्तायारिष्टनेमिने । श्रीमत्पाश्चाव वीराय, सहियो नमो नमः॥३॥ देख्योऽन्छुप्तोऽम्बिकावामी-पार्ववणिरादयः । मातरो में प्रयच्छन्तु, पुरुषार्थपरम्पराम् ॥४॥ जीपात् पुण्याङ्गजननी, पालनी शेषनी च में। सविनामकमल-श्रीः सदेष्टनमस्कृतिः ॥५॥ बटुकोऽप्येष संसारो, जन्मसस्थितिदानसः । मान्को में पन्मया लेने, जिनामाजस्यैव संत्रमात् ॥ ६॥ १ नेमये . 1 प्रत्य- ग. पहि। A5 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नमस्कार माहात्म्ये । ॥ २ ॥ भवतु नमोऽई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः । श्रीजिनञ्चासनमनुज - क्षेत्रान्तःपश्चमेरुभ्यः ॥ ७ ॥ ये नमो अरिहन्ताणं, नमो सिद्धाणमित्यथ । नमो आयरियाणं चो- वज्झायाणं नमोऽग्रगम् ॥ ८ ॥ नमो लोए सव्वसा - मेवं पदपश्चकम् । स्मरन्ति भावतो भव्याः, कुतस्तेषां भवभ्रमः १ ॥ ९ ॥ वर्णाः सन्तु श्रिये पश्च- परमेष्ठिनमस्कृतेः । पश्चत्रिंशजिनवचो ऽतिशया इव रूपिणः ॥ १० ॥ तेषामनाद्यनन्तानां श्लोकैत्रैलोक्यपावनैः । वितनोत्यात्मनः शुद्धि, सिद्धसेन सरस्वती ॥ ११ ॥ नरनाथा वशे तेषां नतास्तेभ्यः सुरेश्वराः । न ते बिभ्यति नागेभ्यो, येऽर्हन्तं शरणं श्रिताः ॥ १२ ॥ मोहस्तं प्रति न द्रोही, मोदते स निरन्तरम् । मोक्षं सभी सोऽचिरेण, भव्यो योऽईन्तमर्हति ॥ १३ ॥ अर्हन्ति यं केवलिनः प्रादक्षिण्येन कर्मणा । अनन्तगुणरूपस्य, माहात्म्यं तस्य वेद कः १ ॥ रिपवो रोगरोषाद्याः, जिनेनैकेन ते हताः । लोकेश केशवेशाद्याः, निविडं यैर्विडम्बिताः ।। १५ । हंसवत् श्लिष्टयोः क्षीर— नीरयोर्जीवकर्मणोः । विवेचनं यः कुरुते, स एैको भगवान् जिनः ॥ १६ ॥ 'स्मृ' 'ये' प्रभृतियुग्धातु-वर्णवत् सहजस्थितिः । कर्मात्मश्लेषो झन्येषां दुर्लक्ष्यो महतामपि ॥ १७ ॥ हन्तात्मकर्मणोबींजा - हरवत् कुकुटाण्डवत् । मिथः संहतयोः पूर्वा-पर्य नास्त्येव सर्वथा ॥ १८ ॥ १४ ॥ * जन्ममरणदानत इत्यर्थः । १ ० हूण - मित्येवं क० । २ रागदोषायाः, हि० । ३ एवं भ० क० । ४ कुर्कटा० ग० कुर्कुटा • हि० । ५ नान्यथा क० स्व० ग० हि० । प्रथम प्रकाशः । ॥ २ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: प्रकाशः। नमस्कारमाहात्म्ये। +5+4%EE+5+5+%Cha तायिनः कर्मपाशेभ्यः, तारका मन्जतां भवे । तात्त्विकानामधीशा ये, तान् जिनान् प्रणिदध्महे ॥ १९॥ 'ण'-कारोऽयं दिशत्येवं, त्रिरेखः शून्यचूलिकः । तत्त्वत्रयपवित्रात्मा, लमते पदमव्ययम् ॥ २०॥ सशिरखिसरलरेखं, खचूलमित्यक्षरं सदा ब्रूते । भवति त्रिशुद्धिसरलः, त्रिभुवनमुकटत्रिकालेऽपि ॥ २१॥ सप्तक्षेत्रीय सफला, सप्तक्षेत्रीव शाश्वती । सप्ताक्षरीयं प्रथमा, सप्त हन्तु भयानि मे ॥ २२॥ इति श्रीसिद्धसेनाचार्यविरचिते श्रीनमस्कारमाहात्म्ये प्रथमः प्रकाशः समाप्तः द्वितीयः प्रकाशः। न जातिनं मृतिस्तत्र, न भयं न पराभवः । न बातु क्लेशलेशोऽपि, यत्र सिद्धाः प्रतिष्ठिताः॥१॥ मोचास्तम्म इवासारः, संसारः क्वैष सर्वथा । क च लोकानगं लोके, सारत्वात्सिद्धवैभवम् १ ॥२॥ सितधर्माः सितलेश्याः, सितध्यानाः सिताश्रयाः । सितश्लोकाश्च ये लोके, सिद्धास्ते सन्तु सिद्धये ॥३॥ सतां वर्मोक्षयोदर्दाने, धाने दुर्गतिपाततः। मन्येऽहं युगपच्छक्ति, सिद्धानां वेतिवर्णतः॥४॥ . यदि वा 'द्धावणे सिद्धशन्देऽत्र, संयोगो वर्णयोर्दयोः । सकर्णोऽयं सकर्णानां, फलं वक्तीव योगजम् ॥ ५॥ लोक-सा. स्व. ग. घ. हि । २ ति यो० क० ख० ग० हि० । KHUSIAS ॥३॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशा नमस्कारमाहात्म्ये। ॥४॥ AMAॐ परस्परं कोऽपि योगः, क्रियाज्ञानविशेषयोः । स्त्रीपुंसयोरिवानन्दं, प्रसते परमात्मजम् ॥६॥ भाग्यं पापमं पुंसां, व्यवसायोशासनिमः । यथा सिद्धिस्तयोोंगे, तथा ज्ञानचरित्रयोः॥७॥ खङ्गखेटकपद् ज्ञान-चारित्रद्वितयं वहन् । वीरो दर्शनसमाहः, कलेपारं प्रयाति वै ॥८॥ नयतोऽमीसित स्थान, प्राणिनं संपाशमी । समं निश्चलविस्तारी, पक्षाविव विहङ्गमम् ॥९॥ मुक्ती विवोत्सर्गा-पवादौ वृषभावुभौ। शीलाङ्गरथमारूढं, क्षणात प्रापयतः शिवम् ॥ १०॥ निश्चयबहारी द्वौ, सूर्याचन्द्रमसाविव । इहामुत्र दिवारात्री, सदोषोताब जामतः।।११।। अन्तरवस मनाशुद्धिः, बहिस्तत्वं च संवमः । कैवल्य द्वयसंयोगे, तस्मात् द्वितषभाग भव ॥ १२॥ नैकचक्रो रथो याति, नैकपक्षो विहङ्गमः । नैवमेकान्तमार्गस्थो, नरो निर्वाणमृच्छति ॥१३॥ दशकान्तनवास्तित्व-न्यायादेकान्तमप्यहो । अनेकान्तसमुद्रेऽस्ति, प्रलीनं सिन्धुपूरवत् ॥ १४ ॥ एकान्ते तु न लीयन्ते, तुच्छेऽनेकाम्तसम्पदः। न दरिद्रगृहे मान्ति, सार्वभौमसमृद्धयः ॥ १५॥ एकान्ताभासो यः कापि, सोऽनेकान्तप्रसत्तिजः। वर्तितैलादिसामग्री-जन्मानं पश्य दीपकम् ॥१६॥ सवासचनित्यानित्व-धर्माधर्मादयो गुणाः । एवं इये इये लिहाः, सतां सिद्धिप्रदर्शिनः॥१७॥ तदेकान्तग्रहावेश-मष्टधीगुणमन्त्रतः । मुस्वा यतध्वं तत्त्वाय, सिद्धये यदि कामना ॥१८॥ १ प्राणिनः ग०। १०पि, ग. हि० कोऽपि क०। ४ सिद्धत्वे य० ख० म० घ० हि । ANGKATAN Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये ॥५॥ ''- कारोऽत्र दिशत्येवं, त्रिरेखः शून्यमालितः । रत्नत्रयमयो ह्यात्मा, याति शून्यस्वभावताम् ॥ १९ ॥ शुभाशुभैः परिक्षीणैः कर्मभिः केवलस्य या । चिद्रूपतात्मनः सिद्धौ सा हि शून्यस्वभावता ॥ २० ॥ पञ्चविग्रहसंहन्त्री, पश्चमीगतिदर्शिनी । रक्ष्यात् पश्चाक्षरीयं वः, पञ्चत्वादिप्रपश्चतः ॥ २१ ॥ इति द्विर्तीयः प्रकाशः समाप्तः । तृतीयः प्रकाशः । न तमोन रजस्तेषु, न च सत्त्वं बहिर्मुखम् । न मनोवाग्वपुः कष्टं, यैराचार्यांद्रयः श्रिताः ॥ १ ॥ मोहपाशैर्महचित्रं, मोटितानपि जन्मिनः । मोचयत्येव भगवान्, आचार्यः केशिदेववत् ॥ २ ॥ आचारा यत्र रुचिराः, आगमाः शिवसङ्गमाः । आयोपाया गतापायाः, आचार्य तं विदुर्बुधाः ॥ ३ ॥ यथास्थितार्थप्रथको, यतमानो यमादिषु । यजमानः स्वात्मयज्ञं, यतीन्द्रो मे सदा गतिः ॥ ४ ॥ रिपौ मित्रे सुखे दुःखे, रिष्टे शिष्टे शिवे भवे । रिक्थे नैः स्व्ये समः सम्यक्, स्वामी संयमिनां मतः ॥ ५ ॥ या काचिदनघा सिद्धिः, या काचिद् लब्धिरुज्वला । वृणुते सा स्वयं सूरिं, भ्रमरीव सरोरुहम् ॥ ६ ॥ १ शुद्ध घ० । २ रेक्थ्ये नैः० हि० । तृतीयः प्रकाशः । ॥५॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श्री चतुर्थ प्रकाशः। नमस्कारमाहात्म्ये । 'णं'-कारोन दिशत्येवं, त्रिरेखो व्योमचूलिकः । त्रिवर्गसमतायुक्ताः, स्युः शिरोमणयः सताम् ॥७॥ धर्मार्थकामा यदि वा, मित्रोदासीनशत्रवः । यद्वा रागद्वेषमोहाः, त्रिवर्गः समुदाहृतः॥ ८॥ सप्ततत्वाम्बुर्जवनी-सप्तसप्तिविभानिभा । सप्ताक्षरी तृतीयेयं, सप्तावनितमो हियात् ॥९॥ इति तृतीयः प्रकाशः समाप्तः। चतुर्थः प्रकाशः। 845454SAASARAS न खण्ज्यते कुपाखण्डैः, न त्रिदण्ड्या विडम्ब्यते । न दण्ड्यते चण्डिमाद्यैः, उपाध्यायं श्रयन् सुधीः॥१॥ मोमाश्रीडीधृतिबाहयो, मोचलन्तु तदङ्गतः । उपास्ते य उपाध्याय, सिद्धादेशो महानिति ॥२॥ उदयो मूर्तिमान सम्यग्-दृष्टीनामुत्सवो घियाम् । उत्तमानां य उत्साहा, उपाध्यायः स उच्यते ॥३॥ वचो वपुर्वयो वक्षो, वर्जितं वधवाया । वशगं वेदविद्यानां, उपाध्याय॑महेशितुः॥४॥ ज्झाकारो वाचकश्लोक-भम्भाया व्यानशे दिशः। अनित्यैकान्तदृग्नित्यै-कान्तहग्जयजन्मनः॥५॥ * सप्ततत्त्वरूपकमलवनविकासने सूर्यकिरणसदृशी इत्यर्थः । १ जननी-क० ख० घ०। १ ध्यायान् श्र० क०। ३ सोमा० ग० हि०, मा+उमा मोमा०। ४ उपाध्यास्त उपा० का। ५ वक्ष्यो, घ० ०वृद्ध, हि० । ६०य महस्व तम् हि० । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारमाहात्म्ये ॥७॥ या सप्तनयवैदग्धी, या परागमचातुरी । या द्वादशाङ्गी-सूत्राप्तिः, त्रोपाध्यायाहते कुतः १ ॥ ६ ॥ 'णं' - कारोऽत्र दिशत्येवं, त्रिरेखोऽम्बरशेखरः । विनयश्रुतशीलाद्याः, महानन्दाय जाग्रति ॥ ७ ॥ सप्तरज्जूर्ध्वलोकाऽध्वो- द्योतदीपमहोज्ज्वला । सप्ताक्षरी चतुर्थी मे, हियाद् व्यसनसप्तकम् ॥ ८ ॥ इति चतुर्थः प्रकाशः समाप्तः । पञ्चमः प्रकाशः न व्याधिर्न च दौर्विध्यं न वियोगः प्रियैः समम् । न दुर्भगत्वं नोद्वेगः, साधूपास्तिकृतां नृणाम् ॥ १ ॥ न चतुर्द्धा दुःखतमो, नराणामन्ध्यहेतवे । साधुध्यानामृतरसा - ऽञ्जनलिप्तमनोदृशाम् ॥ २ ॥ मोक्तारः सर्वसङ्गानां मोध्या नोऽऽन्तरवैरिणाम् । मोदन्ते मुनयः कामं, मोक्षलक्ष्मीकटाक्षिताः ॥ ३ ॥ लोभद्रुमनदी वेगाः, लोकोत्तरचरित्रिणः । लोकोत्तमास्तृतीयास्ते, लोपं तन्वन्तु पाप्मनाम् ॥ ४ ॥ एकान्ते रमते स्वैरं मृगेण मनसा समम् । मूलोत्तरगुणग्रामा -ऽऽरामेषु भगवान् मुनिः ॥ ५ ॥ एकत्वं यदिदं साधौ, संविग्ने श्रुतपारगे । तत्साक्षाद् दक्षिणावर्त्ते, शङ्खे सिद्धसरिजलम् ।। ६ ।। एको न क्रोधविधुरो, नैको मानं तनोति वा । एको न दम्भसंरम्भी, तृष्णा मुष्णाति नैककम् ॥ ७ ॥ पश्चमः प्रकाशः । ॥ ७ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये । ॥ ८ ॥ एकत्वतस्यनिट-सवा राजर्षिकुञ्जराः । ययुः प्रस्वेकबुद्धाः श्री - नमिप्रभृतयः शिवम् ॥ ८ ॥ सर्वथा ज्ञातवान सदा संविग्नवेतसाम् । सतामेकाकिता सम्पद, समतामृतसारणिः ॥ ९ ॥ नवयुगीन तु, द्वौ द्वौ सङ्घाटकस्थितौ । स्वार्थसंसाधकौ स्यातां, व्रतिनौ वशिनौ यदि ॥ १० ॥ वसंज्ञयेत्यचत - मैति यद् द्वयोर्द्वयोः । वचोवक्षोवपुर्वस्या, वशिनोर्व्रतिनोः शिवम् ॥ ११ ॥ निःशङ्कमैक्यं अनयोः, वशित्वादुभयोरपि । एकस्यापि सहस्रत्वं, दुरन्तमवशात्मनः ॥ १२ ॥ नेत्रवत्समसङ्कोच - विस्तारस्वप्नजागरौ । द्वौ दर्शनाय कल्पेते, नैकः सम्पूर्णकस्यत् ॥ १३ ॥ एको विडम्बनापा, एकः स्वार्थाय न क्षमः । एकस्य नहि विश्वासो, लोके लोकोचरेऽपि वा ॥ १४ ॥ भावना ध्याननिर्णीत- तच्चलीनान्तरात्मनः । ऐक्यं न लक्षमध्येऽपि, निर्ममस्य विनश्यति ।। १५ ।। साम्यामृतोर्मितृप्तानां सारासारविवेचिनाम् । साधूनां भावशुद्धानां स्वार्थेऽपि क्वाऽथवा क्षतिः १ ॥ १६ ॥ मनः स्थैर्यामिचलानां वृक्षादिवदकर्मणाम् । वृन्दमृषीणामेकत्र, भावनावल्लिमण्डपः ॥ १७ ॥ मनसा कर्मणा वाचा, चित्रालिखितसैन्यवत् । मुनीनां निर्विकाराणां, बहुत्वेऽप्यरतिः कुतः १ ॥ १८ ॥ निर्जीवेष्विव चैतन्यं, साहसं कातरेष्विव । बहुष्वपि सुनीन्द्रेषु, कलहो न मनागपि ॥ १९ ॥ १ ०सारा रा० ग० हि० । २ समम् क० । ३ सर्वदेवयुगीनौ क० । ४ सर्वज्ञा वित्ववितर्क्स • क० | ५० किनाम् हि० । ६० सिद्धानां ० ग० घ० हि० । ७ क्षितिः क० । पद्मामा प्रकाशः । ॥४॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः प्रकाशः। श्री नमस्कारमाहाल्ये। ॥९॥ RBS पञ्चपैरपि यो ग्लानिं, मुग्धधीगणयिष्यति । एकत्राऽनन्तसिद्धेभ्यः, स कथं स्पृहयिष्यति ॥२०॥ रामाबपायविषमे, सन्मार्गे चरतां सताम् । रत्नत्रयजुषामैक्य, कुशलाय न जायते ॥ २१॥ नैकस्य सुकृतोल्लासो, नैकस्यार्थोऽपि तादृशः। नैकस्य कामसम्प्राप्तिः, नैको मोक्षाय कल्पते ॥ २२॥ श्लेष्मणे शर्करादानं, सज्वरे स्निग्धमोजनम् । एकाकित्वमगीतार्थे, यतावश्चति नौचितीम् ॥ २३ ॥ एकचौरायते प्रायः, शङ्कयते धृवद् द्वयम् । यो रक्षन्ति विश्वास, वृन्दं नरवरायते ॥ २४॥ जिनप्रत्येकबुद्धादि-दृष्टान्तानकतां श्रयेत् । न चर्मचक्षुषां युक्तं, स्पर्द्धितुं शानदृष्टिमिः॥२५॥ चातुर्गतिकसंसारे, भ्राम्यतां सर्वजन्मिनाम् । पुण्यपाफ्सहायत्वात् , नैकत्वं घटतेऽयवा ॥२६॥ संजाकलेश्याविकथा, चर्चिका इव चापलम् । यस्खाऽन्तर्धाम कुर्वन्ति, स एकाकी कथं भवेत् ॥ २७ ॥ शाकिनीबदविरति-संज्ञा नाबाप्रिया सदा । प्रासाय यतते यस्य, स एकाकी कथं भवेत् ॥ २८॥ पश्चाग्निवदसन्तुष्ई, यस्येन्द्रियकुटुम्बकम् । देहं दहत्यसन्देह, स एकाकी कथं भवेत् ॥ २९॥ दायादा इव दुर्दान्ताः, कषायाः क्षणमप्यहो । यद्विग्रहं न मुञ्चन्ति, कथं तस्यैकतासुखम् ॥३०॥ खमनोवाक्तनूत्थाना, कुव्यापाराः कुमुत्रवत् । भ्रंशाय यस्य यस्यन्ति, कथं तस्यैकतासुखम् ॥ ३१ ॥ यस्य प्रमादमिथ्यात्व-रागाद्या छलवीक्षिणः । प्रातिवेश्मिकायन्ते, कथं तस्यैकतासुखम् १ ॥ ३२॥ १. मामा- मिया ख०, रवानार्या प्रिया हि० । brennt Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नमस्कारमाहात्म्ये ॥ १० ॥ एमिरुज्झितः सम्यक्, सजनेऽपि स एककः । जनाऽऽपूर्णेऽपि नगरे, यथा वैदेशिकः पुमान् ॥ ३३ ॥ एभिस्तु सहितो योगी, मुत्रैकाकित्वमनुते । वण्ठः शठथरचौरः, किन भ्राम्यति नैककः १ ॥ ३४ ॥ क्षीरं क्षीरं नीरं नीरं, दीपो दीपं सुधा सुधाम् । यथा सङ्गत्य लभते तथैकत्वं मुनिर्मुनिम् ॥ ३५ ॥ पुण्यपापक्षयान्मुक्ते, केवले परमात्मनि । अनाहारतया नित्यं सत्यमैक्यं प्रतिष्ठितम् ॥ ३६ ॥ यद्वा श्रुतेऽत्र नाऽनुज्ञा, निषेधो वाऽस्ति सर्वथा । सम्यगायव्ययौ ज्ञात्वा यतन्ते यतिसत्तमाः ॥ ३७ ॥ हूयते न दीयते न, न तप्यते न जप्यते । निष्क्रियैः साधुभिरहो, साध्यते परमे पदम् ॥ ३८ हूहूगीतैरपि सुधा - रसैर्मन्दार सौरमैः । दिव्यतल्पसुखस्पर्शैः, सुरीरूपैर्न ये हृताः ॥ ३९ ॥ तत् किं ते तरवो यद्वा, शिशवो यदि वा मृगाः । न ते न ते न ते किन्तु, मुनयस्ते निरञ्जनाः ॥ ४० ॥ 'णं' कारोऽयं भणत्येवं, त्रिरेखो बिन्दुशेखरः । गुप्तित्रये लब्धरेखाः, सद्वृत्ताः स्युर्महर्षयः ॥ ४१ ॥ नवभेदजीवरक्षा-सुधाकुण्डसमाकृतिः । दत्तां नवाक्षरीयं मे, धर्मे भावं नवं नवम् ॥ ४२ ॥ इति पञ्चमः प्रकाशः समाप्तः । षष्ठः प्रकाशः । एष पश्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः । मङ्गलानां च सर्वेषां मुख्यं भवति मङ्गलम् ॥ १ ॥ १०रुच्छ्रितः क० । २ ० त्ववन्नित्यं, ख० ग घ० हि० । पछः प्रकाशः । 11 20.11 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः। नमस्कारमाहात्म्ये ॥११॥ समितिप्रयतः सम्यग, गुप्तित्रयपवित्रितः । अमुं पञ्चनस्कार, यः स्मरत्युपवैणवम् ॥२॥ शत्रुमित्रायते चित्रं, विषमप्यमृतायते । अशरण्याऽप्यरण्यानी, तस्य वासगृहायते ॥३॥ ग्रहाः सानुग्रहास्तस्य, तस्कराश्च यशस्कराः। समस्तं दुनिमिचाद्य, अपि स्वस्तिफलेग्रहि ॥ ४॥ न मन्त्रतन्त्रयन्त्राधाः, तं प्रति प्रभविष्णवः । सर्वापि शाकिनी द्रोह-जननी जननीव न ॥५॥ व्यालास्तस्य मृणालन्ति, गुञ्जापुञ्जन्ति ववयः। मृगेन्द्रा मृगधूर्तन्ति, मृगन्ति च मतङ्गजाः ॥६॥ तस्य रक्षोऽपि रक्षाय, भूतवर्गोऽपि भूतये । प्रेतोऽपि प्रीतये प्रायः, चेटत्वायैव चेटकः ॥७॥ धनाय तस्य प्रधनं, रोगो भोगाय जायते । विपत्तिरपि सम्पश्यै, सर्व दुःखं सुखायते ॥ ८॥ [सप्तभिः कुलकम् ] बन्धनैर्मुच्यते सर्वैः, सपैंश्चन्दनवजनः । श्रुत्वा धीरं ध्वनि पश्च-नमस्कारगरुत्मतः ॥९॥ जलस्थलश्मशानाद्रि-दुर्गेम्वन्येष्वपि ध्रुवम् । नमस्कारैकचित्तानां, अपायाः प्रोत्सवा इव ॥१०॥ पुण्यानुवन्धिपुण्यो या, परमेछिनमस्कृतिम् । यथाविधि ध्यायति सः, स्थान तिर्यग् न नारकः॥११॥ चक्रिविष्णुप्रतिविष्णु-पलाद्यैश्चर्यसम्पदः । नमस्कारप्रभावाम्धेः, तटमुक्तादिसन्निभाः॥१२॥ वश्यविद्वेषणक्षोभ-स्तम्भमोहादिकर्मसु । यथाविधि प्रयुक्तोऽयं, मन्त्रः सिद्धिं प्रयच्छति ॥१३॥ उच्छेदं परविद्यानां, निमेषाात् करोत्यसौ । क्षुद्रात्मनां परावृत्ति-वेधं च विधिना स्मृतः ॥१४॥ * उपवणवे त्रिसन्ध्यं इत्यर्थः । । SAGACASS+KAARA Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश:. नमस्कारमाहात्म्ये। BCCESAECSCAUSE5% भवावस्त्रयीरो, या कोप्यतिशयः किल । द्रब्यक्षेत्रकालभावा-ऽपेक्षया चित्रकारकः ॥१५॥ चित्कथाविस्करसापि, श्रूयते दृश्यतेशिनः । स सर्वोऽपि नमस्कारा-प्राधमाहात्म्यसम्यवः॥१६॥ तिर्यग्लोके चन्द्रमुख्या, पाताले चमरादयः । सौधर्मादिषु शक्राद्याः, वदोऽपि च ये सुराः॥१७॥ तेषां सर्वाः श्रिया पच-परमेष्ठिमरुत्तरोः । अहरा वा. पल्लवा वा, कलिका वा.सुमानि वा ॥१८॥ ते मतास्ते गमिष्यन्ति, ते मच्छन्ति परम्पदम् । आरूढा निरपाय ये, नमस्कारमहारथम् ॥ १९ ॥ यदि तावदसौ मन्व:, शिवं दत्ते सुदुर्लमम् । ततस्तदनुषकोत्थे, गणना का फलान्तरे ? ॥२०॥ जपन्ति ये नमस्कार-लक्षं पूर्ण त्रिशुद्धितः। जिनसंघपूजिमिस्तैः, तीर्थकृत्कर्म बध्यते ॥२१॥ किं तप:श्रुतचारित्रैः, चिरमाचरितैरपि । सखे ! यदि नमस्कारे, मनो लेलीयते न ते ! ॥ २२ ॥ योऽसंख्यदुःखक्षयकारणस्मृतिः, य ऐहिकामुष्मिकसौख्यकामधुर । यो दुषमायामपि कल्पपादपो, मन्त्राधिराजः स कथं न जप्यते ॥ २३ ॥ न यद् दीपेन सूर्येण , चन्द्रेणाप्यपरेण वा । तमस्तदपि निर्नाम, स्थानमस्कारतेजसा ॥ २४ ॥ कृष्णशाम्बादिवत् भाव-नमस्कारपरो भव । मा वीर-पालक-न्यायात, मुधाऽऽत्मानं विडम्बय ॥ २५ ॥ यथा नक्षत्रमालायां, स्वामी पीयूषदीधितिः । तथा भावनमस्कारः, सर्वस्या पुण्यसंहतौ ॥ २६ ॥ १ ०पूजितैस्तैः, हि० । २ स्मृतो, हि० ३. न्यावत्, कहि० । 555555 यणशाम्बादिवर भार, चन्द्रेणाप्यपरेणादो, मन्त्राधिराजस्मिकसौख्यकामयते न ते ? ॥२९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4% नमस्कारमाहात्म्ये। ASHA जीवेनाकृतकृत्यानि, विना भावनमस्कृतिम् । गृहीतानि विमुक्तानि, द्रव्यलिङ्गान्यनन्तशः ॥ २७॥ अष्टावष्टौ शतान्यष्ट, सहस्राण्यष्ट कोटयः । विधिध्याता नमस्काराः, सिद्धयेऽन्तर्भवत्रयम् ॥ २८ ॥ धर्मवान्धव ! निश्छद्य-पुनरुक्तं त्वमर्थ्यसे । संसारार्णवबोहित्थे, माऽत्र मन्त्रे श्लथो भव ॥ २९॥ अवश्य यदसौ भाव-नमस्कारः परं महः । स्वर्गापवर्गसन्मार्गों, दुर्गतिप्रलयानिलः ॥ ३० ॥ शिवतातिः सदा सम्यक, पठितो गुणितः श्रुतः । समनुप्रेक्षितो भव्यैः, विशिष्याराधनाक्षणे ॥ ३१ ।। प्रदीप्ते मवने यद्वत्, शेषं मुक्वा गृही सुधीः । गृह्णात्येकं महारत्नं, आपभिस्तारणक्षमम् ।। ३२ ॥ आकालिक-रणोत्पाते, यथा कोऽपि महामटः । अमोघमस्त्रमादत्ते, सारं दम्भोलिदण्डवत् ॥ ३३ ॥ एवं नाशक्षणे सर्व-श्रुतस्कन्धस्य चिन्तने । प्रायेण न थमो जीवः, तस्मात्तद्गतमानसः ॥ ३४ ॥ द्वादशाङ्गोपनिषदं, परमेष्ठिनमस्कृतिम् । धीरधीः सल्लसल्लेश्यः, कोऽपि स्मरति साविकः ॥ ३५ ॥ समुद्रादिव पीयूषं, चन्दनं मलयादिव । नवनीतं यथा दप्नो, वजं वा रोहणादिव ।। ३६ ॥ आगमादुद्धृतं सर्व-सारं कल्याणसेवधिम् । परमेष्ठिनमस्कार, धन्याः केचिदुपासते ॥ ३७॥ संविनमानसाः स्पष्ट-गम्भीरमधुरखराः। योगमुद्राधरकराः, शुचयः कमलासनाः ॥ ३८॥ उच्चरेयुः स्वयं सम्यक, पूर्णा पश्चनमस्कृतिम् । उत्सर्गतो विधिरयं, ग्लान्याऽत्रैते न चेत्क्षमाः॥ ३९॥ १ .यानलः स्ख० ग. हि० । २ अका० ख०. ग. हि । ३ यद्वा को ख० ग० हि०। ४ न्या चैते ग० हि । ॥१३॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये ॥ १४ ॥ 1 असिआडसेति मन्त्र तन्त्राभावक्षराङ्कितम् । स्मरन्तो जन्तषोऽमन्ताः, मुच्यन्तेऽन्स कबन्धनात् ॥ ४० ॥ अईदरूपाssचार्योपाध्यायन्यादिमाक्षरैः । सन्धिप्रयोगसंश्लिष्टैः ॐकारं वा विदुर्जनाः ॥ ४१ ॥ व्यक्ता मुक्तात्मनां मुक्तिः, मोहस्तम्बेरमा हुशः । प्रणीतः प्रणवः प्राज्ञैः, भवार्त्तिच्छेदकर्त्तरी ॥ ४२ ॥ ओमिति ध्यायतां तस्वं स्वर्गार्गल ककुञ्चिकाम् । जीविते मरणे वापि, मुक्तिर्मुक्तिर्महात्मनाम् ॥ ४३ ॥ सर्वथाप्यक्षमो दैवात् यद्वाऽन्ते धर्मबान्धवात् । शृण्वन् मन्त्रमनुं चित्ते धर्मात्मा भावयेदिति ॥ ४४ ॥ अमृतैः किमहं सिक्तः, सर्वाङ्गं यदि वा कृतः । सर्वानन्दमयोऽकाण्डे, केनाऽप्यनवबन्धुना ॥ ४५ ॥ परं पुण्यं परं श्रेयः परं मङ्गलकारणम् । यदिदानीं श्रापितोऽहं पञ्चनाथनमस्कृतिम् ॥ ४६ ॥ अहो ! दुर्लभलाभो में, ममाहो ! प्रियसङ्गमः । अहो ! तत्वप्रकाशो मे, सारमुष्टिरहो ! मम ॥ ४७ ॥ अद्य कष्टानि नष्टानि, दुरितं दूरतो ययौ । प्राप्तं पारं भवाम्भोधेः, श्रुत्वा पश्चनमस्कृतिम् ॥ ४८ ॥ प्रशमो देवगुर्वाज्ञा-पालनं नियमस्तपः । अद्य मे सफलं जैज्ञे, श्रुतपश्ञ्चनमस्कृतेः ॥ ४९ ॥ स्वर्णस्येवाग्रिसम्पातो, दिया मे विपदप्यभूत् । यल्लेमेऽद्य मयऽनर्घ्य, परमेष्ठिमयं महः ॥ ५० ॥ एवं शमरसोल्लास - पूर्वं श्रुत्वा नमस्कृतिम् । निहत्य क्लिष्टकर्माणि, सुधीः श्रयति सद्गतिम् ॥ ५१ ॥ १ •द्याक्ष० ख० मं० घ० हि० । २ ० न्तात् क० घ० । ३ शुक्तिः स्र० ग० घ० हि० । ४ जन्म, ख० ग० घ० हि० । ५० सन्तापो, ख० हि० । ६ ०हान० ख० न० दि० । पशु प्रकाशः । ॥ १४ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सप्तमः प्रकाशः। नमस्कार माहात्म्ये । ॥१५॥ ARREARSAC% उत्पद्योत्तमदेवेषु, विपुलेषु कुलेब्वपि । अन्तर्भवाष्टकं सिद्धः, स्यानमस्कारभक्तिभाक् ॥ ५२ ॥ इति षष्ठः प्रकाशः समाप्तः । - सप्तमः प्रकाशः। सदा नामाकृतिद्रव्य-मात्रैलोक्यपावनाः । क्षेत्रे काले च सर्वन, शरणं मे जिनेश्वराः ॥१॥ तेऽतीताः केवलज्ञानि-प्रमुखा कपभादयः । वर्तमाना भविष्यन्तः, पानाभादयो जिनाः ॥२॥ सीमन्धराद्या अर्हन्तो, विइस्म्तोऽथ वाचताः । चन्द्राननवारिपेण-वर्द्धमानर्षभाश्च ते ॥३॥ संख्यातास्ते वर्तमानाः, अनम्तास्तीचमाविमः । सर्वेष्वपि विदेहेषु, भरतैरावतेषु च ॥ ४॥ से केवलज्ञानविकाशमासुरा, निराकृताष्टादशदोपविप्लवाः । । असंख्यवास्योपतिवन्दितांड्यः, सत्प्रातिहार्यातिशयैः समाश्रिताः ॥५॥ जगत्ववीमोविदपत्रासंबुत-त्रिंशगुणालातदेशनागिरः।। अनुत्तरस्वर्णिमणैः सदा स्मृताः, अमन्यदेयाक्षरमार्गदायिनः ॥ ६ ॥ दुरिसं दूरतो याति, साविधिःप्रणश्यति । दारियमुद्रा विद्राति, सम्यग्दृष्टे जिनेश्वरे ॥ ७॥ निन्दन मांसखण्डेन, किं तया जिहया नृणाम् । माहात्म्य वा जिनेन्द्राणां, म स्तवीति क्षणे क्षणे ॥ ८॥ अर्हचरित्रमाधुर्य-सुधास्वादाऽममिजयोः। कर्णयोश्छिद्रयोर्वाऽपि, स्वल्पमप्यस्ति नान्तरम् ॥९॥ 5HRSHKS Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारमाहात्म्ये ॥ १६ ॥ सर्वातिशयसम्पन्नां, ये जिनाच न पश्यतः । न ते विलोचने किन्तु, वदनालयजालके ॥ १० ॥ अनार्येऽपि वसन् देशे, श्रीमानाऽऽर्द्रकुमारकः । अर्हतः प्रतिमां दृष्ट्वा, जज्ञे संसारपारगः ॥ ११ ॥ जिनबिम्बेक्षणात् ज्ञात-तश्वः शय्यम्भवद्विजः । निषेव्य सुगुरोः पादान्, उत्तमार्थमसाधयत् ॥ १२ ॥ अहो ! सान्त्रिकमूर्द्धन्यो, वज्रकर्णो महीपतिः । सर्वनाशेऽपि योऽन्यस्मै, न ननाम जिनं विना ॥ १३ ॥ देवतत्वे गुरुतश्वे, धर्मतत्वे स्थिरात्मनः । वालिनो वानरेन्द्रस्य, महनीयमहो महः ॥ १४ ॥ सुलसाया महासत्याः, भूयासमवतारणम् । सम्भावयति कल्याण- वार्त्तायां त्रिजगद्गुरुः ।। १५ । श्रीवीरं वन्दितुं भावात्, चलितौ दर्दुरावपि । मृत्वा सौधर्मकल्पान्त - जतौ शेकसमौ सुरौ ॥ १६ ॥ हासाप्रहासापतिरामियोग्य- दुष्कर्मनिर्विण्णमनाः सुरोऽपि । देवाधिदेवप्रतिमां क्षमायां प्राकाशयत्स्वात्मविमोचनाय ॥ १७ ॥ जिनांहिसे वाहतपापतापः, त्रैलोक्य कुक्षिम्भरिसत्प्रतापः । श्रीको नाम महाक्षमापः, सुरेन्द्र चित्तेष्वपि वासमाप ।। १८ ।। अष्टाहिकापर्व सुपर्वनाथाः कुर्वन्ति सर्वे जिनमन्दिरेषु । नित्येषु नन्दीश्वरमुख्यतीर्था - ऽलङ्कारभूतेषु भवाभिभूत्यै ॥ १९ ॥ `१ भूयाः समवतारणं क०, भूयांसमवधारणं द्वि० । २ ० वार्त्तया या जगद्गुरुम् क०, ० वार्त्तया यां जगद्गुरुः ख० | सप्तमः प्रकाशः । ॥ १६ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कार माहात्म्ये ॥ १७ ॥ श्रूयते चरमाम्भोधौ, जिनबिम्बाकृतेस्तिमेः । नमस्कृतिपरो मीनो, जानस्मृतिर्दिवं ययौ ॥ २० ॥ नृसुरासुरसाम्राज्यं भुज्यते यदशङ्कितम् । जिनपादप्रसादानां, लीलायितलवो हि सः ।। २१ ।। नृलोके चक्रवर्त्त्याद्याः, शक्राद्याः सुरसद्मनि । पाताले धरणेन्द्राद्याः, जयन्ति जिनभक्तितः ॥ २२ ॥ मुकुटीकृत जैनाज्ञाः, रुद्रा एकादशाप्यहो ! । केचिचीर्णास्तरिष्यन्ति परे संसारसागरम् ॥ २३ ॥ ज्वाला इव जले, विषोर्मय इवामृते । जिनसाम्ये विलीयन्ते, हरादीनां कथाप्रथाः ॥ २४ ॥ तानि जैनेन्द्रवृत्तानि सम्यग् विमृशतां सताम् । अत्राप्यानन्दमग्नानां युक्तं मोक्षेऽपि न स्पृहा ।। २५ । यथा तोयेन शाम्यन्ति, तृषोऽनेन क्षुधो यथा । जिनदर्शनमात्रेण, तथैकेन भवार्त्तयः ॥ २६ ॥ अतिकोटिः समाः सम्यक्, समाधीन् समुपासताम् । नाईदाज्ञां विना यान्ति, तथापि शमिनः शिवम् ॥ २७ ॥ न दानेनाऽनिदानेन न शीलैः परिशीलितैः । न शस्याभिस्तपस्याभिः, अजैनानां परं पदम् ॥ २८ ॥ भास्वता वासर इव, पूर्णिमेवाऽमृतांशुना । सुभिक्षमिव मेघेन, जिनेनैवाऽव्ययं महः ।। २९ ।। अक्षायत्तं यथा द्यूतं, मेघाधीना यथा कृषिः । तथा शिवपुरे वासो, जिनध्यानवशंवदः ॥ ३० ॥ सुलभाखिजगल्लक्ष्म्यः, सुलभाः सिद्धयोऽष्ट ताः । जिनांहिनीरजरजः - कणिकास्त्वतिदुर्लभाः ॥ ३१ ॥ अहो ! कष्टमहो ! कटं, जिनं प्राप्यापि यञ्जनाः । केचिन्मिथ्यादृशो बाढं, दिनेशमिन कौशिकाः ।। ३२ ।। १ पारसं० ख० घ० । सप्तमः प्रकाशः । ॥ १७ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कारमाहात्म्ये। सप्तमः प्रकाशः। ॥१८॥ CARN जिन एव महादेव, स्वयम्भूः पुरुषोत्तमः । परात्मा सुगतोऽलक्ष्यो, भूर्भुवःस्वस्खयेयी)वरः ।। ३३ ।। त्रैगुण्यगोचरा संज्ञा, बुद्धेशानादिषु स्थिता । या लोकोत्तरसवोत्था, सा सर्वाऽपि परं जिने ॥ ३४॥ रोहणानेरिवादाय, जिनेन्द्रात्परमात्मनः । नानाऽभिधानरत्नानि, विदग्वैर्व्यवहारिमिः ॥ ३५॥ सुवर्णभूषणान्याऽऽशु, कृत्वा स्वस्वमतेष्वथ । तत्तद्देवेष्वाहितानि, कालात् तमामत्तामगुः ॥३६ ॥ युग्मम् ॥ यदा-अमृतानि यथाब्दस्य, तडागादिषु पाततः । तज्जन्मानि जनाः प्राहु, लामान्येवं तथाईतः ॥ ३७॥ लोकाग्रमधिरूढस्य, निलीनानि हरादिषु । ते सत्कानि गीयन्ते, लोकैः प्रायो पहिर्मुखैः ॥ ३८॥ युग्मम् ॥ किश्च तान्येव नामानि, विद्धि योगीन्द्रवल्लभम् । यानि लोकोचरं सच्चं, ख्यापयन्ति प्रमाणतः॥ ३९ ॥ संज्ञा रजस्तमःसच्चा-भासोत्था अतिकोटयः । अनन्ते मववासेऽस्मिन् , मादृशामपि जज्ञिरे ॥४॥ अपि नाम सहस्रेण, मूढो हृष्टः स्वदैवते । बदरेणापि हि भवेत, श्रमालस्य महो महान् ॥ ११ ॥ सिद्धानन्तगुणत्वेना-ऽनन्तनाम्नो जिनेशितुः । निर्गुणत्वादनाम्बो वा, नामसंख्यां करोतु कः ॥ ४२ ॥ रजस्तमोबहिःसचा-ऽतीतस्य परमेष्ठिनः । प्रभावेण तमःपड़े, विश्वमेतत्र मजति ॥ ४३ ॥ मन्येऽत्र लोकनाथेन, लोकायं गच्छतार्हता । मुक्तं पापाजगत्त्रातुं, पुण्य(ण्यं)वल्लभमप्यहो।॥४४॥ पापं नष्टं भवारण्ये, समितिप्रयतात् प्रभोः । तद्ध्वंसाय ततः पुण्यं, सर्व सैन्यमिवान्वगात् ॥४५॥ . १ ०स्वःसुरेऽश्वरः ग० हि०, स्वःशिवेश्वरः सा घ० । AA% ॥१८॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कार माहात्म्ये ॥ १९ ॥ पुण्यपापविनिर्मुक्तः, तेनासौ भगवान् जिनः । लोकाग्रं सौधमारूढो, रमते मुक्तिकान्तया ॥ ४६ ॥ जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिनः सर्वमिदं जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥ ४७ ॥ इति ध्यानरसा वेशात्, तन्मयीभावमीयुषः । परत्रेह च निर्विघ्नं वृणुते सकलाः श्रियः ॥ ४८ ॥ इति सप्तमः प्रकाशः समाप्तः । अष्टमः प्रकाशः । अर्हतामपि मान्यानां परिक्षीणाष्टकर्मणाम् । सन्तः पश्चदशभिदां, सिद्धानां न स्मरन्ति के १ ॥ १ ॥ निरञ्जनाविदानन्द-रूपा रूपादिवर्जिताः । स्वभावप्राप्तलोकाग्राः, सिद्धानन्त चतुष्टयाः ॥ २ ॥ साद्यनन्तस्थितिजुषो गुणैकत्रिशताऽन्विताः । परमेशाः परात्मानः, सिद्धा मे शरणं सदा ॥ ३ ॥ शरण मे गणधराः, षट्त्रंशद्गुणेभूषिताः । सर्वसूत्रोपदेष्टारो, वाचकाः शरणं ममः ॥ ४ ॥ लीना दशविधे धर्मे, सदा सामायिके स्थिराः । रत्नत्रयवरा वीराः, शरण मे सुसाधवः ॥ ५ ॥ भवस्थितिध्वंसकृतां, शम्भूनामिव नान्तरम् । सूरिवाचकसाधूनां ततो दृष्टमागमे ॥ ६ ॥ धर्मो मे केवलज्ञान -प्रणीतः शरणं परम् । चराचरस्य जगतो, य आधारः प्रकीर्त्तितः ॥ ज्ञानदर्शनचारित्र - त्रयीत्रिपथगोर्मिभिः । भुवनत्रयपाविश्य करो धर्मो हिमालयः ॥ ८ ॥ १ मेऽस्तु सा० ख० ग० हि० । ७ ॥ अष्टमः प्रकाशः । ।। १९ ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः प्रकाशः। नमस्कारमाहात्म्ये / // 20 // SONA%E% नानादृष्टान्तहेतूक्ति-विचारभरवन्धुरे / स्याद्वादतवे लीनोऽहं, भग्नैकान्तमतस्थितौ // 9 // नवतत्वसुधाकुण्ड-गर्भो गाम्मीर्यमन्दिरम् / अयं सर्वज्ञसिद्धान्तः, पातालं प्रतिमाति मे // 10 // सर्वज्योतिष्मतां मान्यो, मध्यस्थपदमाश्रितः। रत्नाकरावृतोऽनन्ता-ऽऽलोकः श्रीमान् जिनागमः / / 11 // स्थानं सुमनसामेकं स्थास्नुर्लोकद्वयोरपि / विनिद्रशाश्वतज्योतिः, भाति गौः परमेष्ठिनः / / 12 // . श्रीधर्मभूमीवरराजधानी, दुष्कर्म-पाथोज-वनी-हिमानी ! - सन्देहसन्दोहलताकपाणी, श्रेयांसि पुष्णातु जिनेन्द्रवाणी // 13 // एवं नमस्कृतिध्यान-सिन्धुममान्तरात्मनः / आममृत्कुम्भवत् सर्व-कर्मग्रन्थिविलीयेते // 14 // श्रीहीधृतिकीचिंबुद्धि-लक्ष्मीलीलाप्रकाशक: जीयात् पञ्चनमस्कारः, स्वःसाम्राज्यशिवप्रदः // 15 // सिद्धसेनसरस्वत्या, सरस्वत्यापगातटे / श्रीसिद्धचक्रमाहात्म्य, गीतं श्रीसिद्धपत्तने // 16 // इति श्रीसिद्धसेनाचार्यविरचिते श्रीनमस्कारमाहात्म्येऽष्टमः प्रकाशः समाप्तः / योपरि क० ग० घ० हि। // 20 // %