Book Title: Jinsutra Lecture 56 Chaudah Gunsthan
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां प्रवचन चौदह गुणस्थान 2010_03 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ofinAOCA पापा / HINDI जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।१४४।। मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदो पमत्त इयरो, अपुत्व अणियट्टि सुहुमो य।। उवसंत खीणमोहो, सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य / चोद्दस गुणट्ठाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायव्वा।।१४५।। ON 5025 / MAADHAN HAR 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के सूत्र महावीर की साधना-पद्धति में अत्यंत अयोगिकेवलीजिन, ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान ना विशिष्ट हैं। साधक की यात्रा में जैसा सूक्ष्म पड़ावों हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत होते हैं।' का विभाजन महावीर ने किया है, वैसा किसी और पहला स्थान है: मिथ्यात्व। जैसा है उसे वैसा न देखने को ने कभी नहीं किया। राह का पूरा नक्शा, रास्ते पर पड़नेवाले महावीर मिथ्यात्व कहते हैं। जैसा है उससे अन्यथा देखने को पडाव. मील के किनारे लगे पत्थर, सभी की ठीक-ठीक सचना | महावीर मिथ्यात्व कहते हैं। दी है। जैसा है उसे देखने में एक ही बाधा है-हमारा अहंकार। सत्य यह तभी संभव है, जब कोई गुजरा हो, पहुंचा हो। यह केवल को देखना हो तो अपनी सारी अस्मिता को एक तरफ हटाकर रख विचार कर लेने से, दार्शनिक चिंतन से संभव नहीं है। और फिर देना जरूरी है। अगर तुमने कहा कि मेरा सत्य ही सत्य होगा तो हजारों वर्षों में और जो लोग सिद्धत्व को उपलब्ध हुए, उन सबने तुम मिथ्यात्व में ही जीयोगे। भी गवाही दी है कि महावीर का वक्तव्य साधक से लेकर सिद्ध सत्य मेरा और तेरा नहीं है। सत्य तो बस सत्य है। की मंजिल तक अत्यंत सूक्ष्म रूप से सही है। विशेषण सत्य को मिथ्या कर जाते हैं। महावीर की भाषा में साधक चौदह गुणस्थानों से गुजरता है। अक्सर ऐसा होता है, जब तुम कहते हो कि जो मैं कह रहा हूं एक-एक गुणस्थान को ठीक से समझना आवश्यक है। कहीं न वही सत्य है तो तुम्हारा जोर सत्य पर नहीं होता। चूंकि तुम कह कहीं तुम भी खड़े होओगे इसी रास्ते पर। अपनी जगह ठीक से रहे हो इसलिए सत्य होना चाहिए। तुम्हारे कहने से थोड़ी ही कोई पहचान लो, तो कैसी यात्रा करनी, कहां से यात्रा करनी, किस बात सत्य होती है। सत्य से मेल खा जाए तो सत्य होती है। तरफ जाना—सुगम हो जाता है। तुम्हारे होने से सत्य नहीं होती। 'मोहनीय कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम / इसलिए जो व्यक्ति अपने मैं को उतारकर रख देगा और सत्य आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते के साथ जाने को राजी होगा, वही पहला कदम उठा पाता है। हैं, उनको सर्वदर्शी जिन ने गुण या गुणस्थान की संज्ञा दी है। अन्यथा लोग पहले कदम पर ही अटके रह जाते हैं। अधिक अर्थात सम्यकत्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएं, | लोग मिथ्यात्व में ही जीते हैं। श्रेणिया, भूमिकाएं गुणस्थान कहलाती हैं।' तुम्हें भी बहुत बार ऐसा मौका आ जाता होगा, जब तुम्हें थोड़ी 'मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यकदृष्टि, देशविरत, झलक भी मिलती है कि तुम जो कह रहे हो वह ठीक नहीं, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, लेकिन कैसे करें स्वीकार? बेइज्जती है, अपमान है, प्रतिष्ठा सूक्ष्मसाम्पराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, संयोगिकेवलीजिन, गिरती है। तो तुम जिद्द किए जाते हो। तुम झूठ को भी सच किए 507 ___ 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः - - जाते हो। | कि क्या मैं धूम्रपान करते समय प्रार्थना कर सकता हूं? उन्होंने आस्कर वाइल्ड ने कहा है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं। कहा, निश्चित। दुनिया दो विभागों में विभाजित है। एक वे लोग, जो कहते हैं 'धूम्रपान करते समय प्रार्थना कर सकता हूं?' कौन मना सत्य को हमारे साथ खड़ा होना होगा। हम जहां खड़े हों, सत्य | करेगा? लेकिन 'प्रार्थना करते समय धूम्रपान कर सकता हूं?' को वहां खड़ा होना होगा। ये मिथ्यात्व-दृष्टि लोग हैं। कौन हां भरेगा? पर बात जरा-सी फर्क की है, पर बड़े फर्क की दूसरे लोग, जो कहते हैं सत्य जहां होगा हम वहां खड़े हो है। जमीन-आसमान का फासला हो जाता है। जाएंगे। ये सम्यक-दृष्टि लोग हैं। जरा-सा ही फर्क है। शब्दों महावीर कहते हैं, सत्य के पक्ष में खड़े होना; सत्य को अपने को यहां-वहां रख दो। सत्य को मेरे साथ खड़ा होना होगा, या मैं पक्ष में खड़ा मत करना। तुम्हारे पक्ष में होने के कारण ही सत्य सत्य के साथ खड़ा होऊंगा। शब्दों में तो बड़ा थोड़ा फर्क है, असत्य हो जाता है। तुम असत्य हो। तुम्हारा जहर सत्य को भी लेकिन अस्तित्व में बड़ा गहरा फर्क हो जाता है। जहरीला कर देगा। तुम अपनी छाया सत्य पर मत डालना। तुम जमीन-आसमान जैसा फर्क हो जाता है। अपनी गंदगी सत्य पर मत डालना। तुम सत्य के साथ हो लेना जोशुआ लियेमेन ने लिखा है कि जब वह युवा था और अपने लेकिन सत्य को अपने पीछे चलने की जबर्दस्ती मत करना। गुरु के आश्रम में था तो रोज दो घंटे के लिए आश्रम के बगीचे में वहां हिंसा हो जाती है। जब तुम सत्य को अपने पीछे घसीटते घूमने और ध्यान करने का समय मिलता था। घूमने और प्रार्थना हो, सत्य मर जाता है। सत्य जीता है स्वतंत्रता में। करने का समय मिलता था। खुली प्रकृति में प्रार्थना के पंख तो तुम भूलकर भी यह चेष्टा मत करना कि मैं जो कहूं वह लगाकर उड़ने के लिए सुविधा मिलती थी। एक और युवक सत्य हो। तुम यह चेष्टा जरूर करना कि जो सत्य हो वही मैं उसका मित्र था, वे दोनों साथ ही साथ घूमते थे। दोनों को कहूं। अंतर जरा-सा है; अंतर बहुत बड़ा भी है। हम सबके मन | सिगरेट पीने की लत थी, लेकिन संकोच होता था, कि गुरु से में यह दंभ होता ही है कि जो मैं कहता हूं वह सत्य होना ही पछे बिना आश्रम में धम्रपान कैसे करें। तो उन्होंने कहा, पछ ही चाहिए। मैंने कहा। क्यों न लें? और गुरु इतना सरल है, इतना सीधा है कि शायद मैंने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर में दो गुल्लक रखे हुए ही इनकार करे। | है। मैंने पूछा यह किसलिए? तो वह कहता है कि मैं एक में | उन्होंने पूछा। दूसरे दिन लियेमेन जब पहंचा तो उसने देखा, असली सिक्के डालता है, दूसरे में नकली सिक्के। हर साल | | उसका साथी धूम्रपान कर रहा है। वह बहुत हैरान हुआ। उसने खोलता हूं। तो मैंने कहा, अब की बार तुम जब खोलो तो मैं कहा, क्या तुमने पूछा नहीं? मैंने तो पूछा, लेकिन मेरे पूछते ही मौजूद रहूंगा। उसने खोला, गुल्लक तोड़े, तो सब सिक्के हीं। तुमने मालूम होता है पछा नहीं, या जिसमें वह नकली सिक्के डालता, उसी गल्लक में निकले। कि पूछकर भी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो? उस युवक ने असली सिक्केवाला गुल्लक तो खाली निकला। मैंने कहा, कहा, आश्चर्य! मैंने तो पूछा और उन्होंने कहा कि बिलकुल मामला क्या है? क्या सभी सिक्के नकली हैं? उसने कहा कि ठीक है, पीयो। जो हमने नहीं ढाला वह असली कैसे हो सकता है? अगर ये ही लियेमेन ने कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि हम दोनों को | सिक्के मैंने ढाले होते अपने घर में, तो सब असली गुल्लक में इतने विपरीत उत्तर क्यों दिए गए? उस दूसरे युवक ने कहा, होते। दूसरों के ढाले सिक्के असली हो कैसे सकते हैं? सब पहले यह कहो, तुमने पूछा क्या था? लियेमेन ने कहा, मैंने पूछा नकली हैं। था कि क्या मैं प्रार्थना करते समय धूम्रपान कर सकता हूं? दूसरे जो कहते हैं, दूसरों के कहने के कारण ही तुम कहने उन्होंने कहा, नहीं, कभी नहीं। और लियेमेन ने पूछा उस युवक लगते हो असत्य। तुम जो कहते हो, तुम्हारे कहने के कारण ही से, तुमने क्या पूछा था? कहने लगते हो सत्य। उस युवक ने कहा कि बस, बात साफ हो गई। मैंने पूछा था | सत्य की यह पूजा न हुई। सत्य का तो यह बहुत अपमान 508 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गणस्थान KA हुआ। सत्य तुमसे बड़ा है। तुम सत्य से बड़े होने की चेष्टा दूसरी सीढ़ी पर कदम केवल उन्हीं का बढ़ता है, जो अपने मैं को करोगे, मिथ्यात्व होगा। | सत्य और असत्य का निर्णायक सूत्र नहीं बनाते। जो कहते हैं, मैं इसलिए महावीर कहते हैं, साधक का पहला कदम और पहला | निर्णायक नहीं हूं। पड़ाव, जहां हम सब हैं, यहां से शुरू होता है। यात्रा शुरू भी हो सत्य है तो है। चाहे मेरा दुश्मन ही घोषणा कर रहा हो। सत्य सकती है, ना भी हो। अगर हम यही जोर दिए चले जाएं कि मेरे | है तो है। और चाहे मैं ही घोषणा करूं. अगर असत्य है तो पक्षपात सही हैं, मेरी धारणाएं सही हैं, मेरे शास्त्र सही हैं, मेरे असत्य है। मेरी घोषणा से असत्य सत्य नहीं होता। तीर्थंकर सही हैं, मेरे अवतार सही हैं, मेरे गुरु सही हैं; और | पहला गुणस्थान : मिथ्यात्व। यहां सारा संसार इसी गुणस्थान सबके भीतर कारण केवल इतना ही है कि वे मेरे हैं, इसलिए सही | में जीता है। हैं। और तो कोई कारण नहीं है। इसलिए तो छोटी-छोटी बात पर विवाद हो जाता है। क्षुद्र / तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम कहते हो, जैन धर्म सही है। तुम बातों पर विवाद हो जाता है। तुम कभी देखते हो? निरीक्षण अगर हिंदू घर में पैदा होते तो यही तुम हिंदू धर्म के संबंध में करते हो? कैसी छोटी बातों पर लड़ उठते हो! पति-पत्नी हैं, कहते। तुम अगर मुसलमान घर में पैदा होते तो यही तम इस्लाम भाई-भाई हैं, बाप-बेटे हैं, मित्र-मित्र हैं, जरा-जरा सी बात पर के संबंध में कहते। कलह हो जाती है। तो न तो तुम्हें इस्लाम से कुछ मतलब है, न जैन से, न हिंदू से। कलह का कारण? कारण बताने जैसा भी नहीं लगता। अगर तुम जहां पैदा हुए वहीं सत्य को भी पैदा होना चाहिए। जैसे कोई पूछे पति-पत्नी से लड़ते वक्त, कि कारण क्या है? तो वे तुम्हारे होने में सत्य का कोई ठेका है! भी संकोच करते हैं कि कारण कुछ भी नहीं है। मगर होना तो तुम्हें बचपन से कुरान पढ़ाई गई, तुमने कुरान को अपना मान चाहिए कलह चल रही है। लिया तो कुरान सत्य है। गीता पढ़ाई गई तो गीता सत्य है। कारण बड़े छोटे हैं, लेकिन कारणों के पीछे छिपा हुआ बड़ा लेकिन सत्य इतना सस्ता तो नहीं। सत्य को तो खोजना पड़ता अहंकार है। छोटे कारण, और बड़ा अहंकार पीछे छिपा हुआ है। ऐसे मुफ्त तो मिलता नहीं। सत्य संस्कार से नहीं मिलता, न है। पत्नी कहती है, जो मैंने कहा वही सत्य है, वैसा ही होना समाज से मिलता है। समाज से तो पक्षपात मिलते हैं, पूर्वाग्रह चाहिए; अन्यथा हो ही नहीं सकता। पति कहता है, जो मैंने कहा | मिलते हैं, मुर्दा धारणाएं मिलती हैं, थोथे शब्द मिलते हैं, उधार, वही सत्य है। वैसा ही होना चाहिए। बासे सिद्धांत मिलते हैं। लेकिन तुम्हारे अहंकार के आभूषण बन और दोनों सोचते हैं कि सत्य के लिए आग्रह कर रहे हैं। दोनों जाते हैं वही। सोचते हैं सत्याग्रह कर रहे हैं। लेकिन आग्रह मात्र असत्य का जब हिंदू कहता है कि हिंदू धर्म सही, तो वह यह कह रहा है मैं होता है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। इसलिए सत्याग्रह सही। मेरे कारण हिंदू धर्म सही। जब तुम कहते हो, भारतभूमि बिलकुल थोथा शब्द है। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता, पवित्र भूमि, पुण्य भूमि; तो तुम क्या कह रहे हो? इतना ही कह निवेदन होता है। आग्रह तो अहंकार का होता है। दावा तो रहे हो कि तुम जैसे पवित्र महापुरुष भारत में पैदा हुए तो भारत अहंकार का होता है। पवित्र होना ही चाहिए। और क्या कह रहे हो? तुम पोलैंड में हम सत्य के नाम पर अपने अहंकार का साम्राज्य फैलाते हैं। पैदा होते कि चीन में, तो तुम यही वहां भी कहते। तुम यही कहते बाप बेटे से कहता है, कि ऐसा ही है। और अगर बेटा पूछे कि पोलैंड पवित्र भमि है। स्वर्ग अगर कहीं है तो बस यहीं है। क्यों? तो कहता है, उलटकर जवाब मत दो। मैं बाप हं। मैं आदमी का अहंकार ऐसा है कि वह जिस चीज से अपने अहंकार जानता हूं। जिंदगी ऐसे ही धूप में नहीं पकाई है। ये बाल अनुभव को जुड़ा हुआ पाता है उसी की गुण-गरिमा गाने लगता है। से सफेद हुए हैं। जब तुम भी बड़े होओगे, तब जानोगे। तुम्हारे तो महावीर कहते हैं, अगर तुम यही करते रहे तो मिथ्या-दृष्टि बाप ने भी तुमसे कहा होगा। तुम बड़े हो गए, जाना कुछ? बड़े ही बने रहोगे। तुम पहली सीढ़ी पर ही अटके रह जाओगे। होकर इतना ही पता चला कि न बाप को पता था, न तुमको पता 50g ___ 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRESS जिन सूत्र भाग : 24 HIMIRMIRRAIMIMITRA है। लेकिन यही तुम अपने बेटे से कह रहे हो कि बड़े हो जाओगे गिरेंगे। ये कुत्तों में भगवान नहीं है? कुत्ते यानी कुलपति बंगलोर तब जानोगे। के! इनमें भगवान नहीं है ? क्या जान लिया बड़े होकर? कौन-सा सत्य, कौन-सी संपदा यह उत्तर न हुआ। कुलपति ज्यादा साधु-चरित्र मालूम होते हाथ लगी? लेकिन बाप का अहंकार कैसे मान ले कि बेटा भी हैं। सीधा-सा निवेदन किया है कि आप जो चमत्कार करते हैं, ये ठीक कह सकता है? पति का अहंकार कैसे मान ले कि पत्नी चमत्कार हैं या केवल मदारीगिरी है? इसे हम जानने के लिए ठीक कह सकती है? पत्नी का अहंकार कैसे मान ले कि पति आपके निकट आना चाहते हैं। और आपसे प्रार्थना करते हैं कि ठीक कह सकता है? | आप हमें सत्य को खोजने में सहयोगी बनें। अहंकारों का संघर्ष है। सत्यों का कोई संघर्ष नहीं है। तो | इसमें कोई कुत्ता भौंका नहीं किसी पर। सत्य के खोजी को दुनिया में जो इतना धर्मों का विवाद है, शास्त्रार्थ है, यह सब तत्क्षण स्वीकार करना चाहिए। अगर सत्य है अहंकारों का शास्त्रार्थ है, इससे धर्म का कोई लेना-देना नहीं। अगर कुलपति और उनके आठ-दस मित्र आकर सत्य साईंबाबा धर्म तो विनम्र आदमी की खोज है, जो कहता है मुझे पता नहीं। के चमत्कार देखने को उत्सुक हुए हैं, शुभ है। हर्ज कहां है? पता ही होता तो मैं खोजता क्या? खोजने को क्या था? मुझे लेकिन हर्ज मालूम होगा क्योंकि न्यस्त स्वार्थ है, वेस्टेड इंटरेस्ट पता नहीं। अज्ञानी हं। खोज पर निकला हं। टटोलता हूं। कोई है। वह चमत्कार इत्यादि कुछ भी नहीं है, मदारीगिरी है। और भी बता दे कि सत्य क्या है, तो सुनूंगा, समझूगा, सदभाव से मदारीगिरी भी अति साधारण कोटि की है। सड़क पर चलते ग्रहण करूंगा, जांचूंगा, परलूँगा। शायद हो, शायद न हो। मदारी जो करते हैं वैसी है। कोई भी मदारी कर सकता है, कोई अनुभव तय करेगा कि क्या है। भी व्यवसायी जादूगर कर सकता है: वैसी है। लेकिन उसी में सत्य का खोजी विवादी नहीं होता। सत्यार्थी संवादी होता है, / सारा लाभ है, उसी में सारी प्रतिष्ठा है। विवादी नहीं। अगर एक बार यह सिद्ध हो गया कि यह राख शून्य से नहीं महावीर कहते हैं, पहला गणस्थान: मिथ्यात्व। जैसा है उसे | उतरती। कहीं शरीर के किसी हिस्से में छिपी रहती है, वहां से वैसा न देखना। जैसा है वैसा दिखाई भी पड़े तो भी पर्दे डाल उतरती है। एक बार यह सिद्ध हो गया कि ये स्विस घड़ियां जो रखना। जैसा है वैसा अनुभव में भी आने लगे तो अनुभव को भी प्रगट होती हैं, स्विजरलैंड से नहीं आतीं, स्मगलरों से खरीदी झुठलाना। न्यस्त स्वार्थ हैं हमारे। तुम अगर न्यस्त स्वार्थों की जाती हैं। एक बार यह सिद्ध हो गया तो सत्य साईंबाबा की कोई ओट से ही देख रहे हो तो फिर बड़ी अड़चन है। | स्थिति नहीं रह जाती। उसी पर तो सारा बल है। तो नाराजगी सत्य साईंबाबा ने कल बंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति पैदा होती है। और उनकी कमेटी को जो उत्तर दिया, उसमें उन्होंने कहा, कि | अन्यथा निमंत्रण शुभ था। स्वीकार कर लेना था। धन्यवाद कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे गिर नहीं जाते। अब थोड़ा सोचने | देना था कि उत्सुक हुए, चलो अच्छा है। विश्वविद्यालय भी धर्म जैसा जरूरी है कि कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे आकर ऐसा में उत्सुक होते हैं तो बहुत अच्छा है। सुशिक्षित, सुसंस्कृत लोग कहते भी नहीं कि भौंकते रहो, हम गिरेंगे नहीं। इतना कह दिया | धर्म की तरफ खोज करने निकलते हैं, बहुत अच्छा है। आओ, तो चांद-तारे भौंक गए। इतना कह दिया तो चांद-तारे गिर गए। | समझो। खोजें। फिर तय कौन करे कि चांद-तारे कौन हैं और कत्ते कौन हैं? | सत्य का खोजी तो सहयोग देगा। लेकिन सत्य की यह खोज सत्य साईंबाबा का यह वक्तव्य थोथे अहंकार का वक्तव्य है। | नहीं है। सत्य साईंबाबा का वक्तव्य असत्य साईंबाबा का एक तरफ चिल्लाए चले जाते हैं कि सभी के भीतर ब्रह्म का वास वक्तव्य है। यह इसमें सत्यता बिलकुल नहीं है। और फिर इसमें है। एक तरफ कहे चले जाते हैं कि सभी के भीतर भगवत्ता छिपा क्रोध है, गाली-गलौज है। कुत्ते...! यह बात ही बेहूदी विराजमान है। और जहां चोट अहंकार पर पड़नी शुरू होती है हो गई। अपने वक्तव्य में उन्होंने इसी तरह की बातें कही हैं, जो वहां तत्क्षण कहने लगते हैं कि कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे नहीं सब गाली-गलौज हैं-कि चींटी समुद्र की थाह लेने चली है। 5101 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान कौन समुद्र है, कौन चींटी है? ज्ञानी तो कहते हैं, चींटी भी समुद्र है। दो कौड़ी के न रह जाएंगे। कुत्ते भी भौंकेंगे नहीं फिर। रास्ते है। क्योंकि ज्ञानी तो कहते हैं, बूंद में भी सागर छिपा है। लेकिन से निकल जाएंगे देखते कि कोई कुत्ता भौंके तो! लेकिन कुत्ते भी निर्णय कौन कर रहा है कि कौन चींटी और कौन समुद्र है? चलो | इधर-उधर मुंह कर लेंगे। कोई चींटी थाह लेने न आएगी। तो चींटी ही सही, समुद्र की थाह लेने चली तो साथ दो। बाधा क्या भय है। खड़ी करनी? सीढ़ियां लगाओ, नाव तैराओ। चींटी कम से मिथ्यात्व हम सबके भीतर संभव है। जहां भी अहंकार जुड़ा कम इतनी आकांक्षा से भरी यही बहत है। कि मिथ्यात्व संभव है। महावीर कहते हैं, मिथ्यात्व हमारी लेकिन समुद्र इतना भयभीत क्यों है? चींटी थाह लेने चली | सामान्य स्थिति है। जिसको हम अज्ञानी कहते हैं उसी को इससे समद्र डर क्यों रहा है? डर यही होगा कि चींटी थाह ले महावीर मिथ्यात्वी कहते हैं। सकती है। समुद्र बड़ा छिछला मालूम होता है। शायद समुद्र हो दूसरा चरण : जिस व्यक्ति ने मिथ्यात्व से थोड़ी ऊपर आंख ही न, केवल धोखा है। तो क्रोध उपजता है। उठाई, ठीक-ठीक श्रद्धान किया, यथार्थ धर्म में रुचि ली, अधर्म | मिथ्यात्व दृष्टि से भरा हआ आदमी, विवाद को तत्पर, लड़ने में अरुचि की। मिथ्यात्व से भरा व्यक्ति धर्म में अरुचि प्रगट को उत्सुक, क्रोध सहज, अभिशाप देने को तैयार। करता है, अधर्म में रुचि लेता है। हालांकि वह बहाने कई ये सत्य साईंबाबा कहते हैं कि शिरडी के साईंबाबा के अवतार खोजता है, तर्क कई खोजता है। ना तो नहीं चाहिए, दर्वासा मनि के होंगे। अवतार तो रामकष्ण ने कहा है कि एक आदमी काली का बड़ा भक्त था जरूर किसी के होंगे, क्योंकि यहां सभी अवतार हैं। लेकिन इनमें | और महीने-पंद्रह दिन में काली के द्वार में जाकर बकरे कटवा कौन कुत्ता है, कौन चींटी है, कौन सागर, कौन चांद-तारा है? देता था। फिर अचानक उसने पूजा बंद कर दी। तो रामकृष्ण ने हर एक सोच लेता है अपने को ही कि चांद-तारा है, बाकी सब उससे पूछा, क्या हुआ भक्ति का? तुम तो बड़े भक्त थे और कुत्ते हैं। बड़े बकरे कटवाते थे। उसने कहा, अब दांत ही न रहे। इसको भौंकने की तरह क्यों लिया? यह जरूरी तो नहीं है कि कोई काली के लिए थोड़े ही बकरे कटवाता है! काली तो बंगलोर का विश्वविद्यालय सत्य साईंबाबा को उखाडने के लिए बहाना है। उस आदमी के दांत गिर गए, खराब हो गए और दांत उत्सुक हो। और अगर सत्य है तो उखड़ेगा कैसे? सत्य है तो निकलवाने पड़े। तो अब मांसाहार करने की सुविधा न रही। तो प्रगट होगा। स्वीकार करो। बस पूजा-पत्री बंद! तम्हारी घबडाहट ही तम्हें असत्य किए दे रही है। बचाव क्या | खयाल करना, तुम जब मंदिर में पूजा करने बेठे हो तो पूजा कर करना है? उघाड़ दो। नग्न खड़े होकर चमत्कार दिखा दो। एक रहे हो या पूजा के बहाने कुछ और कर रहे हो? तुम अगर बार तय हो जाए तो लाभ ही होगा। साधु-सत्संग में भी गए हो तो सत्य की खोज में गए हो कि वहां एक तरफ सत्य साईबाबा कहते हैं कि मैं सत्य की सेवा करना भी संसार का ही कछ खोजने पहंच गए हो? तम अक्सर तो चाहता हूं। धर्म में लोगों की श्रद्धा बढ़ाना चाहता हूं। लेकिन पाओगे कि तुम्हारी रुचि धर्म में नहीं है, अधर्म में है। अधर्म से इससे और शुभ अवसर क्या मिलेगा कि लोग खुद कहते हैं कि मतलब है। जिससे तुम सत्य तक न पहुंचो और भटक जाओ। हम प्रमाण खोजने आते हैं। प्रमाणित करो। सिद्ध हो जाएगा कि | धर्म से अर्थ है जिससे तुम सत्य तक पहुंच जाओ। चमत्कार सच्चे हैं, झूठे नहीं हैं तो बड़ी श्रद्धा बढ़ेगी। ये बंगलोर चमत्कारी व्यक्ति के पास लोग इकट्ठे हो जाते हैं क्योंकि विश्वविद्यालय के कुलपति और उनकी कमेटी के लोग, ये भी चमत्कारी व्यक्ति के पास आशा बंधती है कि शायद मुकदमा तुम्हारे भक्त हो जाएंगे। इनसे इतने घबड़ा क्या गए हो? जीत जाएं, शायद जिस स्त्री को भगाने का सोच रहे हों, उसमें लेकिन असत्य में आग्रह होता है क्योंकि असत्य में न्यस्त | सफलता मिल जाए, शायद लाटरी खुल जाए, शायद स्वार्थ होते हैं। अगर यह बात खुल जाए, अगर यह पोल खल जाए, इलेक्शन जीत जाएं, प्रधानमंत्री हो जाएं। जाए तो सत्य साईंबाबा का सारा का सारा व्यक्तित्व गिर जाता / इसलिए दिल्ली में जितने राजनेता हैं, सबको सत्य साईंबाबा 51 2010_03 . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः 2 के भक्त पाओगे। जैसे ही कोई राजनेता पद से उतरता है कि अदालत जाना है, कि दफ्तर जाना है; कि संसार की याद आ तत्क्षण सत्संग में लग जाता है। तत्क्षण गुरुओं की खोज में गई। कई बार तो तुम घड़ी किसी कारण से भी नहीं देखते, सिर्फ निकल पड़ता है। फिर इलेक्शन जीतना, फिर चुनाव लड़ना। पुरानी देखने की आदत से देखते हो। कितना समय हो गया। फिर किसी का आशीर्वाद चाहिए। यह रुचि धर्म की रुचि नहीं | कितना समय खो गया। इतनी देर संसार में कुछ कर लेते। इतनी है। यह रुचि मौलिक रूप से अधार्मिक हैं। देर गंवा दी। महावीर कहते हैं इससे उठो, तो पहला कदम उठा। | एक लहर मन में आ गई। यह भी स्वाभाविक है। दूसरा चरण, दूसरा गुणस्थान है : सासादन। | छूटते-छूटते चीजें छूटती हैं। छोड़ते-छोड़ते घटना घटती है। महावीर कहते हैं इतनी जल्दी, एकदम से न उठ जाओगे। बार-बार पुरानी आदतें पकड़ती हैं। पुराने राग, पुराने रंग, पुरानी उठते-उठते उठोगे। बहुत बार तो निकल आओगे इसके बाहर, स्मृतियां, पुराने सुख फिर-फिर आह्वान देते हैं, फिर-फिर बुलाते और फिर-फिर खींचने का मन हो जाएगा। फिर-फिर परानी हैं, फिर-फिर निमंत्रण भेजते हैं। आदतें वापस बुला लेंगी। सासादन दूसरा गुणस्थान है। जो हममें से मिथ्यात्व से ऊपर सासादन का अर्थ होता है, जो व्यक्ति मिथ्यात्व के बाहर उठने की चेष्टा में लगते हैं उनकी दशा सासादन की है। पहले से निकलने की चेष्टा में संलग्न है लेकिन पुरानी आदतों के कारण, | बेहतर। कम से कम चलो बाहर से ही सही, छोड़ा तो! बाहर से पुराने कर्मोदय के कारण वापस खींच लिया जाता है। फिर-फिर | छोड़ा तो भीतर से भी छूटेगा। इतना होश तो आया कि अब पुराने राग में रस आने लगता है। क्षणभर को भी सही, बार-बार अहंकार का आग्रह न रखेंगे। लेकिन बेहोशी के क्षण आते हैं। फिर सोचने लगता है उन्हीं दिनों की बात; जब धन था, पद था, | उन बेहोशी के क्षणों का नाम सासादन है। प्रतिष्ठा थी। दिवास्वप्न देखने लगता है। तुमने तय कर लिया, अब क्रोध न करेंगे। और किसी आदमी सासादन का अर्थ है, व्यक्ति मिथ्यात्व के बाहर निकला तो: का पैर बाजार की भीड में तम्हारे पैर पर पड गया। उस एक क्षण लेकिन अभी मिथ्यात्व की सूक्ष्म तरंगें उठती हैं। फिर-फिर में तुम भूल ही गए कि तुमने तय कर लिया था अब क्रोध न मर्छा के क्षण में वापस संसार के सपने देखने लगता है। करेंगे। याद ही न आयी। क्रोध हो ही गया। या न भी हआ, उस मिथ्यात्व-अभिमुख हो जाता है, यद्यपि साक्षात मिथ्यात्व में आदमी से तुमने कुछ न भी कहा, तो भी तुम्हारे भीतर क्रोध प्रवेश नहीं करता। झलक गया। एक क्षण को भीतर लपट उठ गई। तो सासादन का अर्थ हुआ : सपने संसार के देखता है, यद्यपि | तो पहले मिथ्यात्व से मुक्त होना है, फिर सासादन के भी पार बाहर से संसार से अपने को रोक लिया है। जाना है। जैसे कोई आदमी घर छोड़कर त्यागी हो गया। मंदिर में बैठा तीसरी अवस्था है : मिश्र। सम्यकत्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित ध्यान कर रहा है, माला हाथ में है। और सब भूल गया मंदिर स्थिति। कुछ-कुछ सत्य की झलक बनने लगती है। कुछ-कुछ और माला, पत्नी की याद आ गई—तो सासादन। मिथ्यात्व से | सत्य का अवतरण होने लगता है और कुछ-कुछ अतीत संस्कारों विरत होने की चेष्टा की है। श्रम किया है, मंदिर तक चला आया के कारण असत्य का अंधेरा भी घिरा रहता है। है, माला हाथ में ले ली, प्रार्थना में लीन है, लेकिन क्षणभर को जैसे दीया जलाते हो, छोटा-सा टिमटिमाता दीया। एक कोने प्रार्थना खो गई, मंदिर खो गया, माला खो गई, पत्नी सामने खड़ी में रोशनी भी हो जाती है, बाकी कमरा अंधेरा भी बना रहता हो गई। किसी और को दिखाई न पड़ेगी यह स्थिति। यह प्रत्येक | है-मिश्र, खिचड़ी अवस्था। व्यक्ति को स्वयं ही निरीक्षण करनी होगी। बहुत बार सासादन | सम्यकत्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित अवस्था; दही और गुड़ के की घटना घटती है। | मिश्रित स्वाद जैसी। ऐसा जैन शास्त्र दृष्टांत लेते हैं-दही और यहां भी तुम मेरे पास बैठे हो, सुनते-सुनते अचानक घड़ी गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी। देखने लगते हो-सासादन! घड़ी देखी, मतलब कि कहीं | जो सासादन के पार जाता है उसकी मिश्र अवस्था बनती है। 512 Jan Education International 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान बहुत लोग मिश्र अवस्था में होते हैं। निन्यानबे प्रतिशत तो भी वैराग्य का जन्म नहीं हो रहा है। में जीते हैं. फिर बाकी तेरह गण-स्थान तो एक प्रतिशत कम से कम एक बात तो साफ है कि वे अपने को साफ देख पा के हैं। इनमें से भी बहुत-से सासादन में ही डोलते रहते रहे हैं; जो कि काफी बहुमूल्य है। दृष्टि तो साफ है। दृष्टि साफ हैं–त्रिशंकु की भांति। उनमें से कुछ मिश्र तक आते हैं। दोनों है तो आचार भी उसके पीछे-पीछे चला आएगा। दृष्टि ही साफ चीजें भीतर होती हैं। सीमारेखा भी साफ होती है, लेकिन दोनों न हो तो आचरण के जन्मने का उपाय ही नहीं। साथ-साथ होती हैं। धर्म-बोध भी होता है, अधर्म में रस भी लेकिन दृष्टि ही साफ किए मत बैठे रहना। क्योंकि जो अभी होता है। पता भी होता है कि क्या ठीक है, और फिर भी गलत के साफ है, कल धुंधली हो सकती है। अगर आचरण में न लाई गई बंधन नहीं छूटते। तो ज्यादा देर साफ न रहेगी। दृष्टि जब मिले तो तत्क्षण साहस महावीर बहुत वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ रहे हैं। वे तुम्हारे करके उसको आचरण में लाना क्योंकि दृष्टि के क्षण बड़े कम चित्त का एक-एक स्पष्ट विश्लेषण कर रहे हैं ताकि तुम पहचान हैं। कभी-कभी बिजली कौंध जाती है और रास्ता दिखाई पड़ता लो कहां तुम हो, और फिर किस तरफ जाना है। है। उस क्षण में चल पड़ना, ऐसे खड़े मत रह जाना। क्योंकि चौथा गुणस्थान है: अविरत सम्यकदृष्टि। साधक की चतुर्थ बिजली अभी कौंधी, सदा न कौंधेगी। कल कौंधेगी कि न भूमि; जिसमें बोध हो जाने पर भी भोगों अथवा हिंसा आदि पापों कौंधेगी क्या पता! जो पहली झलकें आती हैं, वे बिजली की के प्रति विरक्त भाव जाग्रत नहीं हो पाता। कौंध की तरह हैं, उन कौंध का उपयोग कर लेना। उपयोग करने बोध भी हो जाता है, एक दृष्टि भी मिल जाती है। ठीक-ठीक से बिजली और कौंधेगी। चल पड़े तो दृष्टि और निखरेगी। समझ में आ जाता है, क्या करने योग्य है, क्या न करने योग्य है, | करने से ही दृष्टि का निखार होता है। सिर्फ सोचते रहने से लेकिन अभी निर्णय नहीं होता। राग, लोभ, मोह, हिंसा, | धारणाएं साफ हो जाती हैं, लेकिन जीवन उलझा का उलझा रह अहंकार के प्रति अभी वैराग्य का जन्म नहीं होता। ऐसा नहीं | जाता है। होता कि अब छोड़ ही दें। दिखता है कि ठीक क्या है, लेकिन जो | दृष्टि के साफ होने का मामला ऐसा है कि तुम एक पाकशास्त्र दिखता है वह आचरण नहीं बन पाता। प्रतीति होती है. लिए बैठे हो और भखे हो। और पाकशास्त्र में सब लिखा है। साफ-साफ प्रतीति होती है कि सत्य बोलें। सत्य ही शुभ है। रत्ती-रत्ती ब्यौरा दिया है कैसे भोजन बनाना। भोजन की सामग्री लेकिन असत्य का पूर्ण त्याग कर दें, इतना साहस नहीं जुट भी मौजूद है। आटा मौजूद है, पानी मौजूद है, नमक मौजूद है, पाता। यह जानना कि क्या सत्य है, एक बात है; और सत्यमय चूल्हा जला हुआ है। तुम पाकशास्त्र लिए बैठे हो। इससे भूख हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। यह पहचान लेना कि ठीक मिटेगी नहीं। इससे कुछ हल न होगा। रास्ता कौन-सा है एक बात है, फिर उस पर चल पड़ना बिलकुल बहुत लोग शास्त्र लिए बैठे हैं। शास्त्र की चर्चा में लीन हैं। दूसरी बात है। जनम-जनम गंवाते हैं लेकिन कभी उसका उपयोग नहीं करते। अविरत सम्यकदृष्टि का अर्थ है: जो खड़ा हो गया। पुराने | भूखे के भूखे रह जाते हैं। फिर भूख भी नहीं मिटती, तो रास्ते पर जा भी नहीं रहा है, नए का दर्शन भी होने लगा है लेकिन धीरे-धीरे भूख विस्मृत होने लगती है। ठिठका खड़ा है। नए पर जा नहीं पाता क्योंकि नए पर जाना हो यह काफी मूल्यवान है। इस सूचन को खयाल में रखना। तो पुराने का परिपूर्ण त्याग चाहिए। तुम दोनों एक साथ नहीं | अगर तुम उपवास करो तो तीन-चार दिन के बाद भूख लगनी सम्हाल सकते। एक को छोड़ना होगा। बंद हो जाती है। तीन दिन सताती है। रोज-रोज तुम्हारे द्वार पर इसमें से तुम अपने भीतर बहुत बार ऐसा ही पाओगे। मेरे पास दस्तक देती है। तुम सुनते ही नहीं तो धीरे-धीरे शरीर राजी हो लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमें पता है कि क्रोध बुरा है। पता है | जाता है कि ठीक है, शायद तुमने आत्महत्या ही का तय कर कि कामवासना रोग है। पता है कि लोभ से कुछ न मिला, न लिया है, तो ठीक है। शरीर भी क्या करेगा? धीरे-धीरे, मिलेगा। पता है खाली हाथ आए हैं, खाली हाथ जाएंगे। फिर धीरे-धीरे भूख भूल जाती है। जो लोग लंबे उपवास करते हैं, ____ 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जिन सूत्र भागः2 - और भाव उनको एक अड़चन होती है उपवास तोड़ने में, अब कैसे भोजन देशविरत का अर्थ होता है, जिसने अपने जीवन में अब सीमा ग्रहण करें? क्योंकि शरीर भूल ही गया। बहुत देर तक भूखे बनानी शुरू की। जिसने अपने जीवन को परिधि देनी शुरू की। बैठे-बैठे, शास्त्र लिए-लिए भूख विस्मृत हो जाती है। जिसने अपने जीवन में जो व्यर्थ है उसे हटाना, जो सार्थक है उसे | बहत लोगों की परमात्मा की भूख मर गई है। इतने दिन लाना शुरू किया। जिसने कहा, अब मैं यूं ही ऊलजलूल, | परमात्मा से उपवास किया है, मर ही जाएगी। परमात्मा की भूख असंगत न जीयूंगा। कभी बायें गए, कभी दायें गए, कभी दक्षिण मर गई हो तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। ऐसे ही लोग कहते हैं | गए, कभी पूरब गए, कभी पश्चिम गए, ऐसे चल-चलकर कहीं कि परमात्मा मर गया। मरी है उनकी भख। लेकिन ठीक ही कोई पहंचेगा? सब दिशाओं में दौडते रहे तो विक्षिप्तता आएगी। कहते हैं। जिसकी भूख मर गई उसका भोजन भी मर गया। देशविरत का अर्थ होता है दिशा तय हुई, देश तय हुआ, सीमा भोजन तो तभी तक रसपूर्ण है जब तक भूख है। भूख में रस है बांधी, संयम में उतरे। अब जो करने योग्य है वही करेंगे, जो | भोजन का। भूख न लगी हो, सुस्वाद से सुस्वादु भोजन रखा रहे करने योग्य नहीं है, नहीं करेंगे। अब कर्तव्य में ही रस होगा, | | तो भी मन में कोई तरंग नहीं आती। अगर भूख बिलकुल मर गई अकर्तव्य में धीरे-धीरे विरसता को लाएंगे। सीमा दी जीवन को, | हो तो भोजन भोजन जैसा भी मालूम न पड़ेगा। भोजन भोजन | दिशा दी। और सारी ऊर्जा एक दिशा में डाली। के कारण। भख की व्याख्या है। अन्यथा जैसे शरीर, मन, वचन–तीनों असंयमी के सभी दिशाओं में भोजन भोजन जैसा न लगेगा। भागते रहते हैं। संयमी और असंयमी में इतना ही फर्क है कि परमात्मा नहीं मर गया है, अनेक लोगों की भूख मर गई है। असंयमी सभी दिशाओं में एक साथ भागता रहता है, इसलिए मरने का कारण यही है कि भूख को जिलाने के लिए भी | उथला रह जाता है। भोजन चाहिए। भूख भी भूखी रहे तो मर जाती है। जैसे कि किसी तालाब को तुम सभी दिशाओं में खोल दो, कुछ करो। जो दृष्टि मिले उसके अनुसार दो पग चलो। जो सभी दिशाओं में पानी बह जाए, तो जहां बड़ी गहराई थी और अनुभव में आए उसे थोड़ा आचरण में डालो। नीला जल दिखाई पड़ता था, वहां सब छिछला पानी हो जाएगा। जो तुम्हें दिखाई पड़े कि ठीक है, बस इसको मानकर सैद्धांतिक अगर बहुत फैल जाए तो कीचड़ ही रह जाएगी। तालाब तो खो रूप से मत बैठे रहो, अन्यथा ज्यादा देर दिखाई भी न पड़ेगा। ही जाएगा। फिर धुंध छा जाएगी। फिर मन धुएं से घिर जाएगा। थोड़े चलो। संयम का अर्थ है, संरक्षित ऊर्जा। महावीर का पारिभाषिक थोड़े आगे बढ़ो। जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट शब्द है-देशविरत। सीमा बनाई, देश बनाया। हर कहीं न दर्शन होंगे। | भागते रहे। अपने जीवन को संयत किया, संग्रहीत किया। तो महावीर कहते हैं अविरत सम्यकदृष्टि : चतुर्थ भूमि। इसमें अपनी ऊर्जा को एक जगह भरा तो गहराई आनी शुरू होती है। बोध तो हो जाता है, होने लगता है लेकिन भोगों और हिंसा आदि | | असंयमी आदमी छिछला होता है। आवाज बहुत करता है, पापों से विरति का भाव जाग्रत नहीं होता। जैसा छिछला जल करता है। जहां छिछली नदी होती है वहां पांचवां गुणस्थान H देशविरत। अब संयम का क्षेत्र शुरू | बड़ा शोरगुल मचता है। कंकड़-पत्थरों पर दौड़ती है, बड़ा हुआ। अब जो तुम्हें दिखाई पड़ता है उसे तुम आचरण में उतारने शोरगुल मचाती है। नदी जितनी गहरी होती है उतना ही शोरगुल लगे। बहुत ज्यादा जानने की जरूरत नहीं है। थोड़ा जानो, कम हो जाता है। गहरी नदी पता ही नहीं चलता कि बहती भी है लेकिन उस थोडे को उतारो। हजार मील लंबे शास्त्र का कोई कि नहीं बहती? गति बड़ी शांत हो जाती है। सार नहीं, इंचभर शास्त्र-लेकिन उतारो, चलो। चलने से रास्ते देशविरतः संयम, सीमा का बांधना, कर्म और विचार को | तय होते हैं। बैठे-बैठे सोचने से कोई रास्ते तय नहीं होते। परिधि देना। इसे तुम थोड़ा सोचना। विचार करनेवाले कहीं भी नहीं पहुंचते। अस्तित्वगत है पहुंचना, | तुम जो विचार करते हो उसमें से निन्यानबे प्रतिशत न करो तो विचारगत नहीं। बौद्धिक नहीं है, जीवनगत है। | चलेगा। उसमें से निन्यानबे प्रतिशत सिर्फ व्यर्थ है, शुद्ध कचरा 514 Jair Education International 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान है, कचरा मात्र। उसमें कुछ भी और नहीं है लेकिन तुम्हारी ऊर्जा गहरी लगाता है। ऐसे ही जल के ऊपर सतह पर नहीं तैरता तो व्यय होती ही है। रहता, डुबकी मारता है। गहरे में जाता है। सारी ऊर्जा एक ही मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी अपनी ऊर्जा का पंद्रह | दांव पर लगाता है। प्रतिशत से ज्यादा उपयोग ही नहीं कर पाता। पचासी प्रतिशत ऐसा ही ध्यानी भी–महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण, या पतंजलि ऐसे ही खो जाती है। जिनके जीवन में तुम्हें कुछ घटनाएं घटती गहरी डूब लेते हैं तो हीरे-मोती बीन लाते हैं। हमारे पास भी दिखाई पड़ती हैं, कोई आइंस्टीन, कोई फ्रायड, जो जीवन में बड़े उतनी ही ऊर्जा है। ऊर्जा की मात्रा में जरा भी फर्क नहीं। जितनी सत्यों की खोज कर लाते हैं—चाहे विज्ञान के, चाहे मन के, महावीर को मिली उतनी तुम्हें मिली है। प्रकृति सबको बराबर चाहे धर्म के; उनमें और तुममें फर्क क्या है? ऊर्जा सबको देती है, मगर सभी बराबर उपयोग नहीं करते। मतौल में मिली है, लेकिन तम ऊर्जा को ऐसे जीसस एक कहानी कहते थे। एक बाप के तीन बेटे थे। तीनों ही बहाते रहते हो। योग्य थे, बुद्धिशाली थे। और बाप तय न कर पाता था कि एक वैज्ञानिक अपनी ऊर्जा को संयमित कर लेता है। वह | किसको अपना उत्तराधिकारी बना जाए। बड़ा धन था, बड़ी सोचता तो अपनी ही विज्ञान की बात सोचता है। सपना भी जमीन थी, बड़ा वैभव था। बाप चिंतित था. किसको चने। देखता है तो अपने ही विज्ञान का सपना देखता है। फिर उसने एक उपाय खोजा। उसने एक बोरे भर फूलों के मैडम क्यूरी को नोबेल प्राइज मिली सपने के कारण। जो हल किया सूत्र, वह उसने सपने में किया। जाग्रत रूप से तो वह तीन / हूं। जो बीज मैं तुम्हें दे जा रहा हूं, सम्हालकर रखना। इन पर साल से हल कर रही थी, वह हल नहीं होता था। लेकिन बहुत कुछ निर्भर है। तुम्हारा भविष्य इन्हीं पर निर्भर है। इन्हीं के सोते-जागते एक ही उधेड़-बुन थी। बस जगत में एक ही काम माध्यम से मैं अपने उत्तराधिकारी को चुनगा। इसलिए किसी था : उस सत्र को हल करना। गणित का कोई सवाल था, जो | भूल-चूक में मत रहना। मैं लौटकर आऊंगा तो बीज वापस अटका रहा था तीन साल से। जिस रात हल हुआ, उस रात वह चाहिए। बाप चला गया। सोयी, सोचते-सोचते-सोचते-सोचते उसी प्रश्न के मनन में, पहले बेटे ने सोचा कि बड़ी झंझट है। बीज घर में रखें, चूहे मंथन में डूबी सो गई। लगता है सपने में हल हआ। नींद में खा जाएं, सड़ जाएं, बच्चे इधर-उधर फेंक दें। तो बेहतर यह है मालूम होता है, उठी। उत्तर उसे मिल गया तो जाकर वह टेबल कि बाजार में बेच देना चाहिए। पैसे पास में रख लेंगे पर लिख भी आयी। वापस सो गई आकर। सम्हालकर। जब बाप आएगा, फिर बीज खरीद लेंगे, दे देंगे। सुबह जब आंख खुली तो उसे याद भी न रहा। सपना याद न सीधी गणित की बात थी। रहा, उठना याद न रहा, लेकिन जब वह अपने टेबल पर गई तो दूसरे बेटे ने सोचा कि बाप ने कहा है बीज वापस लौटाना, तो चकित हुई। उत्तर लिखा था। हस्ताक्षर भी उसी के थे। कमरे में वह यही बीज चाहता होगा। कहीं बाजार में बेचें, दूसरे बीज फिर कोई दूसरा था भी नहीं। और दूसरा कोई होता भी तो भी हल नहीं | बाद में खरीदें और बाप कहे, ये तो वे बीज नहीं हैं। तो हम कर सकता था। मैडम क्यूरी नहीं कर पा रही थी तीन साल से। मुश्किल में पड़ जाएंगे। तो उसने तिजोड़ी में बंद करके ताला बंद तब उसे धीरे-धीरे याद आयी कि रात सपना...| सपने के फिर कर दिया। चाबी सम्हालकर रख ली कि जो दिए हैं, वही लौटा ब्यौरे का पता चला, फिर उसे स्मरण आया कि सपने में ही उसने देंगे। झंझट में पड़ना क्यों? देखा कि वह उठी भी थी। समझा था कि सपने का ही अंग है। तीसरे बेटे ने सोचा कि बीज बाजार में बेच दें तो वही बीज तो उठना भी। और टेबल पर लिखना भी सपने जैसा मालूम हुआ | होंगे नहीं, जो पिता दे गए। धोखा होगा। तिजोड़ी में बंद था। तब सारी बात साफ हो गई। | करना? पिता पता नहीं कब आएं-छह महीने, सालभर, दो वैज्ञानिक अपनी सारी ऊर्जा को एक ही दिशा में लगा देता है। साल। तिजोड़ी में बीज अगर सड़ गए तो राख रह जाएगी। तो तभी तो प्रकृति के गहन सत्यों को खोज के लाता है। डुबकी उसने सोचा बेहतर है, इन्हें बो दो। उसने बीज बो दिए। 515 2010_03 | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 | जब सालभर बाद पिता वापस लौटा तो पहले बेटे ने लाकर ऊर्जा को एक दांव पर लगाया। जिसकी ऊर्जा तीर बनी और बाजार से तत्क्षण बीज वापस लौटा दिए। लेकिन बाप ने कहा, लक्ष्य की तरफ जिसने अपनी प्रत्यंचा को साधा। देशविरतः ये वे बीज नहीं हैं, जो मैंने तुम्हें दिए थे। शर्त यही थी कि वही लक्ष्य दिया, दिशा दी, मर्यादा बांधी। जो व्यर्थ करता नहीं, व्यर्थ लौटाने हैं। दूसरा बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जल्दी से तिजोड़ी बोलता नहीं, व्यर्थ सोचता नहीं। जिसका सारा जीवन एक खोली। जिन बीजों से बड़े सुगंध वाले फूल पैदा होते थे वे सब संगति है। और प्रत्येक कदम दूसरे कदम से जुड़ा है। और सड़ गए थे। उनसे सिर्फ दुर्गंध आ रही थी। बाप ने कहा, मैंने जिसके जीवन में एक मर्यादा है। तुम्हें बीज दिए थे। ये तो बीज न रहे, राख हो गई। बीज का तो अगर नदी बनना हो तो किनारा चाहिए। तो सागर तक पहुंच अर्थ है, जिसमें पौधा पैदा हो सके। क्या इनमें पौधा पैदा हो सकोगे। अगर किनारे छोड़कर बहने लगे, मर्यादा टूट गई तो सकता है? और मैंने तुम्हें सुगंध की संभावना दी थी, और तुम सागर तक कभी न पहुंच सकोगे। किसी मरुस्थल में खो दुर्गंध लौटा रहे हो। मैंने तुम्हें जीते-जागते बीज दिए थे, तुम मुझे जाओगे। सागर तक पहुंचने के लिए नदी को किनारे में बंधे मुर्दा राख लौटा रहे हो? यह शर्त पूरी न हुई। रहना जरूरी है। तीसरे बेटे से पूछा। बाप बड़ा चिंतित भी हुआ कि क्या तीनों देशविरत का अर्थ है, किनारों में बंधा हुआ व्यक्तित्व। अयोग्य सिद्ध होंगे? तीसरे बेटे ने कहा, मैं मुश्किल में हूं। जो छठवां गुणस्थान है: प्रमत्तविरत। संयम के साथ-साथ मंद बीज आप दे गए थे वे मैंने बो दिए। उनकी जगह करोड़ गुने बीज रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। संयम तो आ गया, अनुशासन हो गए हैं। क्योंकि मैंने सोचा जितना पिता दे गए हैं, उतना भी | आ गया, लेकिन जन्मों-जन्मों तक जो हमने राग किया है, मोह क्या लौटाना! उतना ही लौटाना तो कोई योग्यता न होगी। किया है, लोभ किया है, उसकी मंद छाया रहती है। एकदम बाजार में मैं बेच न सका क्योंकि ये वे बीज दूसरे होंगे। दूसरे मेरे | चली नहीं जाती। हम उसके ऊपर उठ आते हैं, लेकिन हमारे भी बीज हैं लेकिन आप जो बीज दे गए थे, उनकी ही संतान हैं; अचेतन में दबी मंद छाया रहती है। हम ऊपर से क्रोध नहीं भी उन्हीं का सिलसिला है. उन्हीं की शंखला है। लेकिन जितने आप करते तो भी क्रोध की तरंगें भीतर अचेतन में उठती रहती हैं। हम दे गए थे, मैं उतने ही लौटाने में असमर्थ हूं क्योंकि मैंने कभी | लोभ नहीं भी करते। हम नियंत्रण कर लेते हैं, लेकिन भीतर गिनती नहीं की। करोड़ गुने हो गए हैं। आप सब ले लें। अचेतन लोभ के संदेश भेजता है। बाप पीछे गया भवन में। दूर-दूर तक फूल ही फूल खिले थे। कहते हैं भर्तृहरि ने सब राज्य छोड़ दिया, वे जंगल में जाकर बीज ही बीज भरे थे। बाप ने कहा, तुम जीत गए। तुम मेरे बैठ गए। बड़े अनूठे व्यक्ति थे। पहले लिखा शृंगार उत्तराधिकारी हो। क्योंकि वही बेटा योग्य है, जो संपदा को शतक-जीवन के भोग का काव्य। जीवन के भोग की जैसी पदा को जीवित रखे. जो संपदा को फैलाए जो स्तति हो सकती है वैसी भर्तहरि ने की। कोई और फिर कभी संपदा को और मूल्यवान करे। | उनके साथ मुकाबला न कर पाया। कोई और उन्हें पीछे न कर हम सभी को बराबर ऊर्जा मिली है, बराबर बीज मिले हैं। पाया। फिर लिखा वैराग्य शतक। पहले राग की स्तुति की, फिर कोई महावीर उसे खिला देता है, परमात्म-स्थिति उपलब्ध हो वैराग्य की स्तुति की। अक्सर ऐसा होता है, जो राग को ठीक से जाती है। कोई बुद्ध कमल बन जाता है। और हम ऐसे ही जीएगा, वह किसी न किसी दिन वैराग्य को उपलब्ध हो जाएगा। सिकड़े-सिकड़े या तो बाजार में बिक जाते हैं-अधिक तो हम जो शंगार शतक से ठीक से गुजरेगा, वह वैराग्य शतक को बाजार में बिक जाते हैं या तिजोडियों में सड़ जाते हैं। जो कर्मठ हैं उपलब्ध होगा। बहुत, वे बाजार में बिक जाते हैं, जो सुस्त, काहिल हैं वे भर्तृहरि ने सब छोड़ दिया, वे जंगल में बैठे-सब बड़ा तिजोड़ियों में सड़ जाते हैं। लेकिन जीवन की इस ऊर्जा का साम्राज्य, धन-वैभव, मणि-माणिक्य। अचानक आंख खुली, फैलाव हमसे नहीं हो पाता। दो घुड़सवार सामने की ही पगडंडी पर घोड़ों को दौड़ाते हुए महावीर कहते हैं : देशविरत का अर्थ है, जिसने अपनी सारी आए। आंख खुल गई। ध्यान में बैठ थे, ध्यान टूट गया। देखा, 516 Jal Education International 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान ONARRATE सामने एक बड़ा बहुमूल्य हीरा पड़ा है रास्ते में। उठे नहीं, मन भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। वे मुस्कुराए होंगे कि हद्द हो गई! उठ गया। गए नहीं हीरा उठाने को, मन ने उठा लिया। एक हीरा अपनी जगह पड़ा है। दो आदमी आए और चले गए। झलक भीतर कौंध गई कि उठा लूं। ऐसा नहीं कि शब्द भी बने। सब हीरे पड़े रह जाते हैं। सब जो यहां मूल्यवान मालूम पड़ता ऐसा भी जरूरी नहीं है कि ऐसा सोचा कि उठा लेना चाहिए। | है, पड़ा रह जाता है। हम आते हैं और चले जाते हैं। और नहीं, बस एक झलक कौंध गई, एक कंपन भाव का हो गया, अक्सर हम एक-दूसरे की छाती में छुरे भोंक जाते हैं। हम उसके उठा लूं। सजग हो गए, झकझोर दिया अपने को कि अरे! इतना लिए बड़े दुख दे जाते हैं, बड़े दुख उठा जाते हैं, जो हमारा कभी सब छोड़कर आया, इससे बड़े बहुमूल्य हीरे छोड़कर आया तब नहीं हो पाता। जो हमारा हो नहीं सकता है। मन में यह वासना न उठी और आज अचानक यह उठ गई? सातवाः अप्रमत्तविरत। सप्तम भूमि, जहां किसी प्रकार का चेतन से तम छोड़ दो, अचेतन इतनी जल्दी नहीं छट जाता। भी प्रमाद प्रगट नहीं होता। इतनी हलकी झलक भी जहां नहीं रह सम्हलकर बैठ गए, लेकिन एक बात तो खयाल में आ गई कि जाती। प्रगट नहीं होती। किसी तरह की अभिव्यक्ति नहीं अभी भीतर सूक्ष्म राग पड़े हैं। बड़े गहरे में होंगे। उनकी आवाज होती। सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति भी शून्य हो जाती है मूर्छा की, भी अब मन तक नहीं पहुंचती, लेकिन मौजूद हैं, तलघरे में पड़े अहंकार की, प्रमाद की। हैं। ऊपर तुम्हारे बैठकखाने तक उनकी कोई खबर भी नहीं आती इसी अवस्था में कोई व्यक्ति साधु बनता है। इस अवस्था में भी तुम्हारा ही तुम्हारे ही बैठकखाने के नीचे है। | आकर ही साधुता का आविर्भाव होता है। चौदह गुणस्थानों में जिसको मनोवैज्ञानिक अनकांशस कहते हैं, अचेतन मन कहते यह सातवां है। मध्य में आकर खड़े हो गए। आधी यात्रा पूरी हैं, महावीर उसी स्थिति की बात कर रहे हैं, प्रमत्तविरत। संयम हुई। जिसने सातवें को पा लिया हो वही साधु है। के साथ-साथ मंद रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। अभी अक्सर जिनको तुम साधु कहते हो वे सातवें तक पहुंचे हुए बेहोशी है। होश ऊपर-ऊपर है। जैसे बर्फ की चट्टान पानी में लोग नहीं होते। उनमें से कुछ तो पहले में ही अटके होते हैं। तैरती है तो एक हिस्सा ऊपर होता है, नौ हिस्से नीचे पानी में डूबी उनमें से कुछ दूसरे में अटके होते हैं। सातवें तक पहुंचना भी होती है। | कठिन मालूम होता है। क्योंकि सातवें का अर्थ है, भीतर दीया तो होश ऊपर-ऊपर है बर्फ की चट्टान की तरह। नौ हिस्सा | पूरी तरह जल गया, अब कोई अंधकार नहीं है। अब कोई बेहोशी नीचे है। दिखाई नहीं पड़ती किसी को, लेकिन स्वयं अभिव्यक्ति नहीं होती किसी राग की। व्यक्ति को समझ में आती है। और जितना होश बढ़ता है उतनी आठवांः अपूर्वकरण। साधक की अष्टम भूमि, जिसमें ही ज्यादा समझ में आती है। शायद तुम बैठे होते भर्तृहरि की प्रविष्ट होने पर जीवों के परिणाम प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व होते जगह तो तुम्हें पता भी न चलता। लेकिन बड़ी निर्मल आत्मा रही हैं। सातवें में व्यक्ति साधु बन जाता है। आठवें में घटनाएं होगी। शब्द भी न बना, और लहर पकड़ में आ गई कि भाव हो घटनी शुरू होती हैं। सातवें तक साधना है, आठवें से अनुभव गया। थोड़ा-सा मैं कंप गया हूं। कोई भी न पहचान पाता। आने शुरू होते हैं। सातवें तक तैयारी है, आठवें से प्रसाद सूक्ष्म से सूक्ष्म यंत्र भी शायद न पकड़ पाते कि कंपन हुआ है। बरसना शुरू होता है। क्योंकि कंपन बड़ा ना के बराबर था। जैसे शून्य में जरा-सी प्रतिपल अपूर्व-अपूर्व अनुभव होते हैं, जैसे कभी न हुए थे। लहर उठी। लेकिन भर्तहरि पहचान गए। | ऐसी सुगंधे आसपास डोलने लगती हैं जैसी कभी जानी न थीं। वे जो दो घुड़सवार आए, उन दोनों की नजर भी एक साथ उस | ऐसी मधुरिमा कंठ में घुलने लगती है जैसी कभी जानी न थी। सलवारें निकाली और दोनों ने कहा, पहले ऐसे जीवन की पुलक अनुभव होती है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं हो नजर मेरी पड़ी है। भर्तृहरि बैठे देख रहे हैं। एक क्षण भी न लगा, सकती। अमृत का स्वाद मिलता। वे तलवारें एक-दूसरे की छाती में चुभ गईं। हीरा अपनी जगह सातवें तक तैयारी है। पात्र तैयार हुआ। आठवें में वर्षा शुरू पड़ा रहा. जहां दो जिंदा आदमी थे वहां दो लाशें गिर गईं। होती है। कबीर कहते हैं, बादल गहन-गंभीर होकर घिर गए। 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 अमृत बरस रहा है। दादू कहते हैं, हजार-हजार सूरज निकल प्रतिक्षण मरते हो और प्रतिक्षण जन्मते हो। जैसे पुराना मर जाता आए ऐसी रोशनी है, कि अंधेरे को खोजो भी तो कहीं मिलता है हर क्षण और नए का आविर्भाव होता है। जैसे प्रतिपल पुराने नहीं। मीरा कहती है, पद धुंघरू बांध नाची। की धूल उड़ जाती है और तुम्हारा दर्पण फिर नया हो जाता है। ये आठवें की घटनाएं हैं-अपूर्वकरण। यहां अनूठे संगीत जिसको बौद्धों ने क्षण-क्षण जीना कहा है, वह अपूर्वकरण की का जन्म होता है। यही घड़ी है जहां झेन फकीर कहते हैं, एक | स्थिति है। जिसको कृष्णमूर्ति कहते हैं, मरो अतीत के प्रति, हाथ की ताली बजती है। अपूर्व-जो हो नहीं सकता ऐसा होता ताकि भविष्य का जन्म हो सके। छोड़ो अतीत को, पकड़ो मत, है। जो कभी हुआ नहीं ऐसा होता है। जिसको कहा नहीं जा | ताकि अपूर्व घट सके सकता ऐसा होता है। जिसको बताने का कोई उपाय नहीं। गूंगे यह अपूर्वकरण ध्यान का पहला स्वाद है। यहां से तुम दूसरे का गुड़। गूंगे केरी सरकरा। लोक में प्रविष्ट हुए। यहां से दूसरी दुनिया शुरू हुई। ऐसा इस घड़ी में आदमी बड़े आनंद में लीन होने लगता है। और | समझो, अपूर्वकरण है, जैसा कि कोई यात्री नाव में बैठे नदी के प्रतिपल नया-नया होता जाता है। द्वार के बाद द्वार खुलते चले इस किनारे से और नाव चले, तो मध्य तक तो पुराना किनारा ही जाते हैं, पर्दे के बाद पर्दे उठते चले जाते हैं। सात तक तुम साधो, दिखाई पड़ता रहता है—सातवें तक। नए किनारे का पता नहीं आठ के बाद घटता है। चलता। दूसरा किनारा अभी धुंध में छिपा है दूर। आठवें से, अपर्वकरण : नाम भी महावीर ने ठीक दिया। पहले जैसा नहीं पराना किनारा तो दिखाई पड़ना बंद होने लगता है, नया किनारा हुआ, कभी नहीं हुआ। और जब तुम्हें पहली दफा होता है तभी | दिखाई पड़ना शुरू होता है। आठवें से पुराना तो धुंध में छिप तुम्हें भरोसा भी आता है। कि महावीर हुए होंगे कि बुद्ध हुए जाता और नए का आविर्भाव होता है। आठवां, साधु के जीवन होंगे, कि कबीर ठीक कहते हैं। तुम गवाही बनते हो। आठवें पर में आत्मा का जन्म है। आठवां, अंधेरे में प्रकाश का अवतरण तुम्हारी गवाही पैदा होती है। आठवें के पहले तुम जो सिर है। आठवां, मरुस्थल में अमृत की वर्षा है-अपूर्वकरण। हिलाते हो वह बहुत सार्थक नहीं है। आठवें के पहले तुम कहते और फिर ऐसा नहीं है कि वही-वही अनुभव रोज दोहरता है, | हो हां, ठीक लगती है बात। बस, वह लगती ही है। तर्क से प्रतिपल नया होता जाता है। जैसे-जैसे तम दसरे किनारे के लगती होगी, संस्कार से लगती होगी। बार-बार सुनी है, | करीब होने लगते और चीजें स्पष्ट होने लगती हैं, हर घड़ी गहन पुनरुक्ति से लगती होगी। या तुम्हारे भीतर वासना है, आकांक्षा | से गहन, सघन से सघन प्रतीति आनंद की होती चली जाती है। है कि ऐसा घटे, इसलिए तम मान लेते होओगे कि हां, घटता है। नौवाः अनिवत्तिकरण। साधक की नवम भमि में, जिसमें लेकिन आठवें पर पता चलता है। आठवें पर तुम दस्तखत समान समवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान हो जाते हैं और कर सकते हो कि हां, महावीर हुए, कि बुद्ध हुए, कि जीसस प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुनी विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। कहा है, ठीक कहा है। क्योंकि अब अनिवत्तिकरण नौवीं साधक की भमि है। यह समझने जैसी है। तुम्हारे अनुभव में आ रही बात। अब अस्तित्वगत प्रमाण मिल | इस स्थिति में लोगों के व्यक्तित्व समाप्त हो जाते हैं, व्यक्तिगत रहा है। भेद समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में आकर सभी साधक एक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, आत्मा है। जैसे हो जाते हैं। उनकी समान दशा हो जाती है। इस समय तक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है कि परमात्मा है। व्यक्तित्व की छाया रहती है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है, कोई अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, समाधि है। बुद्धिमान है, कोई बहुत बौद्धिक है, कोई संगीत में कुशल है, इसके पहले सब तर्कजाल है। इसके बाद ही अनुभव के स्रोत कोई गणित में कशल है, कोई कलाकार है, कोई कछ है। खुलने शुरू होते हैं। __ आठवें तक भेद बने रहते हैं। नौवें से अभेद शुरू होता है। इस प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व। तब कुछ भी जीवन में जड़ता जैसी | समय, जो भी साधक नौवें में पहुंचता है उसके व्यक्तित्व की नहीं रह जाती। यंत्रवत कुछ भी नहीं रह जाता। जैसे तुम खोल गिर जाती है। जैसे सांप सरक जाता है पुरानी चमड़ी को 5181 Jal Education International 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REPANA चौदह गणस्थान - छोड़कर, पुरानी खोल को छोड़कर। यहां से अव्यक्तिगत जीवन | है, अपना रेडियो है, अपनी पसंद का फर्निचर है, अपने ढंग के शुरू होता है। यहां से तुम्हारा कोई भेद किसी से नहीं रह जाता। पर्दे हैं। न तुम स्त्री, न तुम पुरुष; न तुम गोरे, न तुम काले; न तुम सुंदर, फिर तुम दोनों ऐसा करो कि धीरे-धीरे चीजों को बाहर न तुम असुंदर; न तुम महत्वपूर्ण, न तुम महत्वहीन। इस निकालते जाओ। जब कमरे दोनों खाली हो जाएंगे तो बड़े समान अवस्था में सभी समान हो जाते हैं। हो जाएंगे। क्योंकि भेद पर्दे का था। पर्दे अलग हो गए। भेद और ध्यान रखना, यह अभी केवल नौवीं अवस्था है। नौवीं कुर्सी-टेबल का था, कुर्सी-टेबल अलग हो गई। भेद चित्रों का अवस्था में व्यक्ति को समता के बोध का जन्म होता है। तब वह था, चित्र दीवाल से अलग हो गए। भेद रेडियो-टेलिविजन का सबमें एक का ही वास देखता है। उनमें भी जो सोए हैं, वह उस था, वे भी अलग हो गए। अब दोनों कमरे खाली रह गए, काफी एक को ही देखना शुरू कर देता है, जो उसके भीतर जग गया एक जैसे हो गए। क्योंकि दोनों कमरे केवल कमरे रह गए। है। अब फर्क सोने और जगने का होगा, लेकिन अब और कोई दोनों के भीतर शुद्धता है, शून्यता है। दोनों में अवकाश है। फर्क नहीं है। इस घड़ी में न तो साधु जैन रह जाता है, न हिंदू, न जैसे-जैसे चीजें खाली होती हैं तुम्हारे भीतर से, वैसे-वैसे मुसलमान। रह ही नहीं सकता। इस घड़ी में न तो अवकाश, आकाश उपलब्ध होता है। आकाश समान है। मंदिर-मस्जिद में कोई फर्क रह जाता, न गुरुद्वारा में, गिरजाघर में भराव के कारण भेद है। एक किताब कुरान है, एक किताब कोई फर्क रह जाता। इस घड़ी में जिन्होंने भी जाना है वे सभी एक | बाइबल है। दोनों में से स्याही के अक्षर छांटकर बाहर निकाल ही वक्तव्य को देते मालूम पड़ते हैं। भाषा होगी अलग, कथन लो, कोरे कागज रह गए। फिर फर्क करना मुश्किल हो जाएगा, अलग नहीं। कथ्य होगा अलग, कथन अलग नहीं। कथा होगी कौन कुरान है और कौन बाइबल है। कोरी किताबें बस कोरी भिन्न-भिन्न, लेकिन जो कहा जा रहा है वह एक ही है। किताबें हैं। कौन कुरान, कौन बाइबल? नौवीं अवस्था में व्यक्ति धर्मों के विशेषणों के पार हो जाता है। सूफियों की एक बड़ी प्रसिद्ध किताब है, जिसमें कुछ भी लिखा देह की भिन्नता के पार हो जाता है, मन की विशिष्टताओं के पार हुआ नहीं है। उसको वे कहते हैं, 'द बुक आफ द बुक।' हो जाता है। सामान्य का जन्म होता है, या सार्वलौकिक। किताबों की किताब। खाली है। सूफी फकीर उसको खूब पढ़ते साधक की नवम भूमि, जिसमें समान समवर्ती सभी साधकों हैं, वही पढ़ने जैसी है। उसमें कुछ लिखा नहीं है। सूफी फकीर के परिणाम समान हो जाते हैं और प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुनी बैठ जाते हैं, सुबह से खाली किताब खोलकर पढ़ने लगते हैं। विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। और इसी क्षण से विशुद्धता बढ़नी चेष्टा यह है कि इसी खाली किताब जैसे खाली हो जाएं। शुरू होती है। महावीर जिसको नौवीं भूमि कहते हैं, वही है 'द बुक आफ द समता के बाद है विशुद्धता। बुक'। वही है किताबों की किताब। वहां साधक शून्यता को इसलिए जो अभी कह रहा हो कि मैं जैन मुनि हूं, वह अभी उपलब्ध होता है। कहीं भटक रहा है विशेषण में। जो कहता हो मैं हिंदू संन्यासी हूं, दसवां गुणस्थान H सूक्ष्मसाम्पराय। जहां सब कषाय क्षीण हो वह अभी कहीं भटक रहा है विशेषण में। जो कहता हो मैं ईसाई जाने पर भी लोभ या राग की कोई सूक्ष्म छाया शेष रहती है। हूं, वह भटक रहा कहीं विशेषण में। अब यह जरा समझने जैसा है। नौवें पर सब शून्य हो गया। विशेषण छट जाते हैं। क्योंकि भीतर जिसका अनभव होता है | दसवें में महावीर कहते हैं, जहां सब कषायें क्षीण हो गईं, फिर भी वह बिलकुल एक-रस है। इसीलिए शुद्धता बढ़ती है। | राग की कोई सूक्ष्म छाया शेष रहती है। ऐसा समझो कि तुम्हारा कमरा है, बैठकघर है तुम्हारा, तुम्हारा | तुम्हारे कमरे तो समान हो गए, लेकिन तुम्हारे तलघरों का फर्निचर है, दीवाल पर तुम्हारी तस्वीरें हैं, तुम्हारी घड़ी है, तुम्हारा | क्या? तुम्हारा चेतन मन तो बिलकुल समान हो गया। जहां तक फूलदान है, तुम्हारा रेडियो-टेलीविजन है। फिर किसी दूसरे का, | तुम्हारा बोध जाता है वहां तक तो सब समान हो गया, लेकिन पड़ोसी का बैठकघर है, उसकी अपनी तस्वीरें हैं, अपना फूलदान अनंत-अनंत जन्मों में जो कर्मों की सूक्ष्म रेखाएं तुम्हारे भीतर मा 519 ___ 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 RER पड़ी हैं, उनका क्या? हैं, क्योंकि उनका सूक्ष्म भाव वहां लटका रह जाता है। सदियां तुमने कभी देखा? पानी को बहा दो फर्श पर, धूप आती है, बीत जाती हैं। जब कभी तुम ऐसी जगह जाकर खड़े हो जाओगे, पानी उड़ जाता है लेकिन एक सूखी रेखा रह जाती है। वह जहां कभी कोई संत बैठा था और समाधि को उपलब्ध हुआ था, दिखाई भी नहीं पड़ती। साधारणतः कोई उसको देख भी नहीं तो वह जगह अब भी उस गीत को गुनगुना रही है; तुम्हें चाहे पाएगा, जहां से पानी बहा था। अब वहां पानी बिलकुल नहीं पता भी न चले। लेकिन पता तुम्हें भी चल जाता है। तुम्हें भी है। अब पानी का नाममात्र भी नहीं बचा, लेकिन एक सूखी रेखा कभी-कभी लगता है, किसी स्थान पर बैठकर बड़ी शांति रह गई है। अगर तुम पानी फिर ढालो तो बहुत संभावना है कि मिलती है। किसी स्थान पर बैठकर एकदम तुम अशांत होने उसी सूखी रेखा को पकड़कर पानी बहेगा। क्योंकि वह सूखी लगते हो। किसी वृक्ष के नीचे बैठकर बड़ा अहोभाव पैदा होता रेखा सुगम होगी। है। किसी घर में जाते ही कुछ भय लगता है। किसी घर में तुम कर्म सूखी रेखाएं हैं। जहां तुमने बहुत-बहुत कर्म किए थे, | कभी गए भी नहीं, बाहर से ही निकलते हो, लेकिन मालूम होता क्रोध बहुत बार किया था, क्रोध तो छोड़ दिया, क्रोध का फर्निचर है कोई बुला रहा, निमंत्रण है-आओ। कोई तुम्हें पाहुना बनाना तो बाहर फेंक दिया; लोभ बहुत बार किया, लोभ भी छोड़ चाहता है। कोई कहता है, पधारो जी। कोई कह नहीं रहा, दिया, लेकिन अनंत कालों में अनंत लोभ के जो परिणाम हुए थे, | लेकिन घर की स्थिति, घर के सूक्ष्म कंपन...। और तुम्हारी जीवनधारा से जो लोभ बहा था, उसकी सूखी रेखाएं तो महावीर कहते हैं, दसवीं स्थिति है : सूक्ष्मसाम्पराय। अति रह गई हैं। वे तुम्हें दिखाई भी नहीं पड़तीं। वे नौवीं अवस्था में | सूक्ष्म। दिखाई नहीं पड़ेंगे; अदृश्य लेखन हैं। वे नौवें को ही पहुंचे व्यक्ति को ही दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वे इतनी सूक्ष्म | दिखाई पड़ेंगे, जो इस अवस्था में आ गया है, जहां अब सब | हैं, हैं ही नहीं, लेकिन हैं। समान है। सब विशेषण गिर गए, सब रूप-रंग-आकृतियां गिर जैसे तुम्हारा कमरा खाली कर दिया, पड़ोसी का भी कमरा गईं, उसी को दिखाई पड़ेगा। जन्मों-जन्मों में जो-जो किया गया खाली कर दिया, लेकिन फिर भी तुम्हारे कमरे में एक खास बात | है उसकी सूक्ष्म तरंगें भीतर शेष रह गई हैं। होगी, जो पड़ोसी के कमरे में न होगी। तुम इतने दिन तक इस जहां सब कषायें क्षीण हो जाने पर भी लोभ या राग की कोई कमरे में रहे, तुम्हारी बास इस कमरे में होगी। तुम्हारा होने का | सूक्ष्म छाया शेष रहती है। ढंग इस कमरे में होगा। तुम्हारी उपस्थिति इस कमरे में होगी। ग्यारहवीं अवस्था है: उपशांतमोह। साधक की ग्यारहवीं तुम इतने दिन तक इस कमरे में रहे, तुम्हारी आदतें, तुम्हारे भूमि, जिसमें कषायों का उपशमन हो जाने से वह कुछ काल के मनोवेग, तुम्हारी वासनाएं इस कमरे में उठीं और फैलीं, वे इस लिए अत्यंत शांत हो जाता है। कमरे में होंगी। ऐसी अवस्था—जैन शास्त्रों में जो उदाहरण दिया जाता है वह तुमने अगर इस कमरे में किसी की हत्या कर दी थी तो उस | ठीक है-ऐसी है, जैसे कि किसी नदी से, छोटे झरने से हत्या की घटना इस कमरे पर बड़ी स्पष्ट रूप से लिखी है। बैलगाड़ियां गुजर गईं। उनके गुजरने से जमीन में जमी मिट्टी, अदृश्य है लिखावट, कोई उसे पढ़ न पाएगा, लेकिन लिखी है। कूड़ा-कर्कट, सूखे पत्ते, सब ऊपर उठ आये। झरना गंदा हो जिस कमरे में किसी की हत्या हुई हो, उस कमरे में तुम अगर | गया। फिर बैलगाड़ियां चली गईं दूर, धीरे-धीरे पत्ते फिर बैठ जाकर सोओगे तो रात ठीक से सो न पाओगे। वर्षों पहले हुई गए, धूल फिर बैठ गई तलहटी में, झरना फिर स्वच्छ और साफ होगी हत्या, लेकिन कोई चीख-पुकार अभी भी दीवाल की कणों | हो गया। से लटकी रह गई है। कोई सूक्ष्म भाव अभी भी भटकता रह गया | तो ऊपर तो बिलकुल स्वच्छ और साफ हो गया है। पी लो, है। उसी को तो हम प्रेतात्मा कहते हैं। कोई सूक्ष्म भाव लटका इतना स्वच्छ है। लेकिन अगर जरा हिलाया तो नीचे पर जो बैठी रह गया है। धूल है, वह फिर उठ आएगी। कूड़ा-कर्कट बैठा है नीचे। इसलिए जहां संत बैठे हैं, जहां संत चले हैं वहां तीर्थ बन जाते | सम्हालकर चुल्लू भरना, अन्यथा फिर उठ आएगा। 5200 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान - यह जो ग्यारहवीं अवस्था है, यह है उपशांतमोह। मोह शांत | हो गया है। जिनः जाग गया है। केवल-ज्ञान की उपलब्धि, हो गया। जैसे धूल, कूड़ा-कर्कट झरने में नीचे बैठ गया; | परमात्मा या भगवान की संज्ञा। लेकिन मिट नहीं गया है। बहुत सम्हल-सम्हलकर चलना | महावीर कहते हैं, इस तेरहवीं अवस्था में व्यक्ति भगवान की होगा। इस अवस्था में व्यक्ति को ऐसे चलना होता है, जैसे कोई | स्थिति में है लेकिन अभी काया से जुड़ा है। अभी देह से संबंध गर्भिणी स्त्री चलती है। एक गर्भ है; पेट में एक नया जीवन है। | है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी देह से मुक्ति नहीं हुई है। सम्हलकर चलती है, कहीं गिर न जाए, फिसल न जाए। अभी देह के भीतर है। जैसे-जैसे गर्भ बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे सावधानी ऐसा समझो कि तुम जेलखाने में बंद हो और खबर आ गई। बरतनी होती है। इस ग्यारहवीं अवस्था में हम आखिरी अवस्था | जेलर ने आकर कहा कि खड़े हो जाओ, छुटकारे का समय आ के बहुत करीब आ गए। समझो कि सात महीने पूरे हुए गर्भ के; | गया। तुम्हारी मुक्ति का क्षण आ गया। जंजीरें खोल दी गईं, तुम कि आठवां महीना लग गया; कि अब नौवां महीना करीब आ चल पड़े जेलर के साथ दरवाजे की तरफ, लेकिन अभी तुम रहा है। अब बड़ी सावधानी की जरूरत है। दरवाजे के भीतर हो। एक अर्थ में मुक्त हो गए। हो ही गए उस सावधानी पर जोर देने के लिए ही इसको महावीर ने मुक्त। अब कुछ बचा नहीं। जंजीरें भी छूट गईं, मुक्ति का उपशांतमोह कहा है। बैठ गई तलहटी में धुल, उठ सकती है। आदेश भी आ गया, द्वार की तरफ चल भी पड़े, लेकिन अभी भी निश्चित होकर मत बैठ जाना। अभी अंत नहीं आ गया। बड़ी कारागृह में हो। अब कोई कारण नहीं कि तुम रहोगे कारागृह में सुखद अवस्था है, बड़ी शांति की अवस्था है। कुछ क्षण में तो लेकिन हो अभी भी। ऐसा लगेगा कि सिद्ध हो गए। कुछ फर्क नहीं है सिद्ध में और महावीर कहते हैं, इस अवस्था में व्यक्ति को भगवान या इस अवस्था में, जहां तक पानी की स्वच्छता का संबंध है। फर्क | परमात्मा की संज्ञा उपलब्ध होती है। इतना ही है कि सिद्ध का पानी अब तुम कितना ही उछलो-कूदो, फिर चौदहवीं अवस्था है : अयोगिकेवलीजिन। अयोगी यानी गंदा नहीं हो सकता। यह अभी गंदा हो सकता है। अगर किनारे | जब शरीर से भी संबंध छूट गया, तब तुम कारागृह के बाहर हो से बैठकर देखो तो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। | गए। जरा-सा फर्क है; शायद इंचभर का। एक क्षणभर पहले उपशांतमोह की अवस्था का व्यक्ति ठीक सिद्ध जैसा मालूम तुम कारागृह के भीतर थे, एक क्षण के बाद कारागृह के बाहर हो होगा। साधारणतः बाहर से लोग फर्क भी नहीं कर सकते, मगर गए। बहत बड़ा भेद नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवीं वह स्वयं फर्क कर सकता है। अभी विकृति उठ सकती है। अवस्था में व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है। सब अभी सांप आखिरी बार फन उठा सकता है। व्यावहारिक अर्थों में वह भगवत्ता को उपलब्ध हो गया। बारहवीं अवस्था है: क्षीणमोह, कषायों का समूल नाश। अब जरा-सी बात रह गई है कि अभी कारागह के दरवाजे के पार नहीं ऐसा नहीं कि झरने में नीचे कचरा बैठा है, कचरा झरने से समाप्त | हुआ है। कर दिया गया। जब बिलकल शद्ध हो गया है। अयोगिकेवलीजिनः साधक की अंतिम भूमि। जिसमें मन, फिर भी महावीर अभी इसको बारहवीं अवस्था कहते हैं। वचन, काया की समस्त चेष्टाएं शांत होकर शैलेशी स्थिति प्राप्त महावीर का गणित बहुत साफ है। होती है। तेरहवीं अवस्था हैः संयोगिकेवलीजिन। महावीर कहते हैं अब डिग नहीं सकता। तेरहवीं अवस्था तक थोड़ा-सा खतरा सब ठीक हो गया, लेकिन अभी देह से संबंध है। अभी देह से | है। जेलर का मन बदल जाए, कोई दुर्घटना हो जाए, वह जो द्वार संयोग है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी जो चैतन्य जागा | पर खड़ा पहरेदार है चाबी घर भूल आया हो; कि चाबी लगे न, है, वह अभी देह में है। अभी देह से जुड़ा है। | कि चाबी खराब हो गई हो, कि ताला अटक जाए। अभी भीतर संयोगी, केवली, जिन-तीन शब्द हैं। संयोगी : संयोगी का है, बिलकुल चल पड़ा है बाहर होने के लिए, लेकिन अभी देह से अर्थ है, अभी देह से संबंध है। केवली : केवलज्ञान को उपलब्ध | जुड़ा है। चौदहवीं अवस्था में देह से संबंध पूर्ण रूप से छूट 521 ___ 2010_03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 S गया। तो शैलेशी अवस्था। यह चौदहवीं अवस्था भी साधक की आखिरी अवस्था है। इन चौदहों के जो आगे चला गया, उसको सिद्ध कहते हैं। तो सिद्ध की अवस्था गुणातीत है—गुणस्थान-मुक्त। सिद्ध परिभाषा के बाहर है। जो हिंदू शास्त्रों में ब्रह्म की परिभाषा है, वही जैन शास्त्रों में सिद्ध की परिभाषा है-सच्चिदानंदरूप। चूंकि ब्रह्म का तो कोई शब्द जैनों के पास नहीं है—सिद्ध। क्योंकि जैनों की तो सारी खोज स्वयं की खोज है। तेरहवीं अवस्था से व्यक्ति भगवान की अवस्था को उपलब्ध होता है। भगवत्ता अनुभव हो जाती है, कि जीवन भगवतस्वरूप है। लेकिन एक आखिरी बात रह जाती है—देह का पर्दा / चौदहवें पर वह पर्दा भी गिर जाता।। फिर पंद्रहवीं में क्या होता है? पंद्रहवें पर यात्रा समाप्त हो गई। उसके पार कुछ भी नहीं है। उसको पंद्रहवां भी नहीं कहते। चौदह गुणस्थान हैं, पंद्रहवीं अवस्था तुम्हारा स्वभाव है। चौदह को पार करके कोई स्वयं को उपलब्ध होता है। महावीर के इस गणित को स्मरण रखना। इसमें तत्क्षण तुम्हें समझ में आ सकेगा कि तुम कहां खड़े हो। और पता चल जाए कि मैं कहां हूं तो ही यात्रा सुगमता से होती है। तुम हो तो पहली अवस्था में, और सोच रहे हो सातवीं अवस्था में, तो तुम चल न पाओगे। चलोगे तो पहली से ही चलना पड़ेगा। जहां हो वहीं से यात्रा शुरू होगी। तुम जहां नहीं हो वहां से यात्रा शुरू नहीं हो सकती। इसलिए ठीक-ठीक अपने को पहचानना। और मैं कहता हूँ कि महावीर के अतिरिक्त किसी व्यक्ति ने कभी भी इतना सूक्ष्म तौलने का उपाय नहीं दिया है। यहां एक-एक बात साफ कर दी गई है। अड़चन न होगी। तुम अपने को ठीक-ठीक जांच पाओगे, कहां हो। और तुम कहां हो यह जानना अत्यंत जरूरी है, तो ही तुम वहां पहुंच सकोगे जहां पहुंचना है। अगर स्मरणपूर्वक इस यात्रापथ का उपयोग किया, इस यात्रामार्ग-निर्देश का उपयोग किया तो किसी न किसी क्षण में वह अपूर्व, विलक्षण, अलौकिक घटना घटती है, जब तुम अपने घर आ जाते हो। आज इतना ही। 522 _JalmEducation International 2010_03