________________ आज के सूत्र महावीर की साधना-पद्धति में अत्यंत अयोगिकेवलीजिन, ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान ना विशिष्ट हैं। साधक की यात्रा में जैसा सूक्ष्म पड़ावों हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत होते हैं।' का विभाजन महावीर ने किया है, वैसा किसी और पहला स्थान है: मिथ्यात्व। जैसा है उसे वैसा न देखने को ने कभी नहीं किया। राह का पूरा नक्शा, रास्ते पर पड़नेवाले महावीर मिथ्यात्व कहते हैं। जैसा है उससे अन्यथा देखने को पडाव. मील के किनारे लगे पत्थर, सभी की ठीक-ठीक सचना | महावीर मिथ्यात्व कहते हैं। दी है। जैसा है उसे देखने में एक ही बाधा है-हमारा अहंकार। सत्य यह तभी संभव है, जब कोई गुजरा हो, पहुंचा हो। यह केवल को देखना हो तो अपनी सारी अस्मिता को एक तरफ हटाकर रख विचार कर लेने से, दार्शनिक चिंतन से संभव नहीं है। और फिर देना जरूरी है। अगर तुमने कहा कि मेरा सत्य ही सत्य होगा तो हजारों वर्षों में और जो लोग सिद्धत्व को उपलब्ध हुए, उन सबने तुम मिथ्यात्व में ही जीयोगे। भी गवाही दी है कि महावीर का वक्तव्य साधक से लेकर सिद्ध सत्य मेरा और तेरा नहीं है। सत्य तो बस सत्य है। की मंजिल तक अत्यंत सूक्ष्म रूप से सही है। विशेषण सत्य को मिथ्या कर जाते हैं। महावीर की भाषा में साधक चौदह गुणस्थानों से गुजरता है। अक्सर ऐसा होता है, जब तुम कहते हो कि जो मैं कह रहा हूं एक-एक गुणस्थान को ठीक से समझना आवश्यक है। कहीं न वही सत्य है तो तुम्हारा जोर सत्य पर नहीं होता। चूंकि तुम कह कहीं तुम भी खड़े होओगे इसी रास्ते पर। अपनी जगह ठीक से रहे हो इसलिए सत्य होना चाहिए। तुम्हारे कहने से थोड़ी ही कोई पहचान लो, तो कैसी यात्रा करनी, कहां से यात्रा करनी, किस बात सत्य होती है। सत्य से मेल खा जाए तो सत्य होती है। तरफ जाना—सुगम हो जाता है। तुम्हारे होने से सत्य नहीं होती। 'मोहनीय कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम / इसलिए जो व्यक्ति अपने मैं को उतारकर रख देगा और सत्य आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते के साथ जाने को राजी होगा, वही पहला कदम उठा पाता है। हैं, उनको सर्वदर्शी जिन ने गुण या गुणस्थान की संज्ञा दी है। अन्यथा लोग पहले कदम पर ही अटके रह जाते हैं। अधिक अर्थात सम्यकत्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएं, | लोग मिथ्यात्व में ही जीते हैं। श्रेणिया, भूमिकाएं गुणस्थान कहलाती हैं।' तुम्हें भी बहुत बार ऐसा मौका आ जाता होगा, जब तुम्हें थोड़ी 'मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यकदृष्टि, देशविरत, झलक भी मिलती है कि तुम जो कह रहे हो वह ठीक नहीं, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, लेकिन कैसे करें स्वीकार? बेइज्जती है, अपमान है, प्रतिष्ठा सूक्ष्मसाम्पराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, संयोगिकेवलीजिन, गिरती है। तो तुम जिद्द किए जाते हो। तुम झूठ को भी सच किए 507 ___ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org