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(भगवान महावीर २६ सौ वाँ जन्मकल्याणक वर्ष) बालबोध पाठमाला भाग १ (श्री वीतराग-विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड द्वारा निर्धारित)
दिन
लेखक : पण्डित रतनचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ , एम. ए.
सम्पादक : डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, एम. ए., पीएच. डी.
प्रकाशक : मगनमल सौभागमल पाटनी फेमिली चेरिटेबल ट्रस्ट , मुम्बई
एवं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर – ३०२०१५ (राज.)
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Thanks & Our Request
This shastra has been donated to mark the 15th svargvaas anniversary (28 September 2004) of, Laxmiben Premchand Shah, by her daughter, Jyoti Ramnik Gudka, Leicester, UK who has paid for it to be "electronised" and made available on the Internet.
Our request to you:
1) We have taken great care to ensure this electronic version of BalbodhPathmala - Part 1 is a faithful copy of the paper version. However if you find any errors please inform us on rajesh@ AtmaDharma.com so that we can make this beautiful work even more accurate.
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00122 Sept 2004
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Errors in Original Physical Electronic Version Version
Corrections Page No.5, Line No.3- af as Corrected error in electronic version: Version 1
Version 2 Page No.7, Line No. 1- WED 27191 BTTH भगवान उत्तम छे,
002
10 Mar 2007
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: २ लाख ८७ हजार २००
हिन्दी : प्रथम इक्तीस संस्करण (अगस्त १९६८ से अद्यतन) बत्तीसवाँ संस्करण (२५ अप्रेल २००२) महावीर जयन्ती
१० हजार
गुजराती : पाँच संस्करण :
१५ हजार मराठी : आठ संस्करण :
३२ हजार ३०० कन्नड : तीन संस्करण :
५ हजार तमिल : दो संस्करण :
३ हजार ५०० बंगला : प्रथम संस्करण :
१ हजार अंग्रेजी : दो संस्करण :
८ हजार २०० महायोग : ३ लाख ६२ हजार २००
प्रस्तुत संस्करण की कीमत हेतु १०,०००/- रुपये
श्री मगनमल सौभागमल पाटनी फेमिली चेरिटेबल | ट्रस्ट , मुम्बई द्वारा सधन्यवाद प्राप्त हुए।
मुद्रक : प्रिन्टो 'ओ' लैण्ड बाईस गोदाम, जयपुर
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विषय-सूची
नाम पाठ णमोकार मंत्र
चार मंगल
तीर्थंकर भगवान देव-दर्शन जीव-अजीव
दिनचर्या
भगवान आदिनाथ मेरा धाम
८.
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पाठ पहला
णमोकार मंत्र
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
लोक में सब अरहंतों को नमस्कार हो, सब सिद्धों को नमस्कार हो, सब आचार्यों को नमस्कार हो, सब उपाध्यायों को नमस्कार हो और सर्व साधुओं को नमस्कार हो।
mm
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अरहंत परमेष्ठी
सिद्ध परमेष्ठी
आचार्य परमेष्ठी
उपाध्याय परमेष्ठी
साधु परमेष्ठी
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णमोकार मंत्र की महिमा एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं हवई मंगलम्।।
यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है तथा सब मंगलों में पहला मंगल है।
यह मंत्र मोह-राग-द्वेषका प्रभाव करने वाला और सम्यग्ज्ञान प्राप्त कराने वाला है।
अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी कहलाते है। जो जीव इन पाँचों परमेष्ठीयों को पहिचान कर उनके बताये हुए मार्ग पर चलता है उसे सच्चा सुख प्राप्त होता है।
प्रश्न -
१. णमोकार मंत्र शुद्ध बोलिए। २. इस मंत्र में किसको नमस्कार किया गया है। ३. इस मंत्र के स्मरण से क्या लाभ हैं ? ४. पंच परमेष्ठियों के नाम बताइये। ५. सच्चा सुख कैसे प्राप्त होता है ?
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पाठ दूसरा
चार मंगल
चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं , केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि।
लोक में चार मंगल हैं। अरहंत भगवान मंगल हैं, सिद्ध भगवान मंगल है, साधु (प्राचार्य, उपाध्याय और साधु) मंगल हैं तथा केवली भगवान द्वारा बताया गया वीतराग धर्म मंगल हैं।
जो मोह-राग-द्वेष रूपी पापों को गलावे ओर सच्चा सुख उत्पन्न करे, उसे मंगल कहते हैं। अरहंतादिक स्वयं मंगलमय है और उनमें भक्तिभाव होने से परम मंगल होता है।
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लोक में चार उत्तम हैं। अरहंत भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान उत्तम हैं, साधु (प्राचार्य, उपाध्याय और साधु) उत्तम हैं तथा केवली भगवान द्वारा बताया हुअा वीतराग धर्म उत्तम हैं।
लोक में जो सबसे महान् हो, उसे उत्तम कहते हैं। लोक में ये चारों सबसे महान् हैं, अतः उत्तम हैं।
मैं चारो की शरण में जाता हूँ। अरहंत भगवान की शरण में जाता हूँ, सिद्ध भगवान की शरण में जाता हूँ, साधुओं (आचार्य, उपाध्याय और साधु) की शरण में जाता हूँ और केवली भगवान द्वारा बताये गये वीतराग धर्म की शरण में जाता हूँ।
शरण सहारे को कहते हैं। पंचपरमेष्ठी द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा की शरण लेना ही पंचपरमेष्ठी की शरण हैं।
जो व्यक्ति पंचपरमेष्ठी की शरण लेता है उसका कल्याण होता है अर्थात् दुःख (भव-भ्रमण) मिट जाता है।
प्रश्न -
१. मंगल , उत्तम और शरण शब्द का अर्थ समझाइये। २. हमें किसकी शरण लेना चाहिए ? ३. आत्मा का हित किस बात में हैं ? ४. चत्तारि मंगलं आदि पाठ को शुद्ध बोलिए। ५. पंचपरमेष्ठी की शरण का क्या अर्थ है ?
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पाठ तीसरा
तीर्थंकर भगवान
छात्र - गुरुजी ! बाहुबली क्या भगवान नहीं हैं ? अध्यापक – क्यों नहीं है ?
छात्र
- चौबीस भगवानों में तो उनका नाम आता ही नहीं है।
अध्यापक – चौबीस तो तीर्थंकर होते हैं। जो वीतरागी और सर्वज्ञ हैं, वे सभी
भगवान हैं। अरहंत परमेष्ठी और सिद्ध परमेष्ठी भगवान ही तो हैं।
छात्र
- क्या तीर्थंकर भगवान नहीं होते ?
अध्यापक – तीर्थंकर तो भगवान होते ही है पर साथ ही जो तीर्थंकर न हों
पर वीतरागी और पूर्णज्ञानी हों, वे अरहंत और सिद्ध भी भगवान हैं।
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छात्र - तो तीर्थंकर किसे कहते हैं ? अध्यापक – जो धर्मतीथR (मुक्ति का मार्ग) का उपदेश देते हैं, समवशरण
__ आदि विभूति से युक्त होते हैं और जिनको तीर्थंकर नामकर्म नाम
का महापुण्य का उदय होता हैं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। वे चौबीस होते है।
छात्र
- कृपया चौबीसों के नाम बताइये।
अध्यापक - १. ऋषभदेव (आदिनाथ) १३. विमलनाथ २. अजितनाथ
१४. अनंतनाथ संभवनाथ
१५. धर्मनाथ अभिनन्दन
१६. शान्तिनाथ सुमतिनाथ
१७. कुन्थुनाथ पद्मप्रभ
१८. अरनाथ सुपार्श्वनाथ
१९. मल्लिनाथ ८. चन्द्रप्रभ
मुनिसुव्रत पुष्पदंत (सुविधिनाथ) २१. नमिनाथ १०. शीतलनाथ
२२. नेमिनाथ ११. श्रेयांसनाथ
२३. पार्श्वनाथ १२. वासुपूज्य
२४. महावीर (वर्द्धमान , वीर,
अतिवीर, सन्मति) छात्र - इनका तो याद रहना कठिन है। अध्यापक – कठिन नहीं है। हम तुम्हें एक छन्द सुनाते हैं, उसे याद कर
लेना, फिर याद रखने में सरलता रहेगी।
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छंद
ऋषभ अजित संभव अभिनन्दन ,
१२
सुमति पदम सुपार्श्व जिनराय। ८ ९ १० ११ चन्द्र पुहुप शीतल श्रेयांस जिन,
वासुपूज्य पूजित सुरराय।। विमल अनन्त धर्म जस उज्ज्वल,
१६ १७ १८ १९
शान्ति कुंथु पर मल्लि मनाय। २० २१ २२ २३ मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्व प्रभु ,
२४
वर्द्धमान पद पुष्प चढ़ाय। छात्र - इनके जानने से लाभ क्या है ? अध्यापक – इनके उपदेश को समझकर उस पर चलने से हम सब भी
भगवान बन सकते हैं। प्रश्न
भगवान किसे कहते हैं ?
तीर्थंकर किसे कहते हैं ? ३. तीर्थंकर और भगवान में क्या अंतर है ?
क्या प्रत्येक भगवान तीर्थंकर होते हैं। ४. तीर्थंकर कितने होते हैं ? नाम सहित बताइये। ५. क्या भगवान भी चौबीस ही होते हैं। ६. पहले , पाँचवें, आठवें, तेरहवें, सोलहवें, बीसवें, बाईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों
के नाम बताइये। ७. एक से अधिक नाम किन-किन तीर्थकरों के है ? नाम सहित बताइये।
१-२४ चोबीस तीर्थंकरों के नाम
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पाठ चौथा
देवदर्शन
दिनेश – जिनेश! ओ जिनेश !! कहाँ जा रहे हो ? जिनेश – मन्दिरजी। दिनेश - क्यों? जिनेश – जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने। दिनेश – अच्छा मैं भी चलता हूँ। जिनेश – तुम चलोगे तो चलो; पर पहिले यह चमड़े की पट्टी (बेल्ट) घर
खोलकर आओ। तुम्हें पता नहीं मन्दिर में चमड़े से बनी वस्तुएँ लेकर
नहीं जाना चाहिए। दिनेश –अच्छा भाई मैं अभी खोलकर आया।
(दोनों मन्दिर पहुंचते हैं) जिनेश – अरे भाई! कहाँ चले जा रहे हो ? जूते तो यहीं खोल दो। मन्दिर के
भीतर चप्पल, जूते पहिने हुए नहीं जाते। मालूम होता है पहिले तुम कभी मन्दिर आये ही नहीं, इसी कारण दर्शन करने की विधि भी
नहीं जानते। दिनेश – हाँ भाई, नहीं जानता, अब तुम बतायो।
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जिनेश – सुनो! मन्दिर के दरवाजे पर पानी रखा रहता है। हमें चाहिये कि
सबसे पहिले चप्पल जूते खोलकर पानी से हाथ-पैर धोकर फिर भगवान की जयजयकार करते हुए तथा तीन बार निःसहि निःसहि
निःसहि बोलते हुए मन्दिर में प्रवेश करें। दिनेश - निःसहि का क्या अर्थ होता है ? जिनेश – निःसहि का अर्थ है सर्व सांसारिक कार्यों का निषेध। तात्पर्य यह है
कि सब संसार के कार्यों की उलझन छोड़ कर मन्दिर में प्रवेश करें। दिनेश – उसके बाद? जिनेश – उसके बाद भगवान की वेदी के सामने ' जय जय जय नमोऽस्तु
नमोऽस्तु नमोऽस्तु णमो अरहताणं आदि णमोकार मंत्र एवं चत्तारि मंगलं आदि मंगलपाठ बोलते हुए जिनेन्द्र भगवान को अष्टांग नमस्कार करें। इसके बाद चित्त को एकाग्र करके भगवान की स्तुति पढ़ते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए। उसके बाद फिर भगवान को
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नमस्कार कर नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ते हुए कायोत्सर्ग करना
चाहिए। दिनेश – अच्छा तो शान्ति से इस प्रकार चित्त एकाग्र करके भगवान का दर्शन
करना चाहिए। और...... ? जिनेश – और क्या ? उसके बाद शान्ति से बैठकर कम से कम आधा घंटा
शास्त्र पढ़ना चाहिए। यदि मन्दिरजी में उस समय प्रवचन होता हो
तो वह सुनना चाहिए। दिनेश – बस.....। जिनेश – बस क्या ? जो शास्त्र में पढ़ा हो अथवा प्रवचन में सुना हो उसे थोड़ी
देर बैठकर मनन करना चाहिए तथा सोचना चाहिए कि मैं कौन हूँ? भगवान कौन हैं ? मैं स्वयं भगवान कैसे बन सकता हूँ ? आदि,
आदि। दिनेश - इस सबसे क्या लाभ होगा? जिनेश – इससे आत्मा में शान्ति प्राप्त होती है। परिणामों में निर्मलता प्राती
है। मंदिर में प्रात्मा की चर्चा होती है। अत: यदि हम आत्मा को
समझकर उसमें लीन हो जावें तो परमात्मा बन सकते हैं। प्रश्न -
१. देवदर्शन की विधि अपने शब्दों में बोलिए। २. मन्दिर में कैसे और क्यों जाना चाहिए ? ३. मन्दिर में कौन-कौन वस्तु नहीं ले जाना चाहिए ? ४. देवदर्शन करते समय क्या बोलना चाहिए? ५. मन्दिर में क्या क्या करना चाहिए ?
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पाठ पांचवाँ
जीव-अजीव
हीरालाल – मेरा कितना अच्छा नाम है ? ज्ञानचंद – अहा! बहुत अच्छा है! अरे भाई! हीरा कीमती अवश्य होता है,
परन्तु है तो अजीव ही न ? आखिर क्या तुम जीव (चेतन) से
अजीव बनना पसन्द करते हो ? हीरालाल – अरे भाई! यह जीव-अजीव क्या है ? ज्ञानचंद - जीव! जीव नहीं जानते ? तुम जीव ही तो हो। जो ज्ञाता द्रष्टा
___ है, वही जीव है। जो जानता है, जिसमें ज्ञान है, वही जीव है। हीरालाल – और अजीव ? ज्ञानचंद – जिसमें ज्ञान नहीं है, जो जान नहीं सकता, वही अजीव है। जैसे
हम तुम जानते हैं, अतः जीव हैं। हीरा, सोना, चाँदी, टेबल,
कुर्सी जानते नहीं हैं। अतः अजीव हैं। हीरालाल – जीव-अजीव की और क्या पहिचान है ?
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ज्ञानचंद
- जीव सुख व दुःख का अनुभव करता हैं, अजीव में सुख दुःख
नही होता। हम तुम
का
सुख-दुःख अनुभव करते हैं. अतः जीव हैं।
टेबल, कुर्सी सुख
दुःख का अनुभव नहीं करते, अतः अजीव है।
ये (टेबल और शरीर ) जीव है ।
-
हीरालाल – आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, शरीर में सुख - दुःख होता हैं, तो अपना शरीर तो जीव है न ?
ज्ञानचंद – नहीं, भाई ! आँख थोड़े ही देखता है, कान थोड़े ही सुनते हैं, देखने-सुनने वाला इनसे अलग कोई जीव (आत्मा) है। यदि आँख देखे और कान सुने तो मुर्दे (मरा शरीर ) को भी देखनासुनना चाहिए। इसलिए तो कहा है कि शरीर अजीव है और आँख, कान आदि शरीर के ही हिस्से हैं, अतः वे भी अजीव हैं ।
हीरालाल
—
• अच्छा भाई ज्ञानचंद,
अब मैं समझ गया कि :
मैं जीव हूँ।
शरीर जीव है।
मुझ में ज्ञान है,
शरीर में ज्ञान नहीं है ।
मैं जीव हूँ।
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मैं जानता हूँ।
शरीर कुछ जानता नहीं है। ज्ञानचंद – समझ गये तो बताओ, हाथी जीव है या अजीव ? हीरालाल – जैसे हमारा शरीर अजीव है, वैसे ही हाथी आदि सब जीवों का
शरीर भी अजीव है, पर उनकी आत्मा तो जीव ही है।
यह समझ तो लिया, पर इसके जानने से लाभ क्या है ?
यह भी तो बतायो। ज्ञानचंद - इसको जाने बिना आत्मा की सच्ची पहिचान नहीं हो सकती और
आत्मा की पहिचान बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता, तथा हमें सुखी होना है, इसलिए इनका ज्ञान करना भी आवश्यक है।
जीव-अजीव का ज्ञान कर हम स्वयं भगवान बन सकते हैं।
प्रश्न -
१. जीव किसे कहते हैं ? २. अजीव किसे कहते हैं ? ३. नीचे लिखी वस्तुओं में जीव-अजीव की पहिचान करो :
हाथी, तुम , कुर्सी, मकान, रेल , कान, आँख, रोटी, हवाई जहाज ,
हवा, आग। ४. जीव-अजीव की पहिचान से क्या लाभ है ?
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पाठ छठवाँ
दिनचर्या
अध्यापक – बालको! अाज हम तुम्हारे नाखून और दाँत देखेंगे। अच्छा, बोलो
रमेश! तुम कितने दिनों से नहीं नहाये ? रमेश - जी, मैं तो रोज नहाता हूँ। अध्यापक – प्रतिदिन नहाने वाले के हाथ-पैर इतने गंदे नहीं होते है। हो
सकता है तुम रोज नहाते हो, पर दो लोटे पानी सिर पर डाल लेना ही नहाना नहीं हैं, हमें अच्छी तरह मल-मल कर नहाना चाहिए।
इसी प्रकार हमें अपने दाँत साफ करने के लिये प्रतिदिन प्रातःकाल मंजन भी करना चाहिए। जो बच्चे मंजन नहीं करते हैं उनके मुँह से बदबू आती रहती हैं, उनके दाँत कमजोर हो जाते हैं और गिर जाते हैं।
सुरेश - गुरुजी! मैं तो शाम को नहाता हूँ । अध्यापक – नहीं, हमें प्रत्येक काम समय पर करना चाहिये। तभी ठीक रहता
है। हमें प्रतिदिन की दिनचर्या बना लेना चाहिए और फिर उसके अनुसार अपना दैनिक कार्य निबटाना चाहिए।
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रमेश – गुरुजी! हमारी दिनचर्या आप ही बना दें। हम आज से उसके
अनुसार ही कार्य करेंगे। अध्यापक – प्रत्येक बालक को चाहिए कि वह सूर्योदय होने के पूर्व बिस्तर
छोड़ दे। सबसे पहिले नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करे, फिर
थोड़ी देर आत्मा के स्वरुप का विचार कर मन को शुद्ध करे। सुरेश - क्या मन भी अशुद्ध होता है ? अध्यापक – हाँ भाई, जिस तरह बाह्य गंदगी हमारे शरीर को गंदा कर देती
है, उसी प्रकार मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भावों से हमारा मन (आत्मा) गंदा हो जाता है। जिस प्रकार स्नान, मंजन आदि द्वारा हमारी देह साफ हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा के चिंतन से हमारा मन (आत्मा) पवित्र होता है।
हमें अंतर और बाहर दोनों की पवित्रता
पर ध्यान देना चाहिए। रमेश – उसके बाद? प्रध्यापक – उसके बाद शौच,
(टट्टी) आदि से निपट कर मंजन करके स्नान करे तथा शुद्ध साफ धुले हुए कपड़े पहिन कर मंदिरजी में देवदर्शन करने जाना चाहिए।
SH
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देवदर्शन की विधि तो तुम्हें उस दिन समझाई थी। उसके बाद ही अल्पाहार (दूध, नाश्ता) लेकर यदि स्कूल और पाठशाला का समय हो वहाँ चले जाना चाहिए, नहीं तो घर पर ही स्वयं अध्ययन करना चाहिए।
इसी प्रकार भोजन भी प्रतिदिन यथासमय १०-११ बजे शांतिपूर्वक करना चाहिए। शाम को दिन छिपने के पूर्व ही भोजन से निवृत्त हो जाना प्रत्येक बालक का कर्तव्य है। रात्रि को भोजन कभी नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि को भी जब तक तुम्हारा मन लगे ८-९ बजे तक अपना पाठ याद करना चाहिए। उसके बाद आत्मा और परमात्मा का स्मरण करते हुए स्वच्छ और साफ बिस्तर पर शांति से सो जाना
चाहिए। सब बालक – आज से हम आपकी बताई हुई दिनचर्या के अनुसार ही चलेंगे
और शरीर की सफाई के साथ ही आत्मा की पवित्रता का भी
ध्यान रखेंगे। प्रश्न -
१. एक अच्छे बालक की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ? २. प्रातः सबसे पहले उठकर हमें क्या करना चाहिए ? ३. शारीरिक सफाई और मन की पवित्रता से क्या समझते हो ? ४. शारीरिक सफाई के लिए क्या-क्या करना चाहिए ? ५. मानसिक (आत्मिक) पवित्रता के लिए क्या करना चाहिए ?
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पाठ सातवाँ
भगवान आदिनाथ
बेटी – माँ, चलो न घर! माँ - चलती तो हूँ, जरा भक्तामरजी का पाठ कर लूँ। बेटी – भक्तामरजी क्या है ? माँ - भक्तामर स्तोत्र एक स्तुति का नाम है, जिसमें भगवान आदिनाथ की
स्तुति (भक्ति) की गई है। बेटी – माँ, आदिनाथ कौन थे जिनकी स्तुति हजारों लोग प्रतिदिन करते है ? माँ - वे भगवान थे। वे दुनियाँ की सब बातों को जानते थे तथा उनके
मोह-राग-द्वेष नष्ट हो चुके थे, इस कारण परम सुखी थे।
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बेटी - क्या वे जन्म से ही वीतरागी सर्वज्ञ थे ? उनका जन्म कहाँ हुअा था ?
माँ
- नहीं बेटी, उन्होंने वीतरागता और सर्वज्ञता पुरुषार्थ से प्राप्त की थी।
उनका जन्म अयोध्या नगरी में वहाँ के राजा नाभिराय की रानी मरुदेवी के गर्भ से हुआ था।
बेटी – वे तो राजकुमार थे, उन्होंने क्या राज्य नहीं किया ?
माँ
- राज्य किया, विवाह भी किया था। उनकी दो शादियाँ हुई थीं। पहली पत्नी का नाम नन्दा था, जिससे भरत चक्रवर्ती आदि सौ पुत्र और ब्राह्मी नामक पुत्री उत्पन्न हुई। दूसरी पत्नी का नाम सुनन्दा था, जिससे बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।
बेटी - तो क्या भरत चक्रवर्ती और बाहुबली आदिनाथ भगवान के ही पुत्र
थे ?
माँ
- भगवान तो वे बाद में बने। उस समय तो उनका नाम राजा ऋषभदेव था। प्रथम तीर्थंकर भगवान होने से उन्हें आदिनाथ भी कहने लगे।
एक दिन राजा ऋषभदेव अपनी सभा में बैठे नीलांजना का नृत्य देख रहे थे। नृत्य के बीच में ही नीलांजना की मृत्यु हो गई। यह देख उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का ध्यान आया और राजपाट आदि सभी का राग छोड़कर दिगम्बर हो गये। छह माह तक तो आत्म-ध्यान में लीन रहे। उसके बाद छह माह तक पाहार की विधि नहीं मिली।
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SNP
एक वर्ष बाद अक्षय तृतीया के दिन ऋषभ मुनि का सर्वप्रथम आहार राजा श्रेयांस के यहाँ इक्षुरस (गन्ने का रस) का हुआ। उसी
दिन से अक्षय तृतीया पर्व चल पड़ा। बेटी - क्या वे मुनि होते ही सर्वज्ञ बन गये थे ? माँ - नहीं बेटी! एक हजार वर्ष तक बराबर मौन आत्म-साधना करते रहे।
एक दिन प्रात्म-तल्लीनता की दशा में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वीतरागी सर्वज्ञ भगवान बन गए।
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माँ
तथा उनकी दिव्य ध्वनि द्वारा तत्वोपदेश होने लगा जिससे भव्य
जीवों को मुक्ति के मार्ग का ज्ञान हुआ। - तो तुम क्या उनकी ही स्तुति करती हो ? मैं भी किया करूँगी। क्या
वे मुक्ति का मार्ग बतायेंगे ? – अवश्य किया करना। वे तो कुछ दिन बाद मुक्त हो गए थे। अर्थात् धर्मसभा (समवशरण) आदि को भी छोड़कर सिद्ध हो गए। पर उनका बताया हुआ मुक्तिमार्ग तो आज तक भी ज्ञानियों द्वारा हमें प्राप्त है और जो उनके बताए मुक्तिमार्ग पर चलें वे ही उनके सच्चे भक्त हैं तथा वे स्वयं भगवान भी बन सकते हैं।
प्रश्न
१. भक्तामर स्तोत्र में किसकी स्तुति है ? २. भगवान आदिनाथ का संक्षिप्त परिचय दीजिए। . अक्षय तृतीया पर्व के सम्बन्ध में तुम क्या जानते हो? ४. राजा ऋषभदेव भगवान आदिनाथ कैसे बने तथा उन्हें आदिनाथ क्यों कहा
जाता है ? ५. उन्हें वैराग्य कैसे हुआ ? ६. क्या उनका बताया हुआ मुक्तिमार्ग हम पा सकते हैं ? यदि हाँ, तो कैसे ?
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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ पाठवाँ मेरा धाम शुद्धातम है मेरा नाम, मात्र जानना मेरा काम। मुक्तिपुरी है मेरा धाम, मिलता जहाँ पूर्ण विश्राम।। जहाँ भूख का नाम नहीं है, जहाँ प्यास का नाम नहीं है। खाँसी और जुखाम नहीं है, प्राधि२ व्याधि का नाम नहीं है।। सत् शिव सुन्दर मेरा धाम, शुद्धातम है मेरा नाम। मात्र जानना मेरा काम।।१।। स्वपर-भेद विज्ञान करेंगे, निज प्रातम का ध्यान धरेंगे। राग-द्वेष का त्याग करेंगे. चिदानन्द रस पान करेंगे।। सब सुखदाता मेरा धाम , शुद्धातम है मेरा नाम। मात्र जानना मेरा काम / / 2 / / 1. निवास, 2. मानसिक रोग, 3. शारीरिक रोग, 4. सच्चा, 5. कल्याणकारी, 6. आत्मा का आनन्द। 24 Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com