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ज्ञानचंद
- जीव सुख व दुःख का अनुभव करता हैं, अजीव में सुख दुःख
नही होता। हम तुम
का
सुख-दुःख अनुभव करते हैं. अतः जीव हैं।
टेबल, कुर्सी सुख
दुःख का अनुभव नहीं करते, अतः अजीव है।
ये (टेबल और शरीर ) जीव है ।
-
हीरालाल – आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, शरीर में सुख - दुःख होता हैं, तो अपना शरीर तो जीव है न ?
ज्ञानचंद – नहीं, भाई ! आँख थोड़े ही देखता है, कान थोड़े ही सुनते हैं, देखने-सुनने वाला इनसे अलग कोई जीव (आत्मा) है। यदि आँख देखे और कान सुने तो मुर्दे (मरा शरीर ) को भी देखनासुनना चाहिए। इसलिए तो कहा है कि शरीर अजीव है और आँख, कान आदि शरीर के ही हिस्से हैं, अतः वे भी अजीव हैं ।
हीरालाल
—
• अच्छा भाई ज्ञानचंद,
अब मैं समझ गया कि :
मैं जीव हूँ।
शरीर जीव है।
मुझ में ज्ञान है,
शरीर में ज्ञान नहीं है ।
मैं जीव हूँ।
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