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'आओ जीना सीखें
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'आओ जीना सीखें
व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
अलका मांस्खला
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प्रकाशक एवं संपर्कसूत्र :
दीपचन्द सांखला
401, ऑर्नेट पॅलेस,
पिकनिक मॉल के सामने,
घोड़दौड़ रोड,
सूरत 395001.
(गुजरात)
C अलका सांखला मेहता
प्रथम संस्कारण : दिसम्बर 2006
प्रतियां 1000
मूल्य 65/- (5$ )
मुद्रक एवं टाइप सेटिंग :
बुरहानी ग्राफिक्स,
सूरत
मो. 98259 18190
आवरण
श्री शुभम एन्टरप्राईज, नवसारी.
मो. 9427578339
ढूँढ रही थी जिन्हें, ऐसे मिले गुरु महान्
जिनके शब्द-शब्द से मिला ज्ञान,
ऐसे गुरुदेव तुलसी के चरणों में मेरा भावभरा वंदन !
अर्पण
जिन्होंने दिया हर समस्या का समाधान, सिखाया जीवन का विज्ञान,
जिनसे हुई आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व की पहचान, जिनके द्वारा प्राप्त ज्ञान से निर्मित यह छोटी सी पुस्तक,
महान् आचार्य महाप्रज्ञजी के चरणों में अर्पण
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आशीर्वचन
प्रणाम मैंने जीना सीखना चाहा, चिंतन किया, पुरुषार्थ किया, बहुत कुछ मैंने पाया। हर पल, हर जगह, हर मोड़ पर, . मिला मुझे नया ज्ञान। हर विषय के गुरु मिले महान्, खुली आंखें, खुला है मन, दिखाई देता है हर तरफ ज्ञान । पहले गुरु मंडलिक और पौर्णिमादि ने, दिया योग-निसर्गोपचार का ज्ञान । शर्मा और दिकोंडा गुरु ने दिखाई, समर्पित कार्यकर्ता की शान। शोभा ताई ने शांत वृत्ति से दिया, वेद-अग्निहोत्र का ज्ञान। साधु-साध्वियों ने न जाने दिया कितना ज्ञान, अध्यात्म से करवाई पहचान । जिन-जिन से मिला ऐसा ज्ञान, उन सबको अंतःकरण से करती हूँ प्रणाम ।
संस्कार-निर्माण व्यक्ति जीवन की समस्याओं को सुलझाने में सक्षम होता है। संस्कारहीन व्यक्ति नई-नई समस्या पैदा करता है। संस्कार के अनेक क्षेत्र हैं। जिस व्यक्ति में अध्यात्म, धर्म और नैतिकता का संस्कार होता है, वह सदाचार को बढ़ाता है। संस्कार निर्माण वर्तमान युग की अपेक्षा है।
अलका सांखला प्रबुद्ध श्राविका है, संस्कार-निर्माण के क्षेत्र में निष्ठा से सक्रिय रही है। 'आओ जीना सीखें' संस्कार निर्माण की दृष्टि से एक सार्थक प्रयास है। यह विद्यार्थी के जीवन में संस्कारों के जागरण में निमित्त बने।
- आचार्य महाप्रज्ञ टमकोर, 28 नवम्बर 2006
-अलका
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आशीर्वचन
देश का भविष्य बालपीढ़ी है। उसे जितना तराशा या संवारा जाएगा, देश उतना ही समृद्ध और विकसित होगा । बालपीढ़ी को तराशने या संवारने का अर्थ है उसे जीने की कला का प्रशिक्षण देना। बच्चों को पुस्तकीय शिक्षा देने की बड़ी-बड़ी योजनाएं एवं व्यवस्थाएं हैं। किंतु उनके संस्कारनिर्माण की दृष्टि से व्यापक स्तर पर कोई काम नहीं हो रहा है।
बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं भावात्मक विकास अर्थात सर्वांगीण व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए एक प्रायोगिक शिक्षण-पद्धति की अपेक्षा है। बहन अलका सांखला ने अपने अनेक वर्षों के अनुभवों को आधार बनाकर बच्चों के लिए एक पुस्तक लिखी है आओ जीना सीखें। प्रस्तुत पुस्तक अपने ढंग की पहली पुस्तक है। चित्रों के माध्यम से इसे आकर्षक बनाने का भी प्रयास किया गया है। संभावना की जा सकती है कि प्रस्तुत पुस्तक देश-विदेश की समग्र बालपीढ़ी के ज्ञानवर्धन एवं संस्कारनिर्माण में उपयोगी सिद्ध होगी।
साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा
टमकोर 28-11-2006
शुभेच्छा संदेश
नैतिक समाज के निर्माण में आपकी किताब बच्चों के सामने रखकर आपने बहुत ही बढ़िया योगदान दिया है। छोटी-छोटी लेकिन काम की बातें सरल • भाषा में चित्र और कहानी के द्वारा बताकर आपने एक अच्छी लेखिका का परिचय दिया है।
बच्चों के अच्छे संस्कारों के निर्माणकार्य में आप आगे बढ़ते जाइए, हम आपके साथ है। आज के बच्चों में अखूट शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, लेकिन योग्य दिशासूचन • मिलने पर व्यय हो जाती है। इसे आपने खूबी से सही रास्ता दिखाकर पवित्र काम करने की कोशिश की है। अभिनंदन... अभिनंदन.... अभिनंदन ..... दि. 10-11-2006
रीटाबेन एन. फूलवाला (आचार्या) शेठ श्री पी. एच. बचकानीवाला विद्यालय, सूरत
शुभेच्छा संदेश
युग-विचार परिवर्तित हो रहा है। भौतिक महत्ता का प्राधान्य हो गया है। सुविधाएँ व्याप्त हो रही है। इससे मनुष्य का रचनात्मक संघर्ष एवं प्रस्वेद की प्रसन्नता लुप्त हो रही है। नीति-विचार की ओर से मनुष्य ने मुँह मोड़ लिया है। शिक्षा, दीक्षा बस भोग की दीक्षा बन गई है। ऐसे वक्त पर “आओ जीना सीखें..." जैसी संजीवनी किताब बच्चों के नीति स्वास्थ्य का जतन कर सकती है।
लेखिका की लेखनी ने बच्चों को रहबर बनाने का भीष्मकार्य सिद्ध किया है। बच्चों की परवरिश में छोटी-छोटी बातों का दृष्टांत के साथ ध्यान रखकर सही शिक्षा का निर्देश दिया है। नैतिकता एवं संस्कार शिक्षा के सभी अंगों से ऊपर है और गुणांकन से परे है। इस बात को लेखिका ने मजबूत तरीके से पेश किया है। भाषा सरल और सहज कलम से आती है। पाठशाला, मदरसों, विद्यालयों के लिए यह किताब संस्कार सृजन के लिए एक इल्म का कार्यमा जोशी ती औचार्य) आई.जी. देसाई स्कूल,
दि. 12-11-2006
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By
शुभेच्छा संदेश
अलका सांखला अत्यंत उत्साही, उचित सामाजिक संबंध, प्रामाणिक, बच्चों के लिए कुछ करने की तमन्ना रखती है। पुस्तक में लिखी बातें सबके लिए पढ़ने योग्य हैं।
लेखिका अलका को खूब बधाई और भी बहुत कुछ उनकी ओर से पढ़ने को मिले यह शुभकामनाएं।
माधवी कर्वे (आचार्या)
संस्कार भारती, स्कूल
शुभेच्छा संदेश
'आओ जीना सीखें' पुस्तक पढ़कर मैंने यह अनुभव किया कि लेखिका का सर्वांगी बालविकास के प्रति गहरा मानसिक एवं आत्मिक लगाव है। पुस्तक की भाषा सहज, सरल, बाल उपयोगी है और इसकी हर प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक है। पूरी पुस्तक की प्रस्तुतियाँ जीवन जीने की कला सिखने के प्रयोगों की सफल कुंजियों का मानो एक झुमका है।
'आओ जीना सीखें' में सर्वोच्च प्रमुखता दी है आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प, पवित्र उद्देश्य और महान् लक्ष्य को । श्रीमती अलका सांखला का जीवन अपने आप में एक प्रयोगशाला है। वह अणुव्रत आंदोलन एवं जीवन विज्ञान के कार्यक्रमों में सक्रिय है तथा बाल-सेवा के प्रति समर्पित है। अलकाजी अपने सेवाकार्यों के लिए सन्मानित और पुरस्कृत भी है। इसी वजह से पुस्तक की प्रस्तुतियों का लेखन सफल सिद्ध बन पाया है। उनकी यह पुस्तक निश्चय ही बालकों को सफल मार्गदर्शन करेगी।
दि. 20-11-2006
-मोहनलाल जैन बच्चों का देश राष्ट्रीय बाल मासिक
किताब किसके लिए?
क्या यह किताब केवल बच्चों के लिए है? जी नहीं। यह किताब हर उस व्यक्ति के लिए है, जिसने "जीने का सही प्रशिक्षण नहीं लिया और जिन्हें मार्गदर्शन करने वाले सही गुरु नहीं मिले।" जो व्यक्ति अपने जीवन में कुछ करने की भावना रखता
है पर कर नहीं पाता, वह अपनी हर समस्या का समाधान पाकर अपने सपनों को अंजाम देने में सक्षम बनेगा। यह किताब उस माँ के लिए बहुत ही उपयुक्त है, जो अपने बच्चों को मार्गदर्शन करके महान् बनाने की भावना तो रखती है। पर वह किस तरह उसे समझाए यह नहीं जानती। वो मातापिता जो बच्चों के लिए सही मार्गदर्शन करना चाहते हैं, इस किताब के आधार से बच्चों को सिखा सकते हैं और खुद भी सीख सकते हैं।
यह किताब स्कूलों में बच्चों को अच्छे बच्चे बनाने के लिए उपयुक्त है। स्कूल की पढ़ाई अच्छी है, परंतु अधूरी है, यह सबकी समझ में आया है। काफी शिक्षाधिकारी, आचार्य हैं, जो तहेदिल से इस कमी को पूरी करना चाहते हैं । उनके लिए यह किताब बहुत ही सार्थक होगी। इस किताब द्वारा हर व्यक्ति प्रत्येक क्षण का उपयोग करना जानेगा और सुव्यवस्थित, सुनियोजित तरीके से जीवन जीना सीखेगा।
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आभार
आँखों के सामने न जाने कितने चेहरे आ रहे हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मुझे पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी है और न जाने कितने ऐसे हाथ हैं जो मददगार बने हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक प्रकाशन को साकार करने में मुझसे ज्यादा मेहनत की है। हर एक का नाम लिखना संभव नहीं है।
सबसे पहले मैं उन बच्चों का आभार मानती हूँ जिनका मैंने शिविर लिया है। हरेक शिविर में बच्चों में उत्साह देखा, लगन देखी, कुछ सीखने की ललक देखी थी। शिविर होने के बाद बच्चे एक ही प्रश्न पूछते थे - "आपकी कोई पुस्तक है?" इसी प्रश्न ने पुस्तक लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया है।
मेरी माँ से तो मुझे हमेशा ही लिखने की प्रेरणा मिली है। मेरी हिन्दी शुद्ध नहीं है। हिन्दी के शुद्धिकरण के लिए मुझे हमेशा ही मेरे पति का साथ मिलता है। उनके अनन्य योगदान के लिए आभार मानना मात्र उपचार होगा।
गुजरात में हिन्दी का टाइपिंग करना एक मुश्किल काम है। श्री गणपत भंसाली को जैसे ही याद करो, कार्य सुलभ बन जाता है। उन्होंने श्री मुर्तजा का नाम दिया और काम सरल हो गया। मेहनत और अपनी क्षमता के माध्यम से मुर्तजा ने मेरी कल्पना को साकार किया। हिन्दी में मेरी यह प्रथम पुस्तक, पुफ रीडिंग भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। श्री गोविंदभाई जोशी को एक बार पूछते ही उन्होंने उस्फूर्त और सहज भाव से यह काम किया। मैं उनका भी आभार व्यक्त करती हूँ।
नवसारी में मैंने भक्ताश्रम, संस्कार भारती और डी.डी. गर्ल्स स्कूलों में काफी काम किया। वहां के श्री महादेवभाई देसाई, जो बच्चे किताबें पढ़ें इसके लिए हमेशा नए नए प्रयोग करते हैं। उन्होंने संस्कार भारती स्कूल में मुझे योगशिक्षक के रूप में काम करने की प्रेरणा दी थी और उस समय मैं बहुत कुछ सीख पाई। संस्कार भारती स्कूल की आचार्या माधवीबेन कर्वे, जो हमेशा ही मुझे मदद करती थी। इस स्कूल में मैंने काफी कार्यक्रम किए। इन सबकी मैं आभारी हूँ।
पुस्तक का मुखपृष्ठ बनाना एक महत्त्वपूर्ण काम है। सोनिया कांबले जैसी कलाकार मुझे मिली। मेरी भावनाओं को कला के रूप में उसने प्रेषित किया। बचकानीवाला स्कूल की आचार्या और ड्राइंग टीचर मयूरभाई जिन्होंने बच्चों को प्रेरणा देकर मुझे चित्र बनाकर दिए। इन सबकी मैं आभारी हूँ।
बच्चे हों या बूढ़े, नर हों या नारी, सबको लगती है कहानी प्यारी। बच्चों की किताब लिखते समय अच्छे विचार और कहानियाँ लिखने का मैंने निश्चय ही किया था। श्री रतनचंद जैन लिखित प्रेरक-पसंग और सूक्तियां जैसी अनमोल किताबें पढ़ने के लिए मिली इसके लिए मैं जयश्री की आभारी हूँ। इस किताब का मुझे काफी सहयोग मिला । मैं इनको भी धन्यवाद देती हूँ।
अहमदनगर (महाराष्ट्र) में भूषण देशमुख, अंभोरे, विलास गीते, सदानंद भंणगे और सभी मित्र मुझे हमेशा प्रेरणा देते हैं। मदद करने के लिए भी हमेशा तत्पर रहते हैं। उनकी भी मैं आभारी हूँ। 'बच्चों का देश' मोहनभाई जैन का उत्साह हमेशा सामने आता है, तो मैं नतमस्तक होती हूँ। उनका संपूर्ण परिवार जो कार्यरत है, मैं उनके साथ जुड़ कर उनमें से ही एक हूँ ऐसा महसूस करती हूँ। संचय जैन और महादेवभाई के सुझाव किताब लिखते समय काफी उपयुक्त रहे। उन्हें भी मैं अंतःकरणपूर्वक धन्यवाद देती हूँ।
कनक बरमेचा, पूनम गुजरानी, रजनी जैन, श्री और सौ. सराफ, बालुभाई, भरतभाई और हमारे अणुव्रत, जीवन विज्ञान की पूरी टीम हर तरह की मदद के लिए तत्पर रहती है। इन सबका मैं अंतर्मन से आभार व्यक्त करती हूँ।
इस किताब को लिखने से पहले मैंने काफी किताबें पढ़ी थीं। जो भी बातें अच्छी लगती, बच्चों को देने के लिए मैं नोट करती थी. पर अन्जाने में या बदकिस्मती से कई बार लिखी हुई सूक्तियां, कहानियां जिनकी हैं उनका नाम लिखना मैं भूल गई थी। इन सबका मैं आभार प्रकट करना चाहती हूँ। इन स्रोतों की जानकारी न होने के कारण नाम नहीं लिख सकती इसका मुझे अफसोस भी है। इसलिए सारे ज्ञात-अज्ञात की मैं आभारी हूँ।
पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की किताबों से मैंने बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ पाया है। उनका आशीर्वाद हमेशा ही मुझे मिला है। उनके प्रति मैं नतमस्तक हूँ। साध्वी कनकनी से भी हमेशा विशेष प्रेरणा मिलती है। उनके प्रति भी मैं नतमस्तक हूँ। सबके लिए मैं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।
- अलका सांखला
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एक संक्षिप्त परिचय
आपने सेठ जी. एस. एम. कॉलेज से एम.बी.बी.एस., जी. डी. ओ. एफ. सी.पी.एस., एम.डी. की डिग्री प्राप्त की और 1967 में अमेरिका गई । वहां की जेविस / बार्नस हॉस्पिटल, वॉशिंगटन युनिवर्सिटी में सीनियर रेसीडेन्ट डॉक्टर के रूप में सेवाएं प्रदान की। आपने अमेरिकन फेलोसिस 1971 में प्राप्त की। आप 1973 से ही अमेरिका के डेट्रोइट शहर में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं।
डॉ. भानुसेन शाह
डॉ. भानुबेन शाह अमेरिकन असोसिएशन ऑफ फीजीसियन्स फ्रोम इण्डिया की संस्थापक सदस्य रही हैं। इस संस्था की स्थापना आपके द्वारा हुई। इसका गौरव आपको प्राप्त है।
आपने 25 वर्षों तक मिसीगन असोसिएशन ऑफ फीजीसियन्स ऑफ इण्डिया ओरिजन की संस्थापक सदस्य रहकर संस्था का मार्गदर्शन किया। | इसके लिए आपको ऑनर दिया गया है।
आप कहती हैं, मेरी सफल जीवन यात्रा में उनकी माताजी, भाई, मित्र, परिवार, गुरू और सबसे उपर अमेरिका में स्थित भारतीय समाज का आशीर्वाद रहा है और उनके प्रति अपना प्रेम, स्नेह और सम्मान व्यक्त करने के लिए उनके पास कोई शब्द नहीं है। वे भारतीय समाज को अपनी रीढ़ की हड्डी मानती हैं। योगा, ध्यान और जनकल्याण से उन्हें काफी आध्यात्मिक शक्ति मिली है।
आपको 1969 से ही स्वामी परमहंस के योग-नन्दा टीचिंग से प्रेरणा मिलती आई है और तभी से आप क्रियायोग के क्षेत्र में अच्छा कार्य कर रही है। 1996 में आपकी शादी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर श्री जयभाई के साथ हुई। जयभाई भी अपने भारत देश को बहुत प्रेम करते हैं और उन्होंने भारतीय संस्कृति के अनुरूप अपने जीवन को संजोया है।
सभी युवकों को वह संदेश देती हैं भारतीय खाना खाओ, कोक और पेप मत पीओ, खूब विटामीन्स खाओ। चावल और शक्कर कम खाओ। कसरत करो और अपनी संस्कृति का जतन करो।
प्रेरणा मिली अमेरिका में
मेरी प्रिय सखी सीमा शाह आज से करीब 35 साल पहले के पूना कॉलेज में प्रवेश के समय मिली थी और हम दोस्त बन गई। सिर्फ 1 ही वर्ष बाद उसकी शादी हुई और वह अमेरिका चली गई, लेकिन आज भी हमारी दोस्ती गहरी है। हम पत्र व्यवहार से हमेशा जुड़ी रहती हैं। मित्रता के बारे में हमेशा किस्मतवाली रही हूँ और अच्छे अच्छे मित्रों का खजाना मेरे लिए हीरे और जवेरात से भी ज्यादा मूल्यवान है।
मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं भी कभी अमेरिका जाऊंगी। जब मैं पहली बार अमेरिका में सीमा से मिली तो आश्चर्यचकित हो गई। उसने वहां बहुत ही अच्छे संपर्क स्थापित किए हैं। बहुत बड़ा दायरा बनाया है। काफी अच्छी अच्छी संस्थाओं से जुड़ने के कारण उसने वहां मेरे कई कार्यक्रम रखे।
अमेरिका में अपनी हिन्दू संस्कृति का जतन करने के लिए काफी लोग कार्यरत हैं। डेट्रोइट नूतन ओक के यहां भी सीमा ने कार्यक्रम रखा था । हिन्दू टेम्पल में भी संस्कार और संस्कृति के अच्छे कार्यक्रम होते हैं। वह डॉ. भानुबेन एवं जयभाई के यहां क्रियायोग सीखने जाती थी। मैं उनके साथ डॉ. भानुबेन के यहां गई और उनका परिचय हो गया। वहां रहते हुए
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भी भारतीय संस्कृति को उन्होंने सहज भी नहीं भूला है। देश के प्रति उन्हें अटूट प्रेम है। निर्मल भावना से वह डॉक्टर के साथ जन कल्याण का भी काम करती है। उन्हें जब मालूम हुआ कि मैं बच्चों के संस्कार निर्माण का कार्य करती हूँ और लिखती हूँ तो उन्होंने मुझे किताब लिखने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा से मैंने यह किताब लिखने का संकल्प किया। पारिवारिक व्यस्तता के कारण पुस्तक लिखने में विलंब हुआ, लेकिन वो प्रेरणा आज साकार हुई इसकी मुझे खुशी है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सबके लिए काफी उपयुक्त सिद्ध होगी।
सनसनाटी में जैन संस्था के लिए समर्पित कार्यकर्ता चंदुभाई, रमीलाबेन शाह ने 8 दिन पर्युषण में मेरे लेक्चर रखे थे। वहां भी भारतीय संस्कृति का जतन करने वाले काफी परिवार मिले। वहां की बहनों ने 8 दिन मौन में अड्डाई तप किया, तब मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था। 35-40 साल से वहां रहते हुए भी कुछ ऐसे परिवार हैं, जो कभी प्याज आलू भी नहीं खाते।
ह्यूस्टन में नीलिमा जोर्वेकर जो मेरी कॉलेज की सखी है, अच्छा काम करती है। सिंघवी परिवार को भी वहां भारतीय संस्कृति का जतन करते हुए मैंने देखा । इन सबके कारण अमेरिका में मुझे काफी प्रेरणा मिली। तेरापंथ में जो सुव्यवस्थित ज्ञान मिला, मैं उपासक बनी इसका मुझे बहुत फायदा हुआ ।
भारत में हो, अमेरिका में हो या दुनिया के किसी कोने में हो, इस बात को मत भूलना शिक्षा के पंख लगाकर चाहे विकास की कितनी भी उड़ान भरो, पर अपने पैर संस्कार और संस्कृति की भूमि पर हमेशा टिके रहे।
अलका
सारी दुनिया का ज्ञान प्राप्त करके भी जो स्वयं को नहीं पहचानता, उसका सारा ज्ञान ही निरर्थक है।
- शंकराचार्य
जीना
(LELVE
सीखें
विष और अमृत,
एक ही समंदर में । इन्सान और शैतान, एक ही कंदर में । हिंसा और अहिंसा, दोनों ही मानव के अंदर में ।
चुनावका भाई, चुनाव करो आओ जीना सीखें
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पठले इसे पढ़ें फिर आगे बढ़ें
सब कुछ सीखा हमने,
न सीखा हमने जीना। फिर बताओ मुझे,
कैसे होगा सुखमय जीना? सोचो खुद ही थोड़ा,
कैसे होगा सफल जीना? चिंतन करके देखो,
क्या आनंदमय है तुम्हारा जीना? पूछना अपने आपसे,
क्या सीखा तुमने जीना? नहीं.... हमने नहीं सीखा जीना।
अनुक्रमणिका 1 बोयह किताब क्यों पढ़े ?.............. ................19 जीना सीखें.....
...........20 जीना सीखें, जीने का ज्ञान, सब कुछ अंदर है,
सब कुछ सिखना पड़ता है, जीवन का उद्देश्य निश्चित करो। 3 शिक्षा हमें क्या देती है?..
......25 पैसा हमें क्या देता है?, मूल में ही कुछ भूल है,
जागरुकता 4 स्वयं को पहचानो ............
.................29 सीखने की कोई उम्र नहीं होती, अच्छा इन्सान बनें,
जीवन की पोथी पढ़ो, अपने दीए खुद बनो, 5 आज की समस्या ......
........34 पढ़ाई के साथ, प्रयोग की आवश्यकता 6 सफलता..
सत्य, ज्ञान, अणुव्रत 7 संकल्प .................
आयोजन-नियोजन, अनुशासन, आत्मविश्वास, 8 स्वस्थ रहो...............
योग, रूचि, पढ़ेगा वही आगे बढ़ेगा, चरैवेति १ टी.वी. के दुष्परिणाम ........... 10 प्रयोग करें.......
श्वास, सोना-उठना, खाना-पीना, बोलना, 11 गुस्सा
हँसते रहना, स्मृति विकास, कैसे करे पढ़ाई 12 मैने यह किताब क्यों लिखी? ...
प्रश्न-प्रश्न-प्रश्र, सवालों के जवाब, योग, दृष्टि बदली, मिले गुरू ऐसे महान्, सत्य का शोध, आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्त्व, हर समस्या का समाधान
अपने आपको बदल सकते हो 13 जीवन विज्ञान
जीना सीखाने वाला ज्ञान __14 रुप और गुण.
....91
तो सोचो मत,
आओ मिलकर सीनवें जीना। पढ़ो ध्यान से इस पुस्तक को,
अरवमय होगा तुम्हाला जीना।
सुंदल, आनंदमय होगा तुम्हारा जीना। एक-एक प्रयोग को दिल से,
सफल होगा तुम्हारा जीना। आओ मिलकर सीन ठम जीना।
1oo
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सुनहरी भेट
आओ जीना सीन...
बच्चे यह किताब क्यों पढ़े? 19 बच्चे यह किताब क्यों पढ़ें?
बच्चो! यह पुस्तक आपके लिए खजाना है, एक सुनहरी भेंट है। जिसे आप समझोगे और सहज स्वीकार करोगे तो आपके भाग्य के दरवाजे निश्चित ही खुल जाएंगे। हाँ, शर्त इतनी है कि -
इस पुस्तक को... न केवल पढ़ना है, पढ़कर जानना भी है। न केवल जानना है... इसे समझना भी है। न केवल समझना है... इसे जीवन में उतारना भी है। इस पुस्तक में है अनेक प्रयोग,
अच्छे हैं आप के योग। तो आप जरूर करेंगे प्रयोग, जिससे बढ़ेगा आपका मनोयोग।
दूर होंगे सारे रोग,
श्रेष्ठ बनने के, हैं ये प्रयोग।
बच्चो! तुम असीम अर्हताओं से सम्पन्न हो। जैसा चाहो वैसा बन सकते हो। निरंतर परिवर्तन की क्षमता तुम्हारे में है। नई संभावनाओं की खोज करके, उन्हें योजनाबद्ध करके कार्य करोगे तो देखना एक नहीं अनेक क्षमताओं का विकास कर सकते हो। प्रगति तो आपका इंतजार कर रही है।
आचार्य महाप्रज्ञजी कितना सही फरमाते हैं - मैं कुछ करना बस एक बार खुद जग जाओ। मैं कुछ करना चाहता
___ चाहता हूँ, कुछ हूँ, कुछ बनना चाहता हूँ, ये भाव एक बार जग जाएं तो बच्चो ! हर असंभव तुम्हारे लिए संभव है और तुम
बनना चाहता हूँ, ये वह पा सकते हो जो तुम चाहते हो। सुनहरा भविष्य भाव एक बार जग तब होगा, जब पुरुषार्थ करोगे।
जाएं तो बच्चो। हर इस पुस्तक में यही प्रयत्न किया गया है, आप
असंभव तुम्हारे खुद अपने पुरुषार्थ से, प्रयत्न से और मेहनत से अपना भविष्य सुनहरा बन सकते हो। छोटे-छोटे प्रयोग दिए लिए संभव है और हैं, जिन्हें जानना, समझना और जीवन में उतारना तुम वह पा सकते जरुरी है। स्टेप बाय स्टेप क्या करना, कैसे करना
हो जो इसका स्पष्ट चित्रण दिया है।
तुम चाहते हो। एक-एक बात को समझो और प्रयोग करो, देखो
देखते-देखते तुम केवल सुनहरा भविष्य तब
अच्छे ही नहीं, महान होगा, जब बन सकते हो । मुझे आशा ही नहीं अपितु विश्वास है, आपका हर एक सपना साकार होगा, जिसे आपने अपने मन में संजोया है। भविष्य सुनहरा है, बस पुरुषार्थ की आवश्यकता है।
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बच्चे बळ किताब क्यों पढ़े?
आओ जीना सीन... गजीने का ज्ञान
आओ जीना सीनवें...
बच्चे यह किताब क्यों पढ़े? 0 जीना सीखें प्रिय बच्चो! यह पुस्तक वास्तव में आपके लिए ही लिख रही हूँ, क्योंकि मुझे बच्चों पर पूरा भरोसा है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि बच्चे तो अच्छे ही होते हैं। बच्चों को अच्छा बनाना बहुत ही सरल काम है। कारण, जो बात बच्चों को अच्छी लगती है, उसे सहज ही अपना लेते हैं। प्रश्न यह है कि अच्छी बातें बच्चों को उनके स्तर पर जाकर कैसे समझाई जाएँ, जिन्हें वे सहज स्वीकार कर सकें। मैं लंबे अरसे से बच्चों के साथ काम कर रही हूँ, क्योंकि बच्चे मुझे अच्छे
लगते हैं। मैंने बच्चों के कई शिविर लिए हैं और मेरा यह न तो आदेश है अनुभव है कि इन शिविरों में बच्चे आनंद और उत्साह और न ही उपदेश से सम्मिलित होते हैं। बच्चे हर बात को समझकर वैसा
ही करने की कोशिश करते हैं। मैं तो सिर्फ चाहती
____ कई बार छोटे-छोटे बच्चों पर मैंने व्यक्तिगत प्रयोग हूँ कि आप के
भी किए हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि जो बात वे जीवन का
अभिभावकों के द्वारा नहीं मानते, उसी बात को उनके सर्वांगीण विकास
स्वभाव को मद्देनजर रखकर कहानी और गीत के हो। पढ़ाई के माय
माध्यम से समझाई गई तो उन्होंने सहज ही स्वीकार
कर ली। आप जीना सीखें।
मुझे आशा है, बच्चे इस पुस्तक के हर आयाम
को समझेंगे और सहज स्वीकार करेंगे। यह न तो आदेश है और न ही उपदेश । मैं तो सिर्फ चाहती हूँ कि आप के जीवन का सर्वांगीण विकास हो। पढ़ाई के साथ आप जीना सीखें । अच्छे बच्चे बनने के साथ-साथ अपने भाग्य के विधाता भी बनें । आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक में कहा है - "मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता" और इसी संदेश को मैं आप तक पहुँचाना चाहती हूँ। आदेश और निर्देश से परे यह मेरी मंगल भावना है कि आप जीना सीखें। 4
असीमित आकांक्षाएं, अधिक कार्यभार, इससे जीवन अस्तव्यस्त हो रहा है। दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो रही है। ज्ञान तो बहुत मिल रहा है। इन्टरनेट खोलते ही ज्ञान का खजाना मिलता है। सब विषयों की कक्षाएं हैं। जिसको जो सीखना है, वह सीख सकता है।
कम्प्यूटर और मोबाइल से दुनिया की कोई भी इन्फोर्मेशन व्यक्ति क्षण में पा लेता है। मनुष्य सब कुछ जानता है, पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है जीना। जीने का ज्ञान प्राप्त करना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
सब ज्ञान से बढ़कर है जीवन संवारने का ज्ञान । आनंद का खज़ाना और सुख पाना । जीवन की नींव सुदृढ़ करने का ज्ञान । छोटी-छोटी बातें जिससे जीवन बनेगा महान्, ऐसा ज्ञान अपेक्षित है।
बद्यो! आज पढ़ाई में सब आगे हैं। पढ़ाई का अपना महत्त्व भी है। पर इतना समझना जरूरी है कि स्कूल की पढ़ाई अच्छी है, किंतु वह अधूरी है। वह अच्छा डॉक्टर और इन्जीनीयर बनाती है पर अच्छा इन्सान नहीं बनाती।
इसलिए पढ़ाई के साथ हमें जीना भी सीखना है। पढ़ाई बुद्धि पर आधारित है। हमें हृदय और आत्मा का भी विकास करना है। बौद्धिकता के साथ भावात्मक और मानसिक विकास भी करना है। जीना सीखो, इसमें सब कुछ आएगा। 4
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बच्चे यह किताब क्यों पढ़े?(2)
आओ जीना सीन...
सब कुछ अंदर है
आओ जीना सीन...
बच्चे यह किताब क्यों पढ़े? (3) सब कुछ सीरवना पड़ता है
Mos
GAD
बच्चो। यह एक ऐसा अभ्यासक्रम है, जो आपके जीवन को अर्थपूर्ण बनाएगा। सही दिशा K" निर्देश करेगा और जीवन का लक्ष्य निश्चित करने । में मदद करेगा। हर अच्छाई तक पहुँचने का सरल मार्ग इसमें बताया है। सत्य की खोज करके, सत्यदर्शन पर आधारित जीवन जीने का ज्ञानमय मार्गदर्शन है। अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने का यह अभ्यास है। बुराई से अच्छाई तक पहुँचने का मार्ग इसमें बताया है। गति तेजी से प्रगति में कैसे
बदले, यह इस पुस्तक में बताये गए प्रयोग के बाद सत्य की खोज पता चलेगा। करके, सत्यदर्शन नर से नारायण बनने की क्षमता हर बच्चे में है। पर आधारित
पहले अच्छा इन्सान बनना जरूरी है। फिर महान्
और भगवान् भी बन सकते हो। खुला मन, खुली जीवन जीने का
आँखें और मँजे हुए विचारों की जरूरत है। हर कोई ज्ञानमय मार्गदर्शन तुम्हें मार्गदर्शन करना चाहता है। परिवार वाले, शिक्षक, है। अंधेरे से विद्वान, बुद्धिजीवी और उपदेशक ऐसे न जाने कितने प्रकाश की ओर लोग हैं।
बच्चो! उन्हें समझना जरूरी है। साथ में अपना जाने का यह
चिंतन करना, स्वतंत्र विचार रखना और विवेक से अभ्यास है। बुराई
काम लेना चाहिए। मन में कोई आग्रह नहीं चाहिए। से अच्छाई तक दुराग्रह तो बिलकुल नहीं चाहिए। पूर्वाग्रह से दूर ही पहुंचने
रहो। आपके पास होना चाहिए अपना निग्रह । न
रूढ़िवादी, न कट्टरवादी। नया सब अच्छा होता है ऐसा भी नहीं और पुराना सब खराब होता है, ऐसा भी नहीं।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, सब कुछ अंदर है। स्वयं को जानना और अच्छाई कैसे बाहर आए यह देखना। इसके लिए पुरुषार्थ की जरूरत है।
मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है, पर जब वह आप जैसा छोटा बच्चा होता है तो दूसरों पर अवलंबित होता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को सब कुछ सीखना पड़ता है। चलना, बोलना, लिखना और पढ़ना हमें सिखाया जाता है। तभी धीरे-धीरे सब कुछ आता है। जैसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाया जाता है, ठीक उसी तरह स्कूल में भेजकर पढ़ाई द्वारा अनेक विषयों का ज्ञान दिया जाता है।
* शुरुआत कहां से करें ? बच्चो! हर बात की शुरुआत तो करनी ही पड़ती है। आप कहाँ से शुरुआत करना चाहते हो? तो आओ। हम देखते हैं, शुरुआत कहाँ से करें? कैसे करें? बस शर्त इतनी है, इसे ध्यान से पढ़ना और धीरे
धीरे समझना है। * मनुष्य एक श्रेष्ठ प्राणी है देखो। तुम्हें क्या-क्या अच्छा लगता है, ग्रेट लगता है... जैसे कम्प्यूटर आदि से कितना ज्ञान होता है। इन्टरनेट - क्षण में सब ज्ञान के खजाने को सामने हाजिर करता है। दुनिया में ऐसी न जाने कितनी चीजें है, जिनके बारे में हम आश्चर्य से देखते हैं। यह सब तो मनुष्य की खोज है, उसके दिमाग से निकला हुआ यह ज्ञान है। तुम्हें पता है, अपने मस्तिष्क में अनंत क्षमताएं हैं, परंतु आदमी उन क्षमताओं का 5-6 प्रतिशत ही उपयोग करता है। इसलिए, यह समझ लो कि मनुष्य यानी तुम खुद ही एक श्रेष्ठ प्राणी हो। अगर कोई 10 प्रतिशत उपयोग करने लगता तो वह महान् बन जाता है।
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आओ जीना सीन...
बच्चे यह किताब क्यों पढ़े? 0
शिक्षा ठमें क्या देती है?0
आओ जीना सीन...
शिक्षा हमें क्या देती है?
जीवन का उद्देश्य निश्चित करो
बच्चो। एक बात याद रखो कि जन्मतः हम कुछ संस्कार लेकर आते हैं। कुछ हमें घर, स्कूल और वातावरण से मिलते हैं। विकसित बुद्धि और
विवेक के कारण आज की दुनिया मनुष्य बहुत कुछ प्लानिंग
सीख सकता है। क्या
सीखना है यह निश्चित मेनेजमेन्ट
कर सकता है। की है। तो आओ। अनंत शक्ति का स्रोत होने के बावजूद भी मनुष्य जीने के हर पल उसका अधिकाधिक उपयोग नहीं करता। अपनी का सुव्यवस्थित,
क्षमताओं को वह सही तरह नहीं समझता, क्योंकि
उसका लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता और सुव्यवस्थित सुनिश्चित और
आयोजन-नियोजन भी वह नहीं करता । इसलिए क्यामुन्दर आयोजन क्या सीखना? कब और कहां सीखना? सब कुछ
सोचकर, समझकर, आयोजन पूर्वक करना है। आज की विया प्लानिंग-मेनेजमेन्ट की है। तो आओ। जीने के हर पल का सुव्यवस्थित, सुनिश्चित और सुन्दर आयोजन करें।
सबसे बड़ी चुनौती है, जीवन का लक्ष्य तय करना । जीवन का लक्ष्य तय नहीं होता, तब जैसा दिन आता है वैसे ही चला जाता है, आज की दुनिया में नए-नए
आकर्षण पैदा किए जा रहे हैं। नये नये विज्ञापन हमें आकर्षित करते हैं। भागदौड़ बढ़ती जा रही है, जिसमें जीना जटिल बन रहा है।
ऐसे वातावरण में जीवन का उद्देश्य निश्चित करना अत्यंत आवश्यक बन गया है।
बच्चो! इसे गहराई से पढ़ो। चिंतन करो और उसके बाद तय करो कि हमें क्या सीखना है? आज की सारी पढ़ाई, धन के अर्जन को केन्द्र स्थान में रखकर ही बनाई गई है। शिक्षा लेने के बाद अच्छी नौकरी मिल जाती है। डॉक्टर, इन्जीनीयर बनकर धन कमाने में जुटते हैं। उसके बाद सारी सुविधाएं चाहिए, उसके लिए अधिक कमाना जरुरी। एकांगी दृष्टिकोण से दी गई यह शिक्षा धन कमाने का उद्देश्य बना देती है। धन कमाना ही जीवन का और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बन जाता है।
चारों ओर पैसा-पैसा और पैसा यही एक गूंज सुनाई देती है। पैसा जरूरी है, इसे नकारा नहीं जाता, पर केन्द्र में क्या है? पैसा या जीना? यह भी समझना जरूरी है।
“धन से धन की भूख बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती"
-प्रेमचंद
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आओ जीना सीनवें...
पैसा हमें क्या देता है ?
बच्चो ! इस तथ्य को समझो, पैसा जरूरी है पर पैसा ही सबकुछ नहीं है। पैसे से आप अप्रतिम घर, ए.सी. रूम, फोम के गद्दे और डनलप के तकिए खरीद सकते हैं। क्या इसके साथ सुख चैन की नींद मिलेगी इसका विश्वास है?
शिक्षा हमें क्या देती है? 26
महल, गाड़ी, नौकर-चाकर, धन, परिवार सब कुछ होने के बाद भी शांति नहीं। कितने ड्रेस, कितने गहने और न जाने क्या-क्या खरीद लेते हैं, फिर भी समाधान नहीं और आनंद की अनुभूति प्राप्त नहीं होती है।
जीवन यात्रा चलाना जरूरी है। उसके लिए पढ़ाई आवश्यक भी है, पर साथ में जीना सीखना आवश्यक है। इसके अभ्यास से शिक्षा की अपूर्णता पूर्णता में बदल जाएगी। धन कमाने के साथ उसका सही तरीके से इस्तेमाल करना सीखा जा सकता है। इसलिए स्कूल की पढ़ाई के साथ जीने की पढ़ाई भी आवश्यक है।
केवल बौद्धिक उड़ान लेना पढ़ाई नहीं, शिक्षा नहीं । विविध प्रवृत्तियों और भावनाओं द्वारा सुसंस्कृत तरीके से बदलाव लाना शिक्षा होती है।
डॉ. राधाकृष्णन
इसलिए हमें यह निश्चित करना है कि पढ़ाई के साथ-साथ जीवन के हर पल का सदुपयोग कैसे हो, व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे हो ? अपनी रुचि और जीवन को समझकर एक ऐसा लक्ष्य बनाना है,
जिससे जीवन आनन्दमय और सुखमय हो ।
आजकल शिक्षा तो रोटी कमाने का धंधा हो गई है। यह शिक्षा नहीं मजदूरी है। इससे राष्ट्र की उन्नति नहीं अवनति हो रही है।
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लोकमान्य तिलक
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आओ जीना सीखें...
मूल में ही कुछ भूल है
शिक्षा हमें क्या देती है? 27
आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं "शिक्षा ने मनुष्य को एक साधन बना दिया है। साधन इस अर्थ में बना दिया कि मनुष्य धन का अर्जन कर सके। ऐसे उपाय खोज सके जिनके द्वारा धन बढ़े, सुविधा बढ़े और किसी वैज्ञानिक तकनीक या किसी विशिष्ट क्षेत्र में उसकी क्षमताएं प्रकट हो सके। इतना सब किया जा रहा है, किन्तु वह अपने आप में आदमी बन सके, ऐसा प्रयत्न कम हो रहा है।
जीवन की यात्रा को चलाने के लिए जीवन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो पढ़ाया जाता है, उसके साथ अच्छा जीवन जीने की शिक्षा भी अवश्य दें। अगर यह बात जुड़ जाए तो शिक्षा की अपूर्णता को पूरा किया जा सकता है। बच्चे को धन कमाने के लिए आपने खूब पढ़ाया, किन्तु सुखी जीवन जीने के लिए आपने उसे कोई शिक्षा नहीं दिलाई। पढ़ तो वह खूब गया, बुद्धि बहुत पैनी हो गयी, तर्कशक्ति प्रबल हो गयी, समझ प्रखर हो गयी। अब छोटी कोई बात होगी तो भी उसे अखरेगी। क्योंकि भावनात्मक जगत तो वैसा ही है। क्रोध वैसा ही, अहंकार वैसा ही, लोभ वैसा ही, भय भी वैसा ही कामवासना भी वैसी ही ऐसा विकास उसके लिए खतरनाक बन सकता है।
शिक्षा में तीन बातों के विकास की आवश्यकता है शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक आज शारीरिक और मानसिक विकास की तो शिक्षा दी जाती है पर भावनात्मक (इमोशनल) विकास की बात नहीं की जाती जबकि तीनों में सबसे मूल्यवान यही है। इसीलिए तो मूल में ही भूल हो रही है।”
मूल में ही कुछ भूल के कारण बच्चों को जो शिक्षा स्कूल में नहीं मिलती है, उसे ध्यान में रखकर इस पुस्तक में इसे देने का प्रयत्न किया गया है। दृष्टि बदलेगी तो सृष्टि भी बदलेगी । उसके लिए प्रयोग की आवश्यकता है। तभी जीवन आनंदमय होगा।
विद्या के प्रांगण में अब व्यापक जीवन विज्ञान हो शिक्षा का नव अभियान हो बौद्धिकता के समरांगण में भावों का सन्मान हो
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आओ जीना सीन...
शिक्षा ठमें क्या देती है? ®
स्वयं को पठचानो 9
आओ जीना सीन...
स्वयं को पहचानो
है
* जागरुकता जीवन की सफलता का बड़ा सूत्र
केवल जान लेने, उच्चारण कर देने या उपदेश देने से समता संपन्न नहीं होती। हम जो चाहते हैं, वह निष्पन्न नहीं होता, वह होता है क्रिया के द्वारा।
प्रकृति के कण कण में कुछ है, व्यर्थ कुछ भी नहीं, हर व्यर्थ का अर्थ होता है। कण-कण एक दूसरे से जुड़ा है। प्रश्न है उसे जानना, समझना और पहचानना । सत्य की खोज हर कोई कर सकता है। इसलिए आओ, छोटी छोटी बातों को समझें।
त्यर्थ क्या है?
एक शिष्य ने दान-प्राप्ति के बाद अपने ऋषि-गुरु को दक्षिणा देनी चाही। गुरु ने दक्षिणा के रूप में वह चीज माँगी, जो बिलकुल व्यर्थ हो। शिष्य व्यर्थ चीज की खोज में निकला। उसने मिट्टी की और हाथ बढ़ाया तो मिट्टी बोल पड़ी - 'तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो? क्या तुम्हें पता नहीं है कि इस दुनिया कासारा वैभव मेरेही गर्भसे प्रकट होता है। ये विविध वनस्पतियाँ, ये रूप, रस और गन्ध सब कहाँ से आते हैं?' शिष्य आगे बढ़ा, थोड़ी दूर पर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, इसे ही ले लूँ। लेकिन जैसे ही उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पत्थर से आवाज आई- 'तुम इतने ज्ञानी होकर भी मुझे बेकार मान रहे हो? तुम अपने भवन और अट्टालिकाएँ किससे बनाते हो? तुम्हारे मन्दिरों में किसे गढ़ करदेव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं? मेरे इतने उपयोग के बाद भी तुम मुझे व्यर्थ मान रहे हो?' यह सुनकर शिष्य ने अपना हाथ खींच लिया।
वह सोचने लगा, जब मिट्टी और पत्थर इतने उपयोगी हैं, तो आखिरव्यर्थ क्या हो सकता है? उसके अर्तमन से आवाज आई "सृष्टि का हर पदार्थ अपने-आप में उपयोगी है।" वस्तुत: व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसका कोई उपयोग नहीं। शिष्य अपने गुरु के पास लौट गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। वह दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया था। ।
माता-पिता और परिवार को यह समझना जरूरी है। बच्चे छोटे होते हैं, तभी से आप उनके पढ़ाई की कितनी चिंता करते हो, अच्छी स्कूल ढूंढते हो, उत्कृष्ट शिक्षा मिले इसकी व्यवस्था करते हो, इतना करना बच्चों के सुखी जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। इतनी पढ़ाई करने के बावजूद भी उनका भविष्य उज्ज्वल, सुखमय नहीं होगा । बच्चों के साथ न्याय नहीं होगा।
इसके लिए बचपन से ऐसा ज्ञान पढ़ाई के साथ साथ दो जिससे वह स्वयं को पहचाने । जीना सिखाने के लिए आत्मचिंतन जरूरी है। स्वनिरीक्षण करना चाहिए। आप अपना जीवन जब चाहे तब से जहां चाहिए वहां से और जैसा चाहिए वैसा बदल सकते है। बदलने का प्रारंभ कभी भी हो सकता है। बस दृष्टि बदलने की आवश्यकता है। सृष्टि अपने आप ही बदल जाएगी। दिशानिर्देश की जरूरत है। बच्चो! तुम तो बहुत होशियार हो । बात को सहज पकड़ सकते हो।
मैं सबकुछ कर सकता हूँ। करने से क्या नहीं होता? यह विचार करो। देखो बच्चो! व्यक्ति स्वतंत्र है। स्वयं को परिस्थिति से अप्रभावित रखकर, मैं
स्वयं सबकुछ कर सकता हूँ, यह आत्मविश्वास और सकारात्मक दृष्टि जागे, इसी से बदलेगी आपकी सृष्टि । दूरदर्शी और रचनात्मक कार्य करना है, स्वयं की क्षमताओं को पहचानना है। पुरुषार्थ करो और नई तकनीक अपनाकर ऐसी उड़ान भरो कि देखते-देखते अपने लक्ष्य तक पहुंच जाओ।
ती हूँ। करने ।
नेसे क्यान
कर सकती
मैं सबकुछ कर
समा
नहीं होता?
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स्वयं को पठचानो (31)
आओ जीना सीन...
अच्छा इन्सान बनें
आओ जीना सीन...
स्वयं को पठचानो (30 सीरवने की कोई उम्र नहीं होती दृष्टि बदलो-सृष्टि बदलेगी, विचार बदलने से आचार बदलेगा, दूसरे को बदलने से पहले खुद को बदलो। तो बताओ, करने से क्या नहीं होता? इस बात की गहराई समझी? तो आओ बीती बातें भूलकर जागृत हो जाते हैं। नया अध्याय शुरु करते हैं।
सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। कभी भी सीखना शुरू करो, हम अपने आप को बदल सकते हैं।
बच्चो! मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो नर से नारायण बन सकता है। यह शक्ति उसमें है क्योंकि आत्मा ही परमात्मा है। अपनी आत्मा को जानो, पहचानो। अपनी विवेक और बुद्धि के द्वारा संकल्प आयोजन-नियोजन और पुरुषार्थ करो तो जो चाहो, जैसा चाहो, बन सकते हो।
भगवान महावीर
आज पढ़ना सब जानते हैं, पर क्या पढ़ना चाहिए, यह कोई नहीं जानता।
-बर्नाड शॉ
भगवान बुद्ध
जीवन की सार्थकता...
स्वामी रामतीर्थ जापान जा रहे थे। जिस जहाज पर वे सवार थे, उसी में अस्सी वर्ष का एक बूढ़ा जर्मन भी यात्रा कर रहा था वह चीनी भाषा सीख रहा था। इस भाषा में एक-एक शब्द के लिए एक-एक चित्र है। इसलिए इस भाषा को सीखने में बड़ी कठिनाई रहती है। सुबह का समय, जहाज के डेक पर बैठे हुए उस बूढ़े को भाषा सीखते देख स्वामी रामतीर्थ के मन में आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा पैदा हुई।
स्वामीजी ने अपना संकोच दूर कर उससे पछा - 'आपको पता है कि चीनी भाषा सीखने में कम-से-कम आठ-दस वर्ष लग जाते हैं। आप की उम्र क्या हैं? यह भाषा पूरी तरह कब सीख पाएंगे आप?' बूढ़े जर्मन ने कहा - 'उम्र का हिसाब भगवान रखता होगा। मुझे तो काम से ही फुर्सत नहीं है। फिलहाल मेरा अस्सी वर्ष का अनुभव कहता है कि अभी तक नहीं मरा तो अभी और भी जी सकता हूँ।'
फिर बूढ़े जर्मन ने स्वामी रामतीर्थ से पूछा-'तुम्हारी उम्र कितनी है?' स्वामी रामतीर्थ ने कहा- 'उम्र तो तीस वर्ष ही है। अब कुछ करने की सोच रहा हूँ।' अस्सी वर्षीय जर्मन ने कहा- 'तुम्हारा देश इसीलिए बूढ़ा हो गया, क्योंकि वहाँ ज्यादातर लोग कुछ भी नहीं करते, सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करते हैं।' स्वामी रामतीर्थ ने लिखा कि वह बूढ़ा उसके बाद दस साल तक जीया और उसने चीनी भाषा में एक पुस्तक भी लिखी।
मनुष्य जन्म मिलना ही भाग्य की बात है। भले हम भगवान न बनें, पर अच्छा इन्सान तो बन सकते हैं। अच्छा इन्सान ही आगे चलकर महान बन सकता है। हर कोई अपने जीवन में महान बनना चाहता है।
आत्मा को समझने का अभ्यास करो और उसके ऊपर के राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद-मत्सर, माया, आलस्य, लोभ, मोह, हटा दिये जाएँ तो आत्मा महात्मा बनती है। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, बुद्ध, महावीर जैसे महान व्यक्तियों का जीवन पढ़ो और निश्चित करो कि आपको क्या बनना है?
स्वामी विवेकानंद
पढ़ना एक गुना, चिंतन दो गुना, आचार चौगुना
- विनोबा भावे
महात्मा गांधीजी
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स्वयं को पठचानो (33)
आओ जीना सीन...
अपने दीए खुद बनो
आओ जीना सीन...
स्वयं को पश्चानो (32) जीवन की पोथी पटो
आओ! हम भी हमारे जीवन की पोथी पढ़ें। स्वयं को जानें । इस उमर में जो आदतें पड़ती हैं वे स्थायी होती हैं। ऐसी कोमल संवेदनशील उम्र में पवित्र और नैतिक शिक्षा का अध्ययन करें। वृत्ति बदलेगी, प्रवृत्ति बदलेगी, अच्छाइयों की आवृत्ति करते-करते दृष्टि बदलेगी और आपकी सृष्टि भी बदलेगी। ऐसा ज्ञान जिससे बदलेगा विचार और विचार से बदलेगा आचार । फिर बदल जाएगा सारा व्यवहार ।
बच्चो! तुम्हें एक बात बताऊं? जापान छोटासा देश, कितनी प्रगति कर रहा है। जानते हो, अपने यहां जिस काम को छः घंटे लगते हैं, जापान में वह काम 3 घंटे में होता है। इसका कारण यह है कि जापान में सबको ध्यान का प्रशिक्षण दिया जाता है। झैन संप्रदाय के नाम से यह ध्यान सिखाते हैं।
यह शिक्षा का प्रायोगिक रूप है। इसलिए पढ़ाई के साथ-साथ हमें कुछ ऐसे प्रयोग करने हैं, जो हमारे संपूर्ण व्यक्तित्त्व को निखार देंगे और सर्वांगीण विकास करेंगे। हम बातें ज्यादा करते हैं, प्रयोग कम करते हैं। इसलिए सफलता पाने में हमें वक्त लगता है।
"जीवन की पोथी"
भीतर को बदलो, सब कुछ बदल जाएगा। बच्चो ! सब कुछ अंदर ही है। बस उसे बाहर लाना है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन अभ्यास में यह शिक्षा शामिल थी। अंग्रेज आए, जानबूझाकर उस शिक्षा पद्धति को नष्ट किया। आज की शिक्षा पद्धति की यह विडम्बना है कि व्यक्ति विश्व के बारे में सब कुछ जानता है, पर स्वयं के बारे में कुछ नहीं जानता।
__ भगवान बुद्ध का आखिरी वचन, जो उन्होंने इस पृथ्वी से विदा होते दिया था वह स्मरण योग्य है - "अप्प दीपो भव" अपने दीए खुद बनो। अपने दीए खुद बनने के लिए भीतर के प्रयत्न ही काम के हैं। शिक्षा में बाहरी प्रयत्न अधिक है, पुस्तकीय ज्ञान है। पुस्तकीय पढ़ाई अच्छी है पर उसके साथ कुछ प्रयोगों की जरूरत है।
अपने
'अप्प दीपो
नए खुद बनो
आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं - "दूसरी सारी पुस्तकें पढ़ी जाती है, जब आँखें खुली होती हैं और चंचलता होती है। किंतु जीवन की पोथी तब नहीं पढ़ी जाती है जब आँखें खुली होती हैं, चंचलता होती है। यह तभी पढ़ी जाती है जब स्थिरता होती है। जो व्यक्ति एकाग्रता, अन्तर्दर्शन और शिथिलीकरण के नियमों का पालन करता है, वह इस महान ग्रंथ को पढ़ने में समर्थ होता है।"
भगवान
बद्ध
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सत्यवान
आओ जीना जीनवें...
आज की समस्या 0 आज की समस्या है नैतिकता की कमी
नैतिकता की कमी हर जगह महसूस होती है। पढ़ाई के बाद भी बच्चों में नैतिकता का विकास क्यों नहीं होता? अनुशासन की कमी क्यों है? इसका कारण है पढाई केवल बौन्दिकता संयम सात का पर आधारित है, पुस्तकीय ज्ञान क्या आंतरिक बदलाव मूल है। विलासिता, ला सकता है?
निर्बलता और आज यह सिद्ध हुआ है कि शरीर स्थित पीनियल,
अनुकरण के थाइराइड, पिट्युटरी आदि ग्रंथियां मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं। 10 से 12 साल तक पीनियल
वातावरण में ग्रंथी बहुत सक्रिय रहती है, इससे जीवन में पवित्रता संस्कृति का आती है। ज्यों ज्यों व्यक्ति बड़ा होता है, यह ग्रंथि विकास नहीं होता। निष्क्रिय होने लगती है।
-काका प्रायोगिक स्तर पर यदि हम उस ग्रंथि को सक्रिय बनायेंगे तो बच्चों में पवित्रता और अनुशासन स्वतः आ जायेगा । इसलिए उपदेश और पुस्तकीय ज्ञान के साथ प्रयोग की आवश्यकता है। हमारे यहां नैतिकता की बातें बहुत की जाती है, परंतु व्यवहार में नैतिकता दिखाई नहीं देती। 4
बात और आचरण...
अमेरिका के एक महानगर में एक जैनी भाई के मकान में रात्रि को मित्रों के बीच चल रही गोष्ठी में धर्म-चर्चा हो रही थी। अचानक घण्टी बजने से कोठारीजी ने दरवाजा खोला तो देखा-उनका अमेरिकी पड़ोसी सामने खड़ा है। कोठारीजी को वह अपने साथ ले गया, जहाँ सड़क पर उनके मित्रों की कारें खड़ी थीं। एक कार की और इशारा करते हुए उसने कहा - 'मोड़ते वक्त मेरी कार से इस कार को जरा टक्कर लग गई थी। यह मेरा बैंक खाता नम्बर है, कार को जो हानि हुई है, आप हर्जाना ले लेंगे।' और 'सॉरी' कहते हुए वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। __वापस भीतर लौटकर कोठारीजी जब यह बात बताते है, तो एक मित्र की प्रतिक्रिया होती है - 'हम लोग सदाचार और नैतिक मूल्यों की केवल बात ही करते है, ये लोग तो इन मूल्यों को जीते हैं।'
आओ जीना सीन...
आज की समस्या 0 पढ़ाई के साथ, प्रयोग की आवश्यकता स्कूल में फिजीयोलोजी, एनोटॉमी और साइकोलोजी जैसे अनेक विषयों को महत्त्व दिया जाता है। पढ़ने के बाद भी जीवन में परिवर्तन नहीं आता, ऐसा क्यों? शिक्षा का आधार AODO रहा है मस्तिष्क । आज यह सिद्ध हो चुका है कि ग्रंथि
तंत्र ही हमारे सारे व्यवहार का निर्देशक है।
मस्तिष्कीय ज्ञान की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए
पर उसके साथ ग्रंथितंत्र के विकास के प्रयोग
भी करने चाहिए। जब तक हारमोन और
सिक्रेसन को नहीं बदला जाएगा तब तक
सारा विकास अधूरा रहेगा। एकांगी होगा।
आंतरिक बदलाव के बिना सारे प्रयत्नों का
प्रभाव क्षणिक है। जापान ने इस विषय में जागृति दिखाई, प्रयोग किए। नतीजे सामने आये। एक सर्वेक्षण से यह सिद्ध हो चुका है कि जापान के लोगों की निपुणता का सूचांक 96.3 है जबकि भारत में मात्र 48 है। बच्चों में एकाग्रता, इच्छाशक्ति और संकल्प का विकास हो, ऐसी शिक्षा भी
देनी जरूरी है। जैसा कि जापान ने ध्यान के प्रयोग करके सिद्ध कर दिया है। पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ प्रायोगिक अभ्यास आवश्यक है।
आओ बच्चो ! जब हमें तथ्य के द्वारा सत्य मालूम हुआ तो हम प्रयोग करेंगे और अपने आपको बदलेंगे। 4 बदल जाते हैं रसायन, ग्रंथियों के स्राव, बदलते व्यवहार सारे, बदलते हैं भाव, बदलता संसार, आनापान के द्वारा।
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आओ जीना सीन...
अफलता (36)
सफलता 370
आओ जीना सीन... yसत्य
सब कुछ हो सकता है। फल हर कोई पा सकता है। लगन तुम्हारे पास होनी चाहिए। ता उम्र पुरुषार्थ करना चाहिए।
सफलता
पढ़ेगा वही आगे बढ़ेगा
रुचि
स्वस्थ रहो।
इमारत अच्छी और ऊंची बनानी है तो बुनियाद भी पक्की होनी जरूरी है। इन्सान के व्यक्तित्त्व विकास और प्रगति के लिए उसकी भी बुनियाद सही होनी चाहिए। बच्चों में महत्त्वपूर्ण संस्कार होना चाहिए "वंदे सच्च' अर्थात सत्य ही भगवान है। सत्य से बढ़कर इस दुनिया में कुछ भी नहीं। सत्य के आधार पर बच्चा अपनी सच्ची प्रगति कर सकता है। उन्नति के शिखर छू सकता है। मां के दूध के साथ बच्चे को सत्य की बालवूटी पिलानी चाहिए। चाहे कुछ भी हो, सत्य पर अडिग रहने का स्वभाव होना चाहिए, वृत्ति होनी चाहिए।
बचो। इस बात को गहराई से समझो। सत्य ही सब कुछ है। मैं लिख रही हूँ, अभिभावक कहते हैं और शिक्षक सिखाते हैं, इससे बढ़कर है सत्य । खुले मन से सत्य पर चिंतन करो। शाश्वत सत्य, परम सत्य और सार्वभौम सत्य को समझकर हर बात के तथ्य तक पहुंचाना है। जो कुछ आपके सामने रखा जाता है उसे जानने की जिज्ञासा रखो, भावुक मत बनो। निष्पक्ष भाव से सोचने की कोशिश करो।
एक बार सत्य की बात दिल में उतर गई तो समझना तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है। प्रगति पथ पर प्रस्थान हो गया और अच्छे बनने की यह शुरुआत हो गई। बच्चे जब सहज झूठ बोलते हैं, आराम से सब को फँसाते हैं, तो दुःख होता है। बड़े होने के बाद भी झूठ के सहारे कुछ भी करने से हिचकिचाते नहीं, तब दिल काँप उठता है। कई लड़कियाँ देखी हैं, माँ-बाप से झूठ बोलकर गलत काम करती हैं। विश्वास बड़ी बात होती है। बच्चो ! सत्य बोलने वालों पर सब विश्वास करते हैं। बच्चे हमेशा कहते हैं, “आज कल सभी झूठ बोलते हैं, झूठ बोलने वाले की ही चलती है।
असत्य विजयी भी हो जाए, तो उसकी विजय अल्पकालिक होती है
- लियो ना?-द-विंसी विश्वास पर दुनिया चलती है। हर अच्छी बात में सत्य होता है। सब धर्मो, अच्छे ग्रंथों और दुनिया के हर कोने में सत्य का महत्त्व है।
आत्मविश्वास.
अनुशासन
आयोजन-नियोजन
संकल्प अणुव्रत
(सत्य
ज्ञान
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अधिष्ठात्रीमा
भोसरस्वती
आओ जीना सीन...
सफलता 0 जॉन रस्किन ने सच कहा है -तुम सत्य को जानोगे तो सत्य तुम्हें स्वतंत्र कर देगा। यही बात बाइबल में भी स्पष्ट की है- जब तुम सत्य को पहचान सकोगे तो सत्य तुम्हे स्वतंत्र बना देगा।
सत्य एक बार समझ में आ जाए तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है।ओशो (रजनीश)ने बहुत ही सरलता से सत्य के बारे में बताया है- सत्य स्वयं ही धर्म है, इसलिए सत्य का कोई भी धर्म नहीं है। सत्य का कोई सम्प्रदाय नहीं है, नहीं हो सकता है। सम्प्रदाय तो सब स्वार्थ के हैं। सत्य का कोई संगठन भी नहीं है। क्योंकि सत्य तो स्वयं ही शक्ति है, उसे संगठन की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती।
विधा की
सत्य की दिव्यता __ महाभारत में राजा सत्यदेव की कथा है। एक दिन वे प्रातः काल जागे तो उन्होंने अपने महल से एक सुंदर स्त्री को बाहर जाते हुए देखा। राजा को आश्चर्य हुआ और उस स्त्री से पूछा, "तुम कौन हो?" उसने कहा - "मेरा नाम लक्ष्मी है और अब तुम्हारे घर से जा रही हूं।" राजाने आज्ञा दी। थोड़ी देर के बाद एक सुंदर पुरुष को घर से बाहर जाते देखा। राजा के पूछने के बाद उसने बताया कि वह दान है और लक्ष्मी के यहां से चले जाने के बाद उसकी जरूरत नहीं रह गई, अत: वह भी यहां से जा रहा है। । राजा ने उसे भी जाने दिया। फिर एक दूसरा पुरुष जाने लगा, पूछने से उसने अपना नाम सदाचार बताया। उसका कहना था जब लक्ष्मी और दान ही नहीं रहे तो भला वह कैसे रह सकता है। राजा ने उसे भी जाने की आज्ञा दी। फिर और एक पुरुष आया उसने अपना नाम यश बताया। उसे भी राजा ने जाने दिया। कुछ देर के बाद एक और सुंदर युवक को राजा ने देखा और उससे भी पूछा तो मालूम हुआ कि वह सत्य है। लक्ष्मी, दान, सदाचार और यश चले गए हैं तो भला वह कैसे ठहर सकता है। राजा सत्यदेव ने कहा, "मैने आप को कभी छोड़ना नहीं चाहा, फिर आप मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हैं? आप को अपने पास रखने के लिए ही तो मैंने लक्ष्मी, दान, सदाचार और यश का त्याग किया है, आप के चले जाने से मेरा सर्वस्व लुट जायेगा। इसलिए मैं आप को नहीं जाने दूंगा।" राजा की प्रार्थना पर सत्य ने उसकी बात मान ली। जब सत्य नहीं गया तो लक्ष्मी, दान, सदाचार और यश को भी वापस राजा सत्यदेव के पास लौटना पड़ा।
आओ जीना सीन...
सफलता (39) विद्या और शिक्षा ___ भारतीय संस्कृति में सदा से प्रतीकों का महत्त्व रहा है। इसी क्रम में सरस्वती, लदमी एवं दुर्गा को ज्ञान, सम्पत्ति और शक्ति की अधिष्ठात्री माना गया है। हमारी प्राचीनतम संस्कृति के मोहनजोदड़ो काल से ही मातृदेवी की उपासना चली आ रही है। वस्तुतः हम आराधना मूर्ति की नहीं करके उसके माध्यम से दिव्य सत्ता एवं महत् चैतन्य की करते हैं। हमारे यहां अति प्राचीन काल से ही गणेश को विद्या और सरस्वती को शिक्षा का प्रतीक माना गया है। वस्तुतः विद्या और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी है।
शिक्षा वह है जो विद्यालयों में पढ़ाई जाती है। शिक्षा से ही मस्तिष्क की क्षमता का विकास होता है और मानसिक विकास पर ही व्यक्तित्व का विकास निर्भर है। विकसित व्यक्तित्व ही संपत्तियों एवं महान विभूतियों की उत्पत्ति का कारण बनता है।
इसीलिए यह मान्यता चली आ रही है कि सरस्वती आराधना से लौकिक जीवन में सुख, शांति एवं समृद्धि बढ़ती है। अन्यथा हमारे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ब्रह्म को ही ब्रह्मा कहते हैं और ज्ञान व विवेक के देवता ब्रह्म की पत्नी ही सरस्वती है। माँ सरस्वती को वाणी की देवी के रूप में मान्यता है।
भारतीय संस्कृति में बोले गये मंत्र शब्द मात्र ही नहीं होते वरन् उनमें अन्तःकरण को प्रभावित करने की योग्यता समाविष्ट है। मंत्रों की प्रभावोत्पादकता के लिए वाणी को सुसंस्कृत बनाने हेतु माँ सरस्वती की वन्दना की जाती है।
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आओ जीना सीन...
सफलता (40)
अफलता (1)
आओ जीना सीन...
ज्ञान...ज्ञान... ज्ञान...
ज्ञान
अपनी प्रगति करनी है तो दूसरा आधार है ज्ञान । अपनी क्षमता बढ़ानी है, योग्यता का अंकन और विकास करना है तो चाहिए निरंतर नया ज्ञान । ___ “पढमं नाणं तओ दया" - पहले ज्ञान फिर होगा आचार। जब तक कोई बात जानते ही नहीं तो करोगे
प्रत्येक व्यक्ति, कैसे? इसलिए जानना आवश्यक है। जानने के बाद जिससे मैं मिलता ही चिंतन होगा और उसके बाद आचार होगा। ज्ञान है, किसी न किसी का महत्त्व समझना जरूरी ही नहीं अत्यावश्यक है।
बात में मुझसे केवल शाब्दिक रूप में नहीं लिख रही हूँ। मेरा अतीत, मेरा अनुभव और ज्ञान जो मैंने प्राप्त किया, बढ़कर है। वही, मैं उसी के द्वारा मुझे पता चला कि कितना सही बताया उससे सीखता है। है ग्रंथो में - हर समस्या का समाधान पाने के लिए
- एमर्सन ज्ञान आवश्यक है।
"ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः" - ज्ञान के बिना दुःख मुक्ति नहीं। "नाणस्स सारमायारो' ज्ञान का सार ही आचार होता है। इसके लिए ज्ञान आवश्यक है।
मैं हमेशा नया ज्ञान लेती हूँ। हर बार इसे लेने के बाद ज्ञान बढ़ा है, इससे अधिक महसूस होता है कितना अज्ञान है। हर व्यक्ति, हर घटना और हर छोटी-छोटी बात में ज्ञान मिलता है। बस, अपना मन और आँखें खुली होनी चाहिएं, चारों तरफ ज्ञान ही ज्ञान है। “नाणं पयासयरं" - ज्ञान ही प्रकाश देता है।
कुरान शरीफ में कहा है - “पालने से लेकर कब्र तक ज्ञान प्राप्त करते रहो' ज्ञान इतना है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
गांधीजी कहते थे - “जीवन में ज्ञान से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है।'
सबसे महत्वपूर्ण बात मुझे गेटे की लगती है। वो कहते थे-ज्ञान ही काफी नहीं है, इस पर अमल भी करना चाहिए। इच्छा ही काफी नहीं है, इस पर काम भी करना होता है।
केवल पुस्तकीय ज्ञान जहां तक अनुभव में नहीं आता, अज्ञान है। साक्षात जान लेने पर वह ज्ञान बन जाता है। जीवन से जोड़कर प्रयोग में आने से ज्ञान विज्ञान बन जाता है। - अज्ञात
अपनी आँखें और मन खुला हो तो हर जगह हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
उच्च शिक्षा वही मानी जाएगी जिसे
पाकर मनुष्ट में
विनमता, परोपकारी वृत्ति, सेवाभावी स्वभाव एवं कार्य करने की तत्परता में डिमातोकिसव
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आओ जीना सीन...
अफलता (43)
'नाणं पयासयरं' ज्ञान प्रकाश देने वाला है। यह प्रकाश तब फैलता है, जब व्यक्ति चरित्र-सम्पन्न होता है, जिसका जीवन संयममय होता है। इसके लिए तुम्हें अणुव्रतों को जानना होगा और जीवन में उतारना होगा। तुम्हारा जीवन निर्माण की बेला है। नैतिकता उसका मूल है। अणुव्रती बनना नैतिकता का मूल है। मूल में सुधार होगा तो जीवन अनोखा उपहार बनेगा। अणुव्रती बनो और स्वस्थ जीवन जीओ। जिससे समाज भी स्वस्थ बनेगा।
तो बचो ! इसे समझना, जानना और जीवन में उतारना सबसे अधिक जरूरी है क्योंकि -
ज्ञान कमाओगे, विद्वान कठलाओगे, धन कमाओगे, धनवान कहलाओगे, अणुव्रती बनोगे तो मठान कठलाओगे।
आओ जीना सीन...
सफलता (2) अणुव्रत
बच्चो! हमारे देश की संस्कृति सबसे प्राचीनतम है। हमारी संस्कृति की अपनी ऐसी विशेषताएँ हैं, जिससे विश्व में यह सबसे महान् मानी जाती है। विकृति, प्रकृति को ध्यान में रखकर ही बनाई गई है संस्कृति।
बच्चो ! आपके विकास, गति और प्रगति पर ही परिवार समाज और राष्ट्र की प्रगति और उन्नति अवलंबित है। हर एक व्यक्ति
सुधार चाहता है। प्रश्न यह है, इसकी शुरुआत कहाँ से भारतीय संस्कृति हो? कैसे हो? संस्कार इसका माध्यम है। संस्कार ऋषि-मुनियों की गर्भावस्था से ही शुरु होते हैं। परिवार के संस्कार बच्चों संस्कृति है।
में आते हैं। बचो ! अपने आपको बदलने की शुरुआत
भी आपको खुद ही करनी है। यह शुभ शुरुआत हम ऋषिमुनि महावतों
संकल्प से करेंगे।तुम विकास करना चाहते हो, महान् का पालन करते
बनना चाहते हो तो सबसे पहले अणुव्रतों को स्वीकार हैं। हम महावतों करो। अणुव्रत जीवन सुधार का राजमार्ग है। अणुव्रत का पालन तो नहीं से जीवन स्वस्थ होगा, बदलेगा और चमकेगा। जिसका
वर्तमान स्वस्थ होगा, उसका भविष्य भी उज्ज्वल होगा। कर सकते
अणुव्रत युगधर्म है। इसलिए यह धर्म जात-पात, लेकिन अणुक्तों
संप्रदाय किसी से भी जुड़ा हुआ नहीं है। युग को पहचान को तो स्वीकार कर बना है। भारतीय संस्कृति ऋषि-मुनियों की संस्कृति
है। ऋषि मुनि महाव्रतों का पालन करते हैं। हम महाव्रतों
का पालन तो नहीं कर सकते लेकिन अणुव्रतों को तो स्वीकार करना ही चाहिए। अणुव्रत पहली सीढ़ी है। जिसने इन्हें स्वीकारा उसकी प्रगति तीव्र गति से हुई। देखने वाला देखता ही रह जाता है। अणुव्रत का ज्ञान लो, यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
* झूठ नहीं बोल
सपी नहा कॐ
करुंगा...
कर
आओ बच्चो ! महान बनने के लिए हम यह समझ लेते हैं। अणुव्रत क्या है?
अणुव्रत दो शब्दों से बना है - 'अणु' और 'व्रत' । विज्ञान के अनुसार अणु का अर्थ है छोटासा ।व्रत याने संकल्प, नियम अथवा दृढ़ निश्चय ।व्रत भारतीय संस्कृति की आत्मा है, जीवन शुद्धि के बीज हैं। व्रत अपने आप में परमतत्त्व है, कल्याण का पथ है। इसमें छोटे-छोटे नियम हैं, जो जीवन को महान् बनाते हैं।
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आओ जीना सीखें...
सफलता 44
आज का युग निर्माणों का युग है। आज के युग में नए-नए निर्माण हो रहे हैं। नित नए शोध हो रहे हैं, नई टेक्निक आ रही हैं। कम्प्युटर और इंटरनेट की इस दुनिया में आप को क्या नहीं प्राप्त होता ?
इस युग में बदलाव आया, जिस तेजी से यह बदल रहा है, उतनी ही तेजी से मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। इसे संतुलित करने के लिए अपने आपको जानने के लिए और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए हर एक को अणुव्रती बनना आवश्यक हैं। छोटे-छोटे संकल्पों से बहुत परिवर्तन आता है।
अणुबम वैज्ञानिक खोज है। छोटा सा अणुबम न जाने कितने जीवन ध्वस्त करता है, अशांति फैलाता है। इसका जवाब में अध्यात्म की खोज 'अणुव्रत' है जो निर्माणों की प्रक्रिया, शांति और चरित्रनिर्माण का बीज है। अणुबम हिंसक प्रवृत्ति है तो अणुव्रत अहिंसक प्रगति का प्रथम सोपान है।
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निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण
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वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या
यह है कि मनुष्य सब
कुठ बनना चाहता है, पर मनुष्य बनने की बात नहीं सोचता।
नित नई योजनाओं का निर्माण होता है, पर चरित्र निर्माण की योजना बनाने का समय नहीं । चरित्र निर्माण बुनियादी काम है। - गुरुदेव तुलसी
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आओ जीना सीखें...
सफलता 45
अणुव्रत सुख-शांति का राजमार्ग है। यह मानव धर्म है। मानव जीवन की सार्थकता है । यह आत्म नियंत्रण है, संयम है। संयमः खलु जीवनम् संयम ही जीवन है। संयम नहीं तो संघर्ष होगा, इसलिए अणुव्रतों को स्वीकार करो। यही विविध समस्याओं का समाधान है।
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इस पुस्तक का उद्देश्य एक ही है आपको ऐसी बातें बताई जाए जिन्हें प्रारंभ से ही जानोगे तो संपूर्ण जीवन सुखमय बनेगा। अणुव्रत मनुष्य के चरित्र का निर्माण करके सत्पुरुष बनाता है, हृदय परिवर्तन करता है। दृष्टि बदलती है तो सारी सृष्टि ही बदल जाती है।
जो क्षण चला गया वह लौट कर नहीं आता। इसलिए सावधान ! इसी क्षण को समझो और संकल्प करो। आज चारों तरफ संकट मंडरा रहा है। अणुव्रत सुरक्षा कवच है। विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संयोग है। विज्ञान ने दी है, जीवन को ऊंचाई । अणुव्रत देगा, जीवन को गहराई । अणुव्रत का बीज बोओ, नैतिकता के फल पाओ ।
चारों ओर है हिंसा का डंका, हिंसा पैदा करती है आँधी । अणुव्रतों को स्वीकार कर
हमें बनना है गांधी ।
आज का युग समस्याओं का युग है। एकांगी जीवन समस्या बढ़ाता है। कोरा वैज्ञानिक होना अथवा कोरा आध्यात्मिक होना हमारी समस्याओं को बढ़ावा देता है । हमारी शिक्षा भी अधूरी है। जिसकी पूर्ति होगी अणुव्रतों से ।
विज्ञान और अध्यात्म साथ-साथ चलेंगे तो हमारी गति और प्रगति भी हाथों में हाथ डालकर हमें उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा देगी। तो आओ बच्चो ! आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्त्व का निर्माण करते हैं।
कोरी वैज्ञानिकता युग को प्राण नहीं दे पाएगी, कोरी आध्यात्मिकता युग को त्राण नहीं दे पाएगी, दोनों की प्रीत जुड़ेगी, युगधारा वहीं मुड़ेगी। - आचार्य तुलसी
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अफलता 0
आओ जीना सीन...
संकल्प
आओ जीना सीन...
सफलता (46) विद्यार्थी अणुव्रत 1. मैं परीक्षा में अवैध उपायों का सहारा नहीं लूंगा। 2. मैं हिंसात्मक एवं तोड़फोड़-मूलक प्रवृत्तियों में भाग नहीं लूंगा। 3. मैं अश्लील शब्दों का प्रयोग नहीं करूंगा, अश्लील साहित्य नहीं पढूंगा तथा
अश्लील चलचित्र नहीं देखूगा । 4. मैं मादक तथा नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा। 5. मैं दहेज से अनुबंधित एवं प्रदर्शन से युक्त विवाह नहीं करूंगा और न ही
भाग लूंगा। 6. मैं बड़े वृक्ष नहीं काटूंगा और प्रदूषण नहीं फैलाऊंगा।
संकल्प में अद्वितीय शक्ति है, इससे हर कठिन काम भी आसान हो जाता है। संकल्प यानी दृढ़ निश्चय। अपने कार्य में कितनी भी बाधाएँ क्यों न आए, हमें उसे पूरा करना ही है। मन में यह बात जब निश्चित हो जाती है, तो वह कार्य अवश्य पूरा होता है।
हम देखते हैं, कितने बच्चे ऐसे हैं जो अपना कार्य पूरा नहीं करते, परीक्षा में अच्छे मार्क्स नहीं लाते। इसका कारण है - उनके मन में चंचलता, एकाग्रता और आत्मविश्वास की कमी। कार्य करने का तरीका सही नहीं होता। लक्ष्य सामने हो, दृढ़ निश्चय हो, तो क्या नहीं होता? एकलव्य को याद करो। वह अपने दृढ संकल्प से श्रेष्ठ धनुर्धर बना था।
संकल्प को इच्छा शक्ति भी कहते हैं। वह कितनी प्रबल है यह महत्त्वपूर्ण है। जिनका संकल्प दृढ नहीं होता वे कमजोर पड़ते हैं और शंकाएं पैदा होती है। आशंका से सब डांवाडोल हो जाता है। उनका काम सफलतापूर्वक नहीं होता। इसलिए इरादा हमेशा पत्थर की भांति दृढ होना चाहिए।
संकल्प के प्रकार : संकल्प अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे -
मैत्रीभाव
मधुर भाषा सर्वांगीण विकास
स्वयं को जानना
शारीरिक
प्रसन्नता
bl2|l12311€
विवेक
( व्यक्तित्व
मानसिक
501
2A
भावात्मक
सत्य
26/
ज्ञान
बौद्धिका
जीवनभर के संकल्प मैं जीवन भर समाज कार्य
करूंगा, गरीबों की सेवा करूंगा अथवा
देश सेवा में जीवन बिताऊंगा...
दीर्घकालीन संकल्प बचपन से ही
संकल्प... मैं डॉक्टर ही
बनूंगा। इंजीनीयर ही
बनूंगा।
Delallen
तात्कालिक संकल्प मैं 10वीं कक्षा की परीक्षा में 95 प्रतिशत
मार्क्स लाऊंगा LAaei
2
12
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आओ जीना सीन...
सफलता (48)
कैसे करें संकल्प : छोटे-छोटे संकल्पों से शुरुआत करो संकल्प स्पष्ट होने चाहिए अणुव्रतों से संकल्प शक्ति बढ़ती है संकल्प को कागज पर लिखकर, सहजता से पढ़ सकें, ऐसी जगह पर चिपकाना चाहिए एक लक्ष्य निर्धारित करके उसी पर ध्यान केन्द्रित करने से संकल्प मजबूत होता है नियमित दीर्घ-श्वास का प्रयोग और ध्यान के अभ्यास से संकल्प शक्ति बढ़ती है उठते और सोते समय संकल्पों को याद करें और उन पर चिंतन करें
आओ जीना सीन...
अफलता (49) का समुद्र तैर कर सफलता पाओगे।
नियमित अभ्यास से संकल्प-शक्ति मजबूत होती है। संकल्पों द्वारा मानव की इच्छाशक्ति जागृत हो जाती है। संकल्प सुप्त शक्तियों को जगाने का सशक्त माध्यम है।
इसलिए बच्चो ! संकल्प की गहराई को समझो। यह मन की एक रचनात्मक एवं सकारात्मक क्रिया है, जिसके आधार पर आप कोई भी कठिन काम कर सकते हैं। व्यक्ति-व्यक्ति में इच्छाशक्ति का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। कमजोर इच्छाशक्ति, मध्यम इच्छाशक्ति और दृढ़ इच्छाशक्ति । बच्चो ! आप दृढ़ इच्छाशक्ति वाले बनो और जीवन में सफलता प्राप्त करो।
जीवन में विकास और प्रगति के लिए संकल्प आवश्यक है। इस बात को ध्यान में रखकर कुशलतापूर्वक संकल्प का आयोजन-नियोजन करो। आध्यात्मिक दृढ़ संकल्प द्वारा चामत्कारिक शक्तियां भी प्राप्त होती हैं। संकल्प शक्ति सभी में है पर उसका विकास करना जरूरी है।
अपने संकल्पों का कुशलता पूर्वक आयोजन कर उन्हें पूर्ण करना चाहिए। अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार संकल्प करने चाहिए। संकल्प-शक्ति संपूर्ण जीवन को बदल सकती है। असाधारण काम करने में भी सहायक बन सकती है। बच्चो ! तुम्हें अपने संकल्प के प्रति जागृत होना चाहिए। छोटे-छोटे संकल्प भी जीवन को बदल सकते हैं। इनसे मानसिक परिवर्तन होता है। स्थिरता और धैर्य से इनका विकास करना है। प्रतिदिन 1-2 संकल्प करने हैं और उनको पूरा करने का भरसक प्रयत्न करना है।
रात को सोने से पहले चिंतन करना - आज का संकल्प सफल हुआ या नहीं। यदि नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ? गलती कहाँ हुई? इसके लिए स्वपरीक्षण और स्वनिरीक्षण आवश्यक है।
सुप्त शक्तियों का जागरण है संकल्प :
देखेंगे, करेंगे, कर रहा हूँ - ऐसे शब्दों में दृढता नहीं होती। भाग्य के भरोसे सफलता प्राप्त नहीं होती। अपने अंदर ही संकल्पों की शक्ति छिपी है, बस उसे जागृत करना है।
रात-दिन संकल्पों की नौका पर सवार होकर मस्ती से काम करो। बाधाओं
संकल्प...
एक लड़का था। हमेशा 'पी' लिखता था। हर जगह चाहे नोटबुक हो, बेंच अथवा पुस्तक । सब लोग उसे पूछते थे कि 'पी' क्या है? क्यों लिखते हो 'पी'? मंद मुस्कुराता, कोई जवाब नहीं देता था। पढ़ाई में व्यस्त रहता था।
कॉलेज गया वहां भी 'पी' लिखना चालू रखा। पूछने के बाद जवाब न देने से पूछने वालों ने पूछना ही छोड़ दिया पर उस लड़के को 'पी' के नाम से पहचाना जाने लगा। सभी उसे 'पी' कहकर बुलाते थे। उसके 'पी' का रहस्य कोई भी समझ नहीं पा रहा था।
बिना किसी की परवाह किए वह दृढतापूर्वक पढ़ाई करता, हर जगह 'पी', 'पी', 'पी' लिखता था और हमेशा अव्वल दरजे पर भी रहता था। आगे जाकर वह प्रिन्सीपल बन गया। पहले दिन जब वह प्रिन्सिपल बन कर आया तब उसने 'पी' का रहस्य बताया- बचपन से मेरी इच्छा थी कि मैं 'प्रिन्सीपल' बनूं। संकल्प के रूप में मैने 'पी' को मेरा ध्येय बनाए रखा। 'पी' बनने का सपना आज पूरा हुआ।
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आओ जीना सीन...
अफलता (50)
आओ जीना सीन...
अफलता (5)
बच्चो ! यह है इच्छा के प्रति लगन, अपनी धुन जो सतत संकल्प की स्मृति कराती है। खुद मेहनत से एक लक्ष्य, एक दिशा और योजना के साथ दृढ़ता से काम करोगे तो क्या नहीं कर सकते? सब कुछ कर सकते हो। अच्छे इन्सान तो क्या भगवान भी बन सकते हो।
संकल्प का प्रयोग
मन, वाणी और शरीर को स्थिर करें। दोनों हाथ आनन्द केन्द्र पर जोड़कर संकल्प दोहराएं। “मैं चैतन्यमय हूं। मैं आनन्दमय हूं। मैं शक्तिमय हूं। मेरे भीतर अनन्त चैतन्य का, अनन्त आनन्द का, अनन्त शक्ति का सागर लहरा रहा है। उसका साक्षात्कार करना ही मेरे जीवन का परम लक्ष्य है।" - समय एक मिनट ।
संकल्प के लाभ * संकल्पपूर्वक काम करने से सफलता सहज मिलती है। * संकल्प से बुरी आदतों से छुटकारा पाया जा सकता है। * संकल्प से तन-मन और वाणी सभी की शक्ति बढ़ती है।
संकल्प-शक्ति सफलता का द्वार है। * संकल्पहीन व्यक्ति का जीवन निरर्थक होता है।
अपने आप से पूछो... क्या आप कभी संकल्प करते हो? क्या आप कभी आयोजन-नियोजन करते हो? क्या आप स्वनिरीक्षण और स्वपरीक्षण करते हो? आत्मविश्वास के साथ काम करते हो? सबके साथ मैत्री का भाव रखते हो? रात को सोने से पहले चिंतन करते हो? प्रसन्नता से सवेरे उठते हो? हँसते खेलते दिन बिताते हो?
कागज लेकर बैठो और इन प्रश्रों के उत्तर ढूंढो । नकारात्मक उत्तर को सकारात्मक बनाने की कोशिश करो। कुछ दिनों के बाद कितने नकारात्मक उत्तर सकारात्मक बने, इसका भी अभ्यास करो । प्रयोग करके, प्रयत्न से अपने आप को बदलने की कोशिश करो। एक दिन आप में सकारात्मक भाव जग जाएंगे और आपका हर दिन हँसते खेलते बीतेगा। सफलता आपका इंतजार कर रही है।
मैं विद्यार्थी हूँ।
। मैं पवित्र हूँ।
प्रसन्ना
में स्वस्थ हूँ।
सफलता-असफलता
मैं आपको एक आदमी की जिंदगी की कहानी सुनाना चाहूँगी। वह आदमी 21 साल की उम्र में व्यापार में असफल हुआ, 22 साल की उम्र में एक चुनाव में हारा, 24 साल की उम्र में फिर से व्यापार में असफल हुआ, 26 साल की उम्र में उसकी पत्नी का देहांत हो गया, 27 साल की उम्र में मानसिक संतुलन खो बैठा, 34 साल की उम्र में कांग्रेस का चुनाव हार गया, 45 साल की उम्न में सिनेट का चुनाव हारा, 47 साल की उम्र में उपराष्ट्रपति बनने के प्रयास में नाकामयाब रहा, फिर 49 साल की उम्र में सिनेट का चुनाव हार गया और 52 साल की उम्र में अमरीका का राष्ट्रपति चुना गया। वह व्यक्ति अब्राहम लिंकन था।
सकल्प
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आओ जीना सीखें....
सफलता के लिए
सदैव प्रसन्नता
स्व-प्रबंधन
तनाव प्रबंधन
समय प्रबंधन
लक्ष्य का निर्माण
विषय का सम्यक् ज्ञान
सफलता
हर समस्या का समाधान
इन बातों का ध्यान रखें
सकारात्मक विचार
सफलता 52
योजना बनान
अनुशासन
आत्मविश्वास
पुरुषार्थ
आओ जीना सीखें....
असफलता
दायित्त्वहीनता
गैर जिम्मेदार
लगन का अभाव,
स्वार्थी वृत्ति
असफलता
विषय के ज्ञान की कमी
बातों में समय गँवाना
इन कारणों से मिलती है
नियोजन
सफलता 53
तनाव में रहना
नकारात्मक सोच
गुस्सा करना
अभाव
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सफलता (50)
आओ जीना सीन...
सफलता (6)
आओ जीना सीन...
आयोजन-नियोजन
संकल्प चाहे अभ्यास के हों, अपने करियर के हों अथवा जीवन निर्माण के बारे में हों, संकल्प निश्चित करना बीज बोने के समान है। फल प्राप्ति के लिए ठोस योजना, सुव्यवस्थित आयोजन और पुरुषार्थ की जरूरत है। इसके साथ चाहिए सतत जागृति । बीज बोने से फल प्राप्ति तक जो पुरुषार्थ करना पड़ेगा, उसकी पहली सीढ़ी है योजना।
बच्चो! आप किसान को याद करो। वह पहले जमीन साफ करता है, फिर बीज बोता है। जमीन साफ करने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है। हल जोतता है, दिन-रात परिश्रम करता है, तब जमीन साफ होती है। वैसे तुम भी चिंतन का हल चलाओ, विचार और विवेक से मन को साफ करो। अनावश्यक बातें, असीमित इच्छाएँ, राग-द्वेष-ईर्ष्या-मोह का कचरा निकाल दो। साफ और स्वच्छ मन पर सुंदर और सुनिश्चित संकल्प करो। स्पष्ट शब्दों में संकल्प के बीज वपन करो।
बीज बोने के बाद सतत मेहनत करना है। किसान जैसे खाद देता है, पानी का सिंचन करता है, वैसे आप भी व्यवस्थित योजना और नियोजन से शुरुआत करो। कागज पर लिखो। अंकुर फूटने लगते हैं तभी किसान जागृत रहता है। अनावश्यक घासफूस हटाने के सदैव प्रयत्न करता है, वैसे आप निरंतर पुरुषार्थ करो, प्रयत्न करते रहो । लक्ष्य के प्रति बढ़ते रहो, बाधाएँ आयेंगी, उन्हें हटाते जाओ।
जैसा संकल्प वैसी योजना
बद्यो! तुम्हारे सामने तो उद्देश्य स्पष्ट है, परीक्षा में अंक लाना। तो योजनाबद्ध शुरुआत करो। कब उठना, कब पढ़ाई करना । जल्दी उठकर दिन की शुरुआत प्रसन्नता से करो। उठने के बाद प्रार्थना, आसन और फिर दिन का अन्य कार्य करो । महिनों के परिश्रम के बाद याने तुम्हारे आयोजन-नियोजन और परिश्रम से मिलेगा तुम्हे फल।
जीवन अमूल्य है। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। उसमें विवेक शक्ति है। उसके द्वारा वह जीवन का उद्देश्य बनाकर संकल्प निश्चित कर सकता है। दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास, समर्पण और धैर्य से योजना को पूरा करना है।
एक बार प्रबन्धन विशेषज्ञ पीटर फुगल भारत आए थे। उनसे पूछा गया कि भारत के बारे में आपका क्या चिंतन है। उन्होंने कहा - भारत सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध देश है। यह अविकसित नहीं, परंतु अप्रबन्धित है। संसाधनों के कुशल प्रबंधन के अभाव में परिणाम अनुत्पादक होते हैं। यही स्थिति व्यक्ति के जीवन में लागू होती है। स्वयं की क्षमताओं से अपरिचित एवं कुशल नियोजन के अभाव में व्यक्ति सफलताओं के सोपान पर आरोहण नहीं कर सकता।
आज के इस जटिल संसार में विकास के लिए, लक्ष्य प्राप्ति के लिए निश्चित योजना बनाना आवश्यक है। इसके लिए स्वयं को पहचानना अति आवश्यक है। स्वयं को जानो और फिर प्रबंधन करो। प्रबंधन औद्योगिक जगत का शब्द है पर बच्चो! सीमित संसाधनों का लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्यक् उपयोग करना स्वप्रबंधन है। इसकी सर्वत्र अपेक्षा रहती है।
हर एक में अद्भुत और अद्वितीय क्षमताएँ हैं। जीवन को संतुलित बनाना और सफलता पाना एक कला है। बघो! चिंतन करो, लक्ष्य निर्धारित करो, अपनी योजना बनाओ। इसके लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है - स्वयं की खोज, लक्ष्य का निर्माण, कार्यक्षेत्र का चुनाव, क्षमताओं का विकास और आत्मविश्वास।
रहो भीतर, जीओ बाहर
- आचार्य महाप्रज्ञ
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आओ जीना सीखें...
SY योजना कैसी बनाएं?
संकल्प को याद करो । आत्मचिंतन करो। अपनी क्षमता को पहचानो ।
स्कूल का समय केन्द्र में रखकर योजना बनाओ
जैसे शुरुआत -
कब उठना है?
उठते ही प्रार्थना, संकल्प दोहराना अपना बिछौना ठीक करना......
आगे अपनी योजना -
आसन, सूर्यनमस्कार करना ।
अभ्यास का समय निश्चित करना ।
खेल-कूद को समय देना ।
टी.वी. देखने का समय निश्चित करना ।
आ पको खुद को यह काम करना है।
जना सुनिश्चित, सुनयवस्थित बनानी है।
ज ल्दी उठना योजना में पहले लेना है।
20:00) 20:30 (21:00)
21:30
शुरुआत
22:00
22:30
23:00 23:30
सफलता 56
न कारात्मक भाव दूर रखकर आयोजन नियोजन करना है।
निरीक्षण-परीक्षण खुद को करना है।
यो ग्यता को जानना है।
ज जब जरुरत पड़े योजना में बदलाव भी लाना है।
न मस्कार करके दिन की
करनी है।
आओ जीना सीखें....
★ अनुशासन
बच्चो 'अनुशासन' बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। अनुशासन का पालन करनेवाला विकास के रास्ते पर गति से प्रस्थान करता है। अनुशासन से रास्ते के अवरोध खत्म हो जाते हैं। सफलता सहजता से प्राप्त होती है। गति प्रगति में बदल जाती है। उन्नति के पथ पर अग्रसर होने का राजमार्ग है अनुशासन ।
अनुशासन अपनी ध्येयपूर्ति का साधन है। व्यावहारिक भाषा में अनुशासन का अर्थ है नियंत्रण आध्यात्मिक भाषा में अनुशासन का अर्थ है संयम । अनुशासन से लाभ सहज प्राप्त होते हैं और यह लक्ष्यपूर्ति का सहज साधन है।
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अनुशासन हर कला की जननी है। जिसने अनुशासन को नहीं जानापहचाना, जीवन में हर जगह वह ठोकर खाता है। यह तो अमृत है, जो सब को जीवित रखता है।
सफलता 51
गुरुदेव तुलसी कहते थे, यदि मनुष्य चाहता है, उसका वर्तमान अतीत से अच्छा हो, जीवन में अनुशासन और शासन हो, तो उसे विनय और अनुशासन को जीवन के साथ जोड़ना होगा। अनुशासन प्रत्येक देश एवं समाज की अमूल्य निधि है। हर क्षेत्र में अनुशासन का महत्त्व है। अनुशासन एक प्रकार का मानसिक स्वास्थ्य है, जो कार्यों की सुंदरता में प्रकट होता है। एक होता है शासन और दूसरा होता है अनुशासन ।
शासन कठोर भी हो सकता है। बाहरी दबाव से काम करने को विवश किया जाता है। इसे स्वतंत्रता का विरोधी समझा जाता है। इसे त्याज्य माना जाता है। इसे अच्छा नहीं समझा जाता। अनुशासन को हर दृष्टि से मान्यता है। अत्याचारी, मर्यादाहीन और उद्दंड को दण्ड दिया जाना आवश्यक है। अनुशासन का वास्तविक उद्देश्य है आत्मसंयम | आत्मसंयम अनुशासन की 'की' (चाबी) है।
अनुशासन उचित हो, इसके लिए आवश्यक है खुद अनुशासित हों। जो खुद पर नियंत्रण कर सकता है, संयमित रह सकता है, वही अनुशासन रखने का हकदार होता है। इसलिए गुरुदेव ने मूलमंत्र दिया “निज पर शासन, फिर अनुशासन" अनुशासन करने वालों में दृढता, स्थिरता एवं नियमितता होना आवश्यक है।
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आओ जीना सीखें...
बचपन से अनुशासन का संस्कार
• पंडितों के अनुसार किसी कार्य का प्रारंभिक काल ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। अतएव कोमलमति बालकों को उनकी प्रारंभिक अवस्था से ही अनुशासन से अवगत करना चाहिए। अनुशासन कोई एक या दो दिनों में प्राप्त कर लेने वाली वस्तु नहीं है। यह अभ्यास, आदत और अर्जित प्रवृत्तियों का प्रतिफल है। चरित्र का आवश्यक अंग है जो वर्षों की सतत साधना से प्राप्त होता है। बचपन से ही अनुशासन के बीज बोना आवश्यक हैं।
सफलता 58
बोर्ड ऑफ एज्युकेशन के अनुसार अनुशासन वह साधन है जिसके द्वारा बच्चों को उत्तम आचरण और उनमें निहित सर्वोत्तम गुणों की आदत डालने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है।
आज के युग में समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। इससे व्यक्ति उतना परेशान नहीं, जितना अपने आंतरिक समस्याओं से परेशान है। अनुशासन से अनेक समस्याओं का समाधान होता है। यह सरल नहीं, पर धीरे-धीरे एक-एक प्रकार का अनुशासन अपनाकर व्यक्ति आत्मानुशासन का अभ्यास बढ़ा
सकता है।
आत्मसन्मान,
आत्मज्ञान,
आत्मसंयम ये
तीनों ही
जीवन को परमशक्ति की
ओर ले
जाते हैं।
- टेनीसन
-
-
आओ जीना सीखें....
(1)
(2)
हर काम में अनुशासन का महत्त्व होता है....
प्रथम चिंतन करके निर्णय लेना ।
निर्णय से क्रियान्वित तक की योजना बनाना ।
व्यवहार को जानते हुए अनुशासित तरीके से कार्यपूर्ति का प्रयत्न करें।
कार्य की दिशा निर्धारित हो, तो कार्य में सफलता जरूर मिलेगी। यह सब तभी हो सकता है जब हर काम में अनुशासन होगा ।
(3)
सफलता 59
(4)
(5)
णो हीयो णो अतिरिक्त भगवान महावीर अर्थात् न हीन मानो न अतिरिक्त मानो । स्वयं का यथार्थ मूल्यांकन करो।
विनय और अनुशासन भारतीय विद्या के मूल तत्त्व है। इनकी उपेक्षा जीवन की उपेक्षा है।
अध्यात्म विद्या इनके बिना आगे नहीं बढ़ती ।
अनुशासन की प्रेरणा
पूर्व राष्ट्रपति और सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् जाकिर हुसैन जामिया विश्व विद्यालय के उपकुलपति थे। वे अनुशासन और सफाई के मामले में कठोर थे। वे चाहते थे कि जामिया के छात्र अनुशासित और पालिश से चमकते जूतों के साथ साफ-सुथरे कपड़ों में रहें। इस हेतु उन्होंने आदेश निकाला किन्तु छात्रों ने ध्यान नहीं दिया। डॉ. जाकिर हुसैन काफी नाराज हुए और छात्रों को सबक सिखाने की सोच बैठे।
एक दिन छात्र स्तम्भित रह गये, जब उन्होंने देखा कि उपकुलपति जाकिर हुसैन विश्व विद्यालय के गेट पर पालिश और ब्रुश लिए बैठे है। यह देखकर सभी छात्र भूल महसूस करते हुए शर्मिन्दा हुए। अगले दिन से सभी छात्र साफ- -सुथरे कपड़ों में और जूतों पर पालिश करके आने लगे। प्रेरक प्रभाव से अनुशासन का नया माहौल बन गया।
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आओ जीना सीखें....
लिखना
खेलना
पढ़ना
सफलता 60
मदद करना
आओ जीना सीखें...
अधिक टीवी देखना
सतत कम्प्यूटर पर गेम खेलना
सफलता 61
झगड़ा करना
दिन-रात मोबाईल पर बातें करना
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आओ जीना सीखें....
Y आत्मविश्वास
बच्चो! जीवन के हर क्षेत्र में आत्मविश्वास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आत्मविश्वास का प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ता है। सुदृढ़ आत्मविश्वास से ही व्यक्तित्व गहरा बनता है। प्रसन्नता, संतुष्टि और सार्थकता की झलक दिखाई देती है।
आत्मविश्वास
जरूरत ऐसे
दृढ़ युवाओं की है
जो सपने देख सके और
सपनो को पहले विचारों में
फिर कार्य में बदल सके।
सफलता 62
- डॉ. अब्दुल कलाम
आत्म और विश्वास दो शब्दों से 'आत्मविश्वास' शब्द बना हैं। 'आत्म' का संबंध स्वयं से है । 'विश्वास' का संबंध श्रद्धा से है। स्वयं में विश्वास यह आत्मविश्वास शब्द का अर्थ है।
स्वयं पर स्वयं का विश्वास विकास की आत्मा है। अपने आप पर विश्वास होना सफलता की कुंजी है। जीवन में गति, प्रगति और विकास का प्रथम सोपान है आत्मविश्वास | हमारा विश्वास ही हमारा दृष्टिकोण, हमारी आस्था है। जीवन में अर्थपूर्णता प्राप्त होना और जीवन में यशस्वी होने का मूल मंत्र है आत्मविश्वास ।
इसमें भी विश्वास बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विश्वास दो प्रकार के होते हैं। अपने आप पर विश्वास और दूसरों का तुम्हारे ऊपर विश्वास दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। जितना तुम्हारा दृष्टिकोण सम्यक् और वास्तविकता का बोध होगा उतना ही आत्मविश्वास बढ़ेगा। अपने प्रति अपना आत्मविश्वास जितना अधिक होगा, लोगों का आप पर विश्वास उतना ही अधिक होगा। इसलिए सही, सच्चा और सुदृढ
-
-
आओ जीना सीखें...
आत्मविश्वास होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आत्मविश्वास का स्त्रोत हैं स्वयं की दृष्टि जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । इसलिए दृष्टि सकारात्मक और रचनात्मक होना जरूरी है। आत्मविश्वास सकारात्मक सोच है, जो जीवन को रचनात्मक आकार देती है। आत्मज्ञान और आत्मचिंतन से ही सही दृष्टि बन सकती है। अपनी क्षमता, अच्छाई और योग्यता को समझने से आत्मविश्वास बढ़ता है। दृष्टि और सृष्टि का निर्माण अपने आप नहीं होता। उसके लिए अनेक आयामों से गुज़रना होता है। इसके लिए परिवार वातावरण और हमारी आदतें सभी महत्वपूर्ण है।
ज्ञान आत्मविश्वास बढ़ाता है
सफलता 63
हमेशा आत्मचिंतन करो। अवलोकन से अपनी गलती को पहचानो उसे निकालने का प्रयत्न करो। अच्छी बातों को दोहराओ। गलत बातों को टाल दो ज्ञान बढ़ने से आत्मविश्वास बढ़ता है।
इसलिए सतत नया ज्ञान मिले, ऐसा प्रयत्न करो। जागृति सबसे महत्त्वपूर्ण है। हर पल जागृत रहोगे तो गलतियां होंगी नहीं और आत्मविश्वास बढ़ेगा। अच्छी बातें कागज़ पर लिखने की आदत डालो और उसे रोज़ पढ़ते जाओ।
इसलिए बच्चो! आत्मविश्वास का
• निर्माण करो | महत्त्वपूर्ण बात है, अपने
आप को पहचाने। आत्मविश्वास बढ़ाओ ।
आत्मविश्वास से बड़े से बड़ा काम कुशलता से पूरा होता है। कोई भी कठिनाई आए तो दूर करने की क्षमता होती है।
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आओ जीना सीन...
अफलता 0
सफलता (65)
आओ जीना सीन...
स्वस्थ रहो, मस्त रहो, हँसते रहो
आत्मविश्वास वृद्धि के उपाय :
स्वयं का सही मूल्यांकन आत्मविश्वास बढ़ता है। अच्छी आदतों का निर्माण आत्मविश्वास बढ़ाता है। सफलता आत्मविश्वास बढ़ाती है। हर सफलता के बाद आत्मविश्वास का स्तर बढ़ता जाता है। सम्मान और पुरस्कार आत्मविश्वास बढ़ाता है। अनुशासन का पालन करने से आत्मविश्वास बढ़ता है।
मुझे पता है बचों को मस्त रहना बहुत ही अच्छा लगता है पर इसके साथ स्वस्थ रहना भी जरूरी है। हेल्थी बच्चा ही मस्त रह सकता है। तुम जो चाहे वह कर सकते हो, नहीं तो घर में सभी कहेंगे कि इसकी हेल्थ अच्छी नहीं, अशक्त है, यह नहीं करेगा। स्पोर्ट्स हो, कहीं जाना हो, सबसे महत्त्वपूर्ण है मस्त रहना। आप मस्त है तो शरीर अपने आप स्वस्थ रहेगा।
पढ़ाई करना है, स्पोर्ट्स में आगे बढ़ना है अथवा बड़े होकर अपना बिजनेस या नौकरी करनी है, कन्याओं को परिवार चलाना है, खाना बनाना है तो रोगमुक्त और स्ट्रोंग होना जरूरी है।
शरीर के साथ मन को भी प्रशिक्षण की जरूरत है जैसे - संयम करना, गुस्सा कम करना अथवा सहनशीलता दिखाना। तन और मन का गहरा संबंध है। एक दूसरे पर अवलंबित है। तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ और मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ।
मन का स्वास्थ्य निर्भर तन पर, स्वस्थ सदा उसको रखना...
आत्मविश्वास कम होने के कारण और परिणाम क्या होते हैं? अपनी आदतें ही आत्मविश्वास कम करने में प्रभावी होती है। गलत संगत आत्मविश्वास को कमजोर करती है।
आत्मविश्वास कम होने से जो आता है उस पर भी विश्वास नहीं रहता। अपने आप को कम भी मत समझो और अधिक भी मत समझो। स्वयं का सही मूल्यांकन करने से आत्मविश्वास बढ़ता है, अन्यथा - * आत्मविश्वास कम होने से निर्णय गलत लिए जाते हैं।
आत्मविश्वास कम होने से कार्य सम्पन्न करने में समय लग जाता है। जीवन में असंतोष और रिक्तता महसूस होती है।
न वा उ मां वृजने वारयन्ते न पर्वतासो यदहं मनाये। मम स्वनात्कृधुकर्णो भयात एवेदनु घन्किरणः॥
- ऋ 10/27/5
हे मनुष्य! तुम्हारी आत्मविश्वास की शक्ति बड़ी प्रबल है।
तुम्हारे निश्चय को कोई मिटा नहीं सकता। साधारण विघ्नों की बात ही क्या? बड़े-बड़े पर्वत तक तेरी राह नहीं रोक सकते। तू सूर्य से भी अधिक बलवान है।
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आओ जीना सीन...
सफलता (66)
आओ जीना सीन...
अफलता 60
स्वस्थ रहने का मंत्र
तो बच्चो! आओ तुम्हे स्वस्थ और मस्त रहने का मंत्र बताती हूँ। हेल्दी बनने के तंत्र सिखाती हूँ। मैं भी छोटी थी पर हमेशा बीमार रहती थी, कभी सिरदर्द, कभी इतनी अशक्त रहती थी कि उठ भी नहीं सकती थी। परीक्षा में अच्छे मार्क्स भी नहीं मिले । कमजोरी रहती थी। मैं बहुत दुःखी थी, दवाइयां खाकर थक गई थी। मैं भी स्वस्थ और मस्त बनना चाहती थी।
आखिर, ढूँढते-ढूँढते मुझे उ रास्ता मिला। सुखी, स्वस्थ और मस्त रहने का मंत्र मिला । शरीर स्वास्थ्य की कुंजी मिल गई और देखते देखते मैं रोगमुक्त हो
गयी। दवाई छूट गई और अब स्वस्थ, मस्त रहकर सबको
स्वस्थ बनने का राज बताती हूँ। मुझे जो मार्ग मिला वह
कोई नई बात या जादू नहीं था । यह तो हमारी पुरानी
विरासत है योगाभ्यास। यह आत्म विकास
जगाती है। उन्नति के पथ पर ले जाती है,
अपने साथ राष्ट्र का विकास भी करती बच्चो! एक
बात को समझो। योग करना
याने केवल आसन नहीं।
योग संपूर्ण जीवन का
कायाकल्प करता है।
उसके लिए संपूर्ण जीवन ही यौगिक होना चाहिए।
आज कल योग सीखते हैं, पर केवल आसन । एक घंटा योगाभ्यास और तेइस घंटे विरुद्ध वातावरण, भला योगाभ्यास क्या असर करेगा? इसलिए योग केवल आसन नहीं, योग एक जीवन-पद्धति है।
इसे समझें और इसके साथ-साथ जीना सीखें। यह मेरी मंगल भावना है। शरीर के साथ मन को प्रशिक्षित करना जरूरी है। इसके लिए शरीर को समझना और मन को जानना भी जरूरी है।
योग क्यों करना है?
आजकल तो संपूर्ण विश्व में योग का आकर्षण है। अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त होने का कारण है सर्वेक्षण । संशोधन द्वारा यह पता चला है कि योग से स्वास्थ्य प्राप्त होता है। व्यक्तित्त्व-विकास होता है।
बीमारियां हो तो भाग जाती है, नई बीमारियां आती नहीं है।
शरीर के साथ योग मन पर भी प्रभाव करता है। योग ही एक शास्त्र है जो शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और सामाजिक अभ्यास भी सिखाता है। मानसिक शक्ति बढ़ने से कार्य अधिक स्फूर्ति से होते हैं। तनाव से मुक्ति मिलती है। रिलेक्सेशन मिलता है।
हमारे शरीर में जितने भी तंत्र हैं, जैसे पाचनतंत्र, श्वसन तंत्र, नाड़ी तंत्र और स्नायु तंत्र सभी योग से प्रभावित होते हैं। अधिक स्फूर्ति से बनते हैं। जहां दवाइयां काम नहीं आती, योग वहां काम आता है। जो आपकी एकाग्रता, स्मरणशक्ति और स्थिरता बढ़ाएगा।
राष्ट्रोन्नति का मार्ग एक है, योग साधना नित्य करें, वेद काल से गूंज रहा,
DAANES
ॐ कार
ॐ कार
Yoga
ॐकार
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आओ जीना सीन...
सफलता 690
भारत हो या,
हो अमेरिका सब सीरवो योग, दूर हो जाएंगे सारे रोग
आओ जीना सीन...
अफलता 600 इस बारे में जितना लिखू कम है। एक स्वतंत्र किताब इस विषय पर हो जाएगी। इसके साथ थोड़ा सा मुद्रा, मौन, ध्यान और कायोत्सर्ग का अभ्यास भी जरूरी है। साथसाथ जीना सीखना जरूरी है। आज का युग तनाव का युग है, समस्याओं का युग है, स्पर्धा का युग है। इन सबसे मुकाबला करते, आधी जिंदगी बीत जाती है। जीवन के सुंदर क्षण हाथ से निकल जाते हैं। इसलिए बच्चो! योगाभ्यास आवश्यक ही नहीं
अनिवार्य होना चाहिए। योग-शिक्षा एक फैशन बन सुख और आनंद चुकी है। योग शास्त्र का वास्तविक मूल स्वरूप समझना की खोज बाहर बहुत जरूरी है। योगशास्त्र का अध्ययन सही गुरू के
मार्गदर्शन में करना चाहिए। करते हैं, लेकिन
इससे भी एक महत्त्वपूर्ण बात हमेशा याद वह अंदर ही है। रखो, जीवन हँसते-हँसते जीना है। आज-कल सबको - रविन्द्रनाथ टागोर गुस्सा बहुत जल्दी आता है। अपने गुस्से पर
नियंत्रण करना सीखना जरूरी है। संपूर्ण दिवस प्रसन्न रहने से व्यक्ति स्वस्थ और मस्त रहता है। इसलिए घर में बधों पर आसन करने के और अच्छे संस्कार निर्माण करने की आवश्यकता है।
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सफलता 0
आओ जीना मीनवें...
रुचि
जिंदगी का आनंद तब आता है जब हमारे मन में जो है, जैसा है वैसा करने को मिलता रहे। है ना बच्चो ? हमें पता है, बच्चे चाहते हैं खेलें, मस्ती करें, टी.वी. देखें और हम हैं कि हमेशा टोकते रहते हैं, यह मत करो, वह मत करो, अभी मत खेलो।
बच्चे हैं तो पढ़ना पड़ता है, स्कूल जाना, अध्ययन करना जितना आवश्यक है, इसके साथ हमें तनावमुक्त होना, जीवन का आनंद लेना भी सीखना चाहिए। इसके लिए जीवन में अपनी पसंद की बातें करना जरूरी है।
बचो ! अपने आपको देखो, समझो और जानो। तुम्हें सबसे अच्छा क्या लगता है? क्या करने से अत्यधिक आनंद और सुकून मिलता है? जो करने से खुशियाँ ही खुशियाँ मिलती हों, उसे कहते हैं अपनी रुचि अथवा हॉबी। यह अंदर से होती है, ऊपर से थोपी नहीं जाती।
आओ जीना सीन...
अफलता (1) जैसे चित्रकला में रुचि होना, थोड़ा सा प्रयत्न करते अच्छे चित्र निकालना, चित्र को देखते खशी होना, चित्रकारी में खो जाना... इसे कहते हैं तुम्हें इसमें इन्टरेस्ट है, यह तुम्हारी हॉबी है।
इस प्रकार किसी को संगीत, खेल, किताबें पढ़ना, अभ्यास करना, स्टेम्पस् जमा करना, कॉइन्स जमा करना ऐसे कई विषय हो सकते हैं। पर जो करने से बेहद आनंद होता है, हम उस समय सबकुछ भूल जाते हैं।
तो बच्चो ! इसे हॉबी कहते हैं। जीवन में अपनी पसंद की बात करना यह अत्यंत आनंद देता है। सब दुःखों को भुला देता है। हर व्यक्ति की अपनी अपनी पसंद होती है। जैसा वातावरण, वृत्ति, प्रवृत्ति और मार्गदर्शन हो, वैसे अलग विषय हो सकते हैं। इसमें दो फायदे होते हैं, पहले तो खुद का आनंद और दूसरा इसमें आप इतने आगे बढ़ सकते हैं, एक्सपर्ट हो सकते हैं कि आपका नाम पूरे देश में चमक सकता है। खेल, चित्रकारी, संगीत सबमें आप पुरस्कार प्राप्त कर स्कूल, समाज और धीरे धीरे राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर सकते हो।
HOBBIES o Music o Reading o Dansing o Collections o Playing o Yoga o Painting
दृढ संकल्प
हुवर इंजीनियर बन चुके थे, लेकिन बेरोजगार थे। नौकरी की खोज में एक उद्योगपति के पास गए और उससे अनुरोध किया, 'आपके पास कारखाने में इंजीनियर का कोई स्थान रिक्त हो तो कृपया मुझे रख लें।' उद्योगपति ने कहा- 'इस समय इंजीनियर का स्थान तो खाली नहीं है, किंतु एक टाइपिस्ट का स्थान अवश्य खाली है। क्या तुम टाइपिस्ट का कार्य कर सकोगे?' हुवर ने कहा- 'कर सकूँगा, लेकिन चार दिन बाद उपस्थित हो सकूँगा।' इस पर उद्योगपति ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर स्वीकृति दे दी।
हुवर को टाइप करना नहीं आता था। किन्तु वे संकल्प के धनी थे। घर आकर रात-दिन टाइप करने के अभ्यास में जुट गए। पाँचवें दिन नौकरी पर उपस्थित हो गए। परीक्षा हेतु उन्हें टाइप करने के लिए एक कागज़ दिया गया, एक भी भूल नहीं हुई। वे नौकरी पर रख लिए गए। महान लोग बड़े अवसर की राह नहीं देखते, छोटे अवसरों को भी बड़ा बना देते हैं।
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आओ जीना सीखें...
सफलता 12
बच्चो ! इस विषय को अच्छी तरह से समझो। अपने आपको देखो। अपने जीवन को सार्थक और अर्थपूर्ण बनाने के लिए अपनी रुचि जानना, उसमें अपने आपको झोंक देना अत्याधिक आनंद प्राप्त करता है।
मैंने खुद इसका इतना अनुभव किया है, मुझे अनेक विषयों में इन्टरेस्ट है। इसके लिए मैं बहुत कुछ करती हूँ और मज़ा भी आता है। किताबें पढ़ना तो विरासत में मिला संस्कार है और मेरी रूचि भी है। इसके साथ लिखना भी अच्छा लगता है। भारत कलाप्रिय देश है। यहां प्राचीन काल से कलाओं को महत्त्व दिया गया है। कलाकारों का सम्मान होता है। आज भी इसका महत्त्व बढ़ रहा है। 72 कलाएँ हैं, इसका इतिहास भी मनोरंजक है। मुझे फोटोग्राफी और स्पोर्ट्स में ज्यादा इन्टरेस्ट है। स्वीमिंग बहुत ही अच्छा लगता है। फोटोग्राफी की तो मैनें क्लास भी की। डेव्लपींग, प्रिन्टिंग सीखा, इसमें पुरस्कार भी प्राप्त किया।
बच्चो ! दिनभर टी.वी. देखना, मस्ती करना और गपशप में समय गुजारने से अच्छा है स्वयं को जानो, हर छुट्टी में कोई न कोई क्लास करो।
एक विषय में इन्टरेस्ट लेकर आगे बढ़ो। बचपन में हम ग्रिटींग कार्डस् का कलेक्शन करते थे। अपने कुछ उद्देश्य हो, ध्येय हो उसके प्रति लगन रखो। सुंदर सुविचारों का कलेक्शन करते थे जिसका उपयोग जिंदगी में हर जगह होता है। स्कूल में निबंध लिखने में, वक्ता हो तो बोलने में, नहीं तो गपशप में अपना इम्प्रेशन जमाने में ।
तो बच्चो ! अपनी रुचि को ध्यान में रखकर कोई ना कोई हॉबी जरूर तय करो। मैं आज भी टेबल टेनिस खेलती हूँ तो सब कुछ भूल जाती हूँ। पत्र-मैत्री की थी। सुख-दुःख बांटते थे। कविता करती हूँ तो आनंद मिलता है। योग ही मेरी रूचि है। इसमें इतना आनंद मिलता है। हर मनपसंद बात हम नहीं कर सकते, शायद मौका नहीं मिलता, मार्गदर्शन की कमी रहती है। इसलिए हम बहुत कुछ मिस करते हैं।
अब बनी हूँ योगशिक्षिका, प्रेक्षाध्यान प्रशिक्षक मेरी विल पावर थी, शिक्षिका बनने की। अब मैं सभी को सिखा सकती हूँ। सबसे अधिक आनंद योग सिखाने में मिलता है। बच्चो! अपनी पसंद को ढूंढो सीखो, संघर्ष करो और आगे बढ़ो। महान बन सकते हो। पर पुरुषार्थ की ज़रूरत है। लगन और मेहनत रंग लाती है।
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आओ जीना सीखें...
हॉबी के बदले आजकल सबको फैशन, नये कपड़े लेना और मेक-अप करना इसी में अधिक रस रहता है। परिग्रह भी बढ़ रहा है। रोज़ नई चीज चाहिए और ब्यूटी पार्लर तो युवा क्या बूढ़ों को भी आकर्षित करता है। सब मेक-अप करना पसंद करते हैं। मेक-अप करने से सुंदर दिखते है पर मेक-अप उतरने के बाद? क्या मेक-अप से आँखें, चेहरे के नाक-नक्शे बदलते हैं? रंग बदलेगा? जो शाश्वत है, वही रहता है और जिसे बदलना है वह है आपके अवगुण ।
चिंतन करो, अध्ययन करो और ज्ञान के द्वारा प्रयोग के द्वारा गुण बढ़ाओ तो सबके प्रिय बनोगे । जीवन आनंदमय होगा। आनंद बढ़ाने के लिए रुचि बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसलिए बच्चो, तहेदिल से मैं आपको यह कहना चाहती हूँ कि अभी भी समय है। आप चिंतन करो और स्वयं को पहचानो ।
मैं अपनी बेटी को जो बात हमेशा बताती हूँ वह तुम्हें भी बताती हूँ। देखो बच्चो, अभी आप कुछ समय के लिए मेहनत करोगे, व्यवस्थित पढ़ाई करोगे और रातदिन परिश्रम करोगे तो आगे जिंदगी भर मस्त रहोगे और सुख-चैन से जीओगे । मगर अभी कुछ साल आलस करोगे, पढ़ाई पर ध्यान नहीं दोगे, मेक-अप और मनोरंजन में टाइमपास करते रहोगे तो फिर जिंदगी भर रोते रहोगे। सारी जिंदगी मेहनत करनी पड़ेगी। जमाना चुनाव का है भाई चुनाव करो।
कुछ साल मेहनत, कष्ट और परिश्रम करके ज़िंदगी बिताओ और उसके बाद यश-सुख-चैन और आनंद ही आनंद। जबकि कुछ साल आलस, मनोरंजन और टाइमपास करोगे तो जिंदगी भर महेनत और कष्ट करने पड़ेंगे।
राष्ट्रीय चिह्न
राष्ट्रीय ध्वज
राष्ट्रीय मुद्रा.
राष्ट्रीय भाषा
राष्ट्रीय खेल
मेरा भारत राष्ट्रीय फूल.
राष्ट्रीय फल
अशोक चक्र
तिरंगा झंडा
सफलता 13
रूपया
. हिन्दी
हॉकी
राष्ट्रीय पशु ·· राष्ट्रीय पक्षी.
कमल
आम
. वाघ
. मोर
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आओ जीना सीन...
अफलता (10
आओ जीना सीन...
सफलता (5)
पढ़ेगा, वही आगे बढ़ेगा
अच्छी किताबें सिर्फ शरीर को ही नहीं,
आत्मा को भी समृद्ध करती हैं, इसलिए पढ़ने की आदत डालनी चाहिए।
___- डॉ. अब्दुल कलाम
बच्चो ! मैंने रूचि की बात लिखी। मुझे विश्वास है, जो हॉबी चॅप्टर पढ़ेंगे तो चिंतन जरूर शुरू करेंगे। कुछ बचों ने तो शिटींग, कॉइन्स, स्टेम्प का कलेक्शन करना भी शुरु कर दिया होगा।
बच्चो ! एक विषय की मैं जानकारी देती हूँ। जिसे पढ़कर आप भी जरूर उसे स्वीकार करोगे। वह बात है - "आपको पढ़ने की आदत डालनी है" आप कहेंगे, हम तो पढ़ते हैं। मेरे प्रिय बच्चो ! पढ़ाई की किताब तो सभी पढ़ते हैं, मैं दूसरी किताबें पढ़ने की बात कर रही हूँ।
मैं कॉलेज में पढ़ती थी। छुटटी में जब गांव जाती, छोटा सा गांव था। तो लायब्ररी से जाकर किताबें पढ़ती थी। उस जमाने में न टी.वी. था न ज्यादा बाहर
जाना-आना। मैं 2 किताबें लाती। दोपहर 3-4 बजे मैं नरक में भी
जाती थी। आते ही रात तक एक किताब पूरी पढ़
लेती। दूसरे दिन सवेरे से दोपहर तक दूसरी किताब अच्छी पुस्तकों का
पढ़ लेती थी। 3-4 बजे वापस जाती। उस लायब्रेरी स्वागत करुंगा। वाले को पहले तो गुस्सा आता था । एक दिन कोई दोक्योंकि उनमें वह दो किताबें थोड़ी ही पढ़ता है? मैने सब बताया तो वह शक्ति है कि जहाँ
इन्प्रेस हो गया था।
बच्चो ! उसका जीवन भर मुझे उपयोग हुआ। हर वे होंगी वहाँ स्वर्ग
जगह, हर समय किताबों का ज्ञान काम आता है। बन जाएगा।
शुरू में ही मैंने लिखा है कि सत्य और ज्ञान पर - लोकमान्य तिलक खड़ा जीवन ही महान बन सकता है। यह ज्ञान पाना
है तो पढ़ना होगा। 'बच्चे और हम' राज किशोर जी की किताब है। वह लिखते हैं - बच्चे साहित्य
पढ़ेगा, वही आगे बढ़ेगा
Page #40
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आओ जीना सीखें...
क्यों पढ़े?
जिंदगी के अधूरेपन को भरने के लिए बच्चों को विविध प्रकार के साहित्य की आवश्यकता होती है। साहित्य सृजन करते हैं। अपना क्षेत्र सीमित होता है। विश्व बहुत बड़ा है। ब्रम्हांड का तो क्या कहना ? हम तो मोहल्ले या गांव की सीमा में जीते हैं। असंख्य अनुभवों की ज़रूरत होती है। ये अनुभव साहित्य द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं।
शहर,
बच्चो ! पढ़ेगा, वही आगे बढ़ेगा। शरीर को आहार की जरूरत होती है। वैसे आत्मा की खोराक ज्ञान है। जितना पाओगे उतनी ही विशाल दृष्टि बनेगी।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है- 'जो सुख तुमे महलों में प्राप्त नहीं होगा वह तुम्हें किताबों में प्राप्त होगा।' महात्मा गांधी जी ने भी कहा था पुस्तक मूल्य रत्न से अधिक अमूल्य है। रत्न तो बाहर से चमक दमक दिखाता है, पुस्तकें अंतःकरण को चमकाती हैं।
सफलता
76
साहित्य की शक्ति अनंत हैं। लेखकों
की कल्पना लोगों
का मानस बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका
अदा करती है। - कृष्णकांत
बच्चों में बचपन से ही संस्कार बहुत जरूरी हैं। घर में पुस्तकें हो। बड़े बच्चो को पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा दें। आश्चर्य तब होता है जब हजारों रूपए की साड़ी बहने सहजता से खरीदी करती हैं, परंतु एक पुस्तक लेने के लिए कहते हैं तो, कहती हैं -घर में पूछकर बताती हूँ। हजारों रुपए पार्टी और पिकनिक में भी लोग सहजता से खर्च करते हैं, परंतु जब 100 रूपए की किताब लेने के लिए कहते हैं तो सौ बार सोचते हैं।
बच्चो ! अब जब तुम्हे पढ़कर आगे बढ़ना है तो इस बात का महत्त्व समझते हुए अपनी रुचि वाचन के प्रति मोड़ो। अपने आप को समझकर पढ़ने की कोशिश करो।
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महापुरुषों का चरित्र पढ़ोगे तो पता चलेगा, कितने संघर्ष करने के बाद वे महान बने । उनमें कैसी लगन थी, धुन थी। वैसे ही हम क्या बनना चाहते हैं? यह तय कर सकते हैं। किताबे हमें दिशा निर्देश करती हैं। समस्या का समाधान देती हैं। हमारी प्रगति में गति देने का काम करती हैं। टी.वी., कम्प्यूटर और इन्टरनेट
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आओ जीना सीखें...
के जमाने में किताबें पढ़ने की रुचि कम हुई है।
हमें ऐसा लगता है, लोग किताबें कम पढ़ते हैं पर सचमुच अमरिका में मैंने देखा छोटे बच्चों के लिए भी हजारों किताबें होती हैं और छोटे छोटे गाँवों में भी विशाल लायब्रेरी होती हैं। उसका उपयोग भी लोग व्यापकता से करते हैं। हमने पढ़ा था, हेरी पॉटर की किताबें खरीदने के लिए लाइन लगाने की नौबत आई थी।
सफलता 11
अच्छी पुस्तकें बी
कल का इतिहास बताने के अलावा
नैतिकता और
प्रमाणिकता से
जीवन जीने का मार्ग
प्रशस्त करती हैं -ललितप्रभ सागर
स्कूल में हम परीक्षा को पास करने के लिए कितना पढ़ते हैं। जीवन तो परीक्षा से कितना अनमोल है। तो जीवन की परीक्षा में सफल होने के लिए पाठ्य पुस्तक के सिवा हमें कुछ अच्छी किताबें पढ़ना जरूरी
हैं जो मार्गदर्शन देने वाली हो, जीना सिखाने वाली और हमें प्रेरणा देने वाली हो। हम जीवन में प्रगति करें, उन्नति करें, उसके लिए केवल धन काम का नहीं । किताबें ही हैं जो जीवन को ऊँचाई देगी। किताब ऊंची उड़ान में काम आयेंगी ।
इसलिए बच्चो ! पढ़ो और आगे बढ़ो पढ़ने का मजा कुछ और ही है। जो पढ़ता है, वही आगे बढ़ता है। जो पढ़ता है वह बहुत कुछ पाता है, जो पढ़ता नहीं तो सबकुछ खोता है।
वह
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पुस्तक प्रेमी सबसे धनी और सुखी इन्सान है। बनारसीदास चतुर्वेदी
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आओ जीना सीखें...
भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण ताव
'चरैवेति' इसे हमेशा याद रखो।
जो चलता है उसका भाग्य भी चलता है । जो बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है। जो सोता है, उसका भाग्य भी सोता है।
इसलिए, चलते रहो... चलते रहो....
सर्वागीण विकास के लिए
हमेशा आत्मनिरीक्षण करें
विवेक से रहें
→ मधुर भाषा का प्रयोग करें
तनावमुक्त रहें
प्रामाणिक रहें
→ सदैव संकल्प करें लक्ष्य का निर्माण करें
गुस्सा कम करें
सहनशीलता
→ सहिष्णुता स्व-प्रबंधन
श्वास को देखें
सफलता 18
आत्मविश्वास
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आओ जीना सीनवें....
टी.वी. के दुष्परिणाम 19
टी.वी. के दुष्परिणाम
आज घर-घर में टी.वी. का ही राज है। ऐसा घर ढूंढकर भी नहीं मिलेगा जहाँ टी.वी. न हो। घर का हर सदस्य टी.वी. के सीरियल और कार्यक्रम में डूबा हुआ है। बच्चे तो बच्चे होते हैं पर बड़े भी इसके मोहजाल में फँसे हैं। बच्चों को हम दोष भी कैसे दे सकते हैं?
बच्चो ! आप खुद तो सोचो, चिंतन करो। आपको कुछ करना है, कुछ बनना है तो उसके लिए कुछ छोड़ना भी होगा। मैं यह नहीं कह रही हूँ कि तुम टी.वी. देखना छोड़ दो। टी.वी. से हमारा काफी समय निकल जाता है। टाईम इज मनी । इसे इस तरह व्यर्थ गँवाने से हम जो करना चाहते हैं, वह कर नहीं पाते।
हमेशा टी.वी. देखने से दिमाग में वही तस्वीरें घूमती हैं। हमारी नये सृजनशक्ति पर उसका प्रभाव होता है। टी.वी. के पात्र मन पर इतने हावी होते हैं, नये विचारों को समय नहीं मिलता। उसमें कुछ क्रिएटिव करने का हम भूल ही जाते हैं।
टी.वी. देखने से फायदे होने से अधिक नुकसान है। बच्चों को खेलना, हमेशा एक्टिव रहना चाहिए। उस इडियट बॉक्स के सामने से उठने का मन ही नहीं करता । नये-नये आकर्षक विज्ञापन देखने से वह चीज लेने का मन होता है। वैसे कपड़े पहनने की इच्छा होती है। आँखों पर बुरा असर होता है।
इसलिए बच्चो ! हमें अपना विकास करना है तो टी.वी. देखने का समय निश्चित करो। कुछ चेंज व फ्रेश होने के लिए थोड़ी देर टी.वी. देखना अच्छा है। टी.वी. में अच्छी ज्ञानवर्धक जानकारियां देने वाले कार्यक्रम होते हैं। उन्हें जरूर देखना । मुख्य समाचार सुनना। टी.वी. बुरा नहीं, हम उसमें से क्या लेते हैं वह जरुरी है। टी.वी. पर बकवास सीरियल अधिक आती है और आते हैं आकर्षक विज्ञापन | इसी का बच्चों पर खराब और गहरा असर होता है।
आज का ज़माना कम्प्यूटर का है। स्कूलों में कम्प्यूटर सिखाते हैं। इसमें आज कल कम्प्यूटर गेम्स का बच्चों पर बहुत प्रभाव है। एक बार गेम्स चालू हुए तो न समय का पता चलता न उठने का मन करता गेम्स में मारामारी, होरर टाईप्स गेम्स बच्चे पसंद करते हैं। इससे हिंसक प्रवृत्ति बनती है।
बच्चे तो अनुकरणप्रिय होते हैं। देखते है वह करने का मन करता है।
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आओ जीना सीन...
टी.वी. के दुष्परिणाम 0
Eવી તો ક્યે આખાય. ઘરનું થઈ ગયુ છે આપણુ, પણ સાચું કહું તો એ તો
ધોથી અમને
ટીબીને ક્રોણા
dearl
મી
SoO
પ્રિયા
आओ जीना सीन...
टी.वी. के दुष्परिणाम 0 दिन भर में बचे न जाने कैसे सीन, कितनी बार देखते होंगे? इसलिए बड़ों को सतर्क रहना जरुरी है। बच्चों को समझाकर उनके साथ प्यार से बैठकर चर्चा करके टाईम टेबल बनाने में टी.वी. में क्या देखना, कब देखना यह निश्चित करना जरूरी है।
मैं काफी स्कूलों में काम करती हूँ। अच्छे बच्चे हम बनेंगे। इस विषय पर काफी लेक्चर भी दिये हैं। नवसारी में संस्कार भारती, भक्ताश्रम और डी.डी. गर्ल्स में काफी कार्यक्रम किए। भक्ताश्रम में मेरी संस्कार निर्माण बुक प्रकाशित हुई थी और हर बच्चे को दी थी।
सूरत में बचकानीवाला स्कूल की प्रिन्सिपल रीटाबेन फूलवाला फूल की तरह हँसती हुई बच्चों को प्रेरणा देने में तत्पर रहती हैं। यह बुक लिख रही थी तब इसके लिए कुछ चित्र चाहिए थे। ड्राईंग टीचर मयुरभाई से बात करके हमने बच्चों को बताया तो बच्चों ने बहुत अच्छे चित्र बनाएं। टी.वी. के दुष्परिणाम का चित्र अमित जरीवाला ने चित्रित किया है। कई उत्साही बच्चों ने काफी सुंदर चित्र बनाए थे।
आई.जी. देसाई स्कूल के प्रिन्सिपल जयन्त जोशी भी एक उत्साही प्रिन्सिपल है। हमेशा बच्चों को प्रेरणा मिले इसलिए प्रयत्न करते हैं। ऐसे अनेक स्कूलों में हम अणुव्रत, जीवन विज्ञान और योग प्रशिक्षण का काम करते हैं। यहां काम करतेकरते बच्चों की समस्याएं सामने आईं। अनेक आचार्य बच्चे अच्छे बने इसके लिए कुछ न कुछ कार्यक्रम करना चाहते हैं। इस कारण मुझे यह किताब लिखने की प्रेरणा मिली।
टी.वी. के दुष्परिणाम * लंबे समय तक टी.वी. देखने से रीढ़ की हड्डी, गर्दन के रोग होते हैं। * आँखों पर बुरा परिणाम होता है, मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है। * तनाव और अस्वस्थता के लक्षण प्रकट होते हैं। * कर्तव्यबोध का अभाव होता है। * समय का दुरुपयोग होता है। * किसी भी काम में मन नहीं लगता। * जीवनचर्या अनियमित एवं असंतुलित हो जाती है।
અસંસ્કારીનું
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अमीत सतीचभाईजरीवाला शेठश्री पी.एच. बचकानीवाला विद्यामंदिर, खरवर नगर, सूरत
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आओ जीना सीन...
प्रयोग करें (2)
प्रयोग करें
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प्रयोग करें
आओ जीना सीन...
श्वास
जब तक अन्तःकरण नहीं बदलता, आदमी भीतर से नहीं बदलता, तब तक बाहरी परिवर्तन हो जाने पर भी बहुत कुछ परिवर्तन नहीं होता।
आचार्य महाप्रज्ञजी ने यह बात केवल उपदेश के लिए नहीं बताई। उनका विश्वास है - हर कोई बदल हम लोग चाहे धर्म सकता है, बस उसके लिए प्रयोग की आवश्यकता है।
के क्षेत्र में हों या उन्होंने प्रयोग दिये हैं और साथ ही आदतों को बदलने का रहस्य भी बताया है।
शिक्षा के क्षेत्र में, आदतों को बदलने का रहस्य है - एक संकल्प
संकल्प सिद्धांत को जितना से शुरु करना और करते - करते उस संकल्प को महत्त्व देते हैं, भीतर तक पहुँचा देना। केवल संकल्प बचे। यह
उतना प्रयोग को महत्त्वपूर्ण स्थिति है। कितने ऋषिमुनि हुए, कितने ग्रंथ हैं, लोग प्रवचन
नहीं। प्रवचन सुनते हैं, मंदिर जाते हैं और शिक्षा भी काफी लेते हैं, उपदेश में विश्वास पर बदलते नहीं ऐसा क्यों? क्योंकि जीने के लिए
- आचार्य कहााले छोटी-छोटी बातें सीखना भी जरूरी है। जो हम रोज के व्यवहार में करते हैं, उन्हीं पर थोड़ा चिंतन, मनन और आत्मनिरीक्षण करें। थोड़ा सा बदलाव भी काफी फलदायक होगा। जैसे खाना-पीना, उठना, बैठना, बोलना... यह तो हम रोज ही करते हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण है वर्तमान में जीना । जो गया उस कल की याद में समय व्यर्थ जाता है और जो आने वाला है उसके सुनहरे सपनों में हम वर्तमान को भूल जाते हैं। इसीलिए जीवन के हर पल के बारे में हमें सोचना है, क्या करना है और क्या नहीं करना।
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___ जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है श्वास । जीवन में श्वास से महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं। अगर हम श्वास को देखना सीखें तो आदत भी बदल सकती है और गुस्सा भी कम हो सकता है। सुखमय और आनंदमय जीने के लिए श्वास को देखना, श्वास कैसे लेना? यह सीखना भी जरूरी है।
श्वास-प्रेक्षा करे । श्वास प्रेक्षा का मतलब श्वास के प्रति जागरुकता, श्वास को देखना । आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं, जो व्यक्ति श्वास के प्रति नहीं जागता वह व्यक्ति जागृति की चाबी नहीं घुमा सकता । इसलिए, श्वास को देखना जरूरी है। श्वास और हमारे भाव का गहरा संबंध है। गुस्सा आता है, उत्तेजना आती है, तो श्वास छोटा हो जाता है। श्वास की गति बढ़ती है। इसलिए, दीर्घ श्वास का प्रयोग करें।
दीर्घश्वास का प्रयोग * चित्त को नाभि पर केन्द्रित करें।
श्वास की गति को मंद करें। धीरे-धीरे लंबा श्वास ले और लम्बी श्वास छोड़ें। चित्त को नाभि पर केन्द्रित करें। श्वास लेते समय पेट की मांसपेशियाँ फूलती हैं। श्वास छोड़ते समय सिकुड़ती हैं। पेट की मांसपेशियों को फूलने और सिकुड़ने का अनुभव करें। प्रत्येक श्वास की जानकारी बनी रहे। चित्त को नाभि से हटाकर दोनों नथुनों के भीतर सन्धि स्थान पर केन्द्रित करें। दीर्घश्वास चालू रखते हुए आते-जाते प्रत्येक श्वास का अनुभव करें। दीर्घश्वास प्रेक्षा के लाभ: एकाग्रता व जागरुकता बढ़ती है ज्ञाता-दृष्टा भाव बढ़ता है। विचार कम आते हैं।
पाचन तंत्र को लाभ पहुँचता है। * स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है।
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जीवन सुखमय, आनंदमय और सफल बनाना है तो,
सोचकर सीखो जीना, तभी मार्ग पाओगे। सीखलोsss जीना तभी तो, सच्चा सुख पाओगेश
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प्रयोग करें
आओ जीना सीन... करवाना-पीना
आओ जीना सीन...
प्रयोग करें जल्दी सोना-उठना
भगवान महावीर ने कहा है - "खणं जाणाहि पंडिए।" ज्ञानी वही होता है जो प्रतिक्षण जागरुक रहता है। समय का अंकन करता है। शरीर स्वस्थ और मन मस्त रहने के लिए हमारे दिन की शुरुआत शुभ हो, आनंदमय हो । जल्दी उठना ही आपके जीवन को सफल बनाने का रहस्य है। उठते ही दिन की शुरुआत अच्छी होने के लिए प्रसन्नतापूर्वक उठना, हाथ जोड़कर प्रार्थना करना,
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती:
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्ल आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं - आयुर्वेद का सिद्धांत है कि प्रातःकाल उठते ही ओंकार का जप करना चाहिए। प्रत्येक धर्म संप्रदाय कहता है कि उठते ही भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए। आत्मवादी दर्शन कहते है कि उठते ही आत्म-चिन्तन या आत्म निरीक्षण करना चाहिए। ये सारे विधायक भाव को जगाने के साधन हैं।
जब प्रातः काल उठते ही विधायक भाव का चक्का घूम जाता है तो पूरा दिन उसी जागृति में बीतता है। यदि उठते ही बुरी बात सामने आती है तो निषेधात्मक भावों का चक्का घूमने लग जाता है और पूरा दिन उसी में गुजरता है। हमारी दिनचर्या का आदि-बिन्दु होना चाहिए शक्तिमय, चैतन्यमय और आनन्दमय प्रभु का दर्शन । ॐ, अर्हम्, सोहम् आदि मंत्राक्षरों का दीर्घ उच्चारण करने से मन वाणी के साथ जुड़ जाता है।
सोना और उठना * रात को सोने से पहले, ठण्डे पानी से हाथ-पैर व मुँह होना चाहिए। * सब चिंताओं व तनावों से मुक्त होकर, शरीर को शिथिल करके सोना।
रात को जल्दी याने 10.00 बजे तक सोना। पूरी व गहरी नींद अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। चेहरा ढंक कर सोना हानिप्रद है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय से एक घंटे पहले उठना स्वास्थ्यप्रद है। उठते ही प्रार्थना करके दिन की शुरुआत करें।
अन्नेन पूरयेत अर्धम्, तोयेने च तृतीयकम् ।
उदरस्य तूरीयांशं च, संरक्षेत् वायुधारणामङ्ग हमारे द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजन अन्ननली के द्वारा आमाशय में पहुंचता है। आमाशय में अन्न का पाचन होता है, इसलिए उसका आधा हिस्सा आहार, 1/4 द्रव्य और 1/4 हिस्सा वायु संचार के लिए खाली रखना चाहिए । पेट पूरा भरा हो तो पाचन बराबर नहीं होता, इसलिए आहार कम लो। दूंस-ठूस कर मत भरो।
भोजनांते पिबेत तक्रम, दिनान्ते च तिबेत पयः ।
निशान्ते च पिबेत वरि, तत् वैद्यस्य किं प्रयोजनम्न खाना खाने के बाद छाछ पीना, रात्रि को दूध और सवेरे जल्दी उठते ही पानी पीना चाहिए। ऐसा किया तो वैद्य की जरूरत नहीं होगी।
खाने में तेल-मिर्च का उपयोग कम करें खाने में हरी सब्जियों का प्रयोग ज्यादा करें, सलाद ज़्यादा खाएँ मिठाई, चोकलेट और आईसक्रीम का उपयोग कम से कम करें भोजन के समय केवल भोजन ही करें, अन्य प्रवृत्ति न करें मौन रखकर भोजन करना अति उत्तम है भोजन धीरे-धीरे चबा-चबाकर करें रेशेयुक्त खाद्यपदार्थों का उपयोग लाभप्रद है शाकाहार हर दृष्टि से सर्वोत्तम है भोजन करने के बाद धीरे-धीरे टहलना चाहिए। उबला हुआ पानी पीओ, छान कर पीओ भरपूर पानी पीओ पर धीरे-धीरे और चूंट-घूट पानी पीओ भोजन के बाद सुविधानुसार 5 से 10 मिनिट वजासन में बैठना लाभप्रद
पेट भरकर भोजन करते हैं, उन्हें भोगी कहते हैं, पेट भरकर थोड़ा ज्यादा भोजन करते हैं, उन्हें रोगी कहतें हैं,
पेट भरने से थोड़ा कम खाते हैं, उन्हें योगी कहते हैं
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आओ जीना सीनवे....
बोलना
मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो भाषा का उपयोग करता है। मनुष्य में ही बोलने की क्षमता है। बोलने से अपनी भावना वह व्यक्त करता है। मधुर और मृदु बोलने से वह सबका प्रिय बनता है। मधुर वाणी सबको अच्छी लगती है। कटु और कठोर बोलने से वैरभाव बढ़ता है, झगड़े होते हैं। इसलिए वाणी का विवेक आवश्यक है। बोलना तो सभी जानते हैं। सुखमय और आनंदमय जीना सीखना है तो कैसे बोलना? कब बोलना? यह भी सीखना पड़ेगा। मौन सबसे अच्छा है, परंतु मौन रखना आसान नहीं है। इसलिए कम बोलना और सच बोलना सीखना चाहिए।
- आवश्यक हो तो ही बोलना, मधुर और मृदु बोलना - सत्य और प्रिय लगे ऐसा बोलना - दिन में एक-दो घंटे मौन करने का अभ्यास करना - गुस्से में हों तो नहीं बोलना - विवेकपूर्ण और विचारपूर्वक बोलना चाहिए - ऊँची आवाज के बदले धीमे बोलना अच्छा होता है
बोलने से अनेक समस्याएँ पैदा होती है। वाणी समस्या भी है और समाधान भी है। जिन्हें बोलना आता है पत्थर दिल को भी पिघला सकते हैं और सही बोलना नहीं जानते वह एक शब्द से महाभारत भी निर्माण कर सकते है। इसलिए -
सोच कर बोलो निरंतर मधुर वाणी।
आओ जीना सीन...
प्रयोग करें गुस्सा
आज की सबसे अहम् समस्या है क्रोध। किसी के भी घर जाओ, यह समस्या है ही। यह जटिल संवेग है। छोटे से बच्चे से लेकर बूढ़े तक सबको गुस्सा आता है। गुस्से का परिणाम दूसरों पर होता है, उससे अधिक अपने शरीर पर होता है।
हृदय और श्वास की गति भी तीव्र होती है मस्तिष्क का असंतुलन होता है निषेधात्मक भाव पैदा होते हैं, पारस्पारिक संबंध बिगड़ते हैं अंतःस्त्रावी ग्रंथियों पर गहरा असर होता है जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है
क्रोध क्यों आता है? * अहंकार और अधिक अपेक्षाएँ रखने के कारण * प्रतिकूल परिस्थितियों और नकारात्मक भाव के कारण
अनियमित जीवनचर्या और असमय भोजन करने के कारण स्नायाविक दुर्बलता के कारण क्रोध निवारण के लिए संयमित और समय पर भोजन करना भाषा का संयम रखना 'मुझे शांत रहना है' यह संकल्प रोज करना है जहां क्रोध का वातावरण है वहां से दूर जाना 100 से 1 तक उलटे अंक गिनना ठंडा पानी पीना रोज दीर्घ श्वास का प्रयोग करना ललाट पे जहां बिंदी लगाते हैं उसे ज्योति केन्द्र कहते हैं, वहां आंखें बंद करके सफेद रंग का ध्यान करना भावना करें - 'क्रोध शांत हो रहा है, आवेग और आवेश शांत हो रहे हैं' शशांकासन करना
माँ सरस्वती की उपासना व्यक्ति को
ज्ञान-विज्ञान की विशेष प्राप्ति, कला और आहित्य में विशेष प्रवीणता एवं सभी लौकिक उपलब्धियों की
प्राप्ति कराती है और बच्चों की बौद्धिक क्षमता में अभूतपूर्व परिवर्तन लाती है।
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प्रयोग करें
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आओ जीना सीन...
शशांकासन
yf स्मृति विकास
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स्थिति : दोनों घुटने मोड़कर पंजों के बल बैठे। (वज्रासन की तरह) विधिः (1) दोनों हाथों को श्वास भरते हुए ऊपर ले जाएं।
(2) श्वास छोड़ते हुए नीचे झुकें। (3) श्वास भरते हुए हाथों को पुनः ऊपर ले जाएँ।
(4) श्वास छोड़ते हुए मूल स्थिति में हाथों को घुटनों पर लगाएं। लाभः (1) स्मृति बढ़ती है।
(2) क्रोध शांत होता है। (3) रक्तचाप सामान्य होता है। (4) मानसिक शांति प्राप्त होती है। हँसते रहना
जीवन में सुख तभी मिलेगा जब सब तुम्हे प्यार करेंगे, तुम्हे देखकर खुश होंगे। यह तो तब होगा जब तुम हँसते हुए सबसे बातें करोगे। एक मुस्कान हजारों को अपना बना सकती है। हँसने से तनाव नहीं रहता और काम में भी सहजता आती है। विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि, 'हँसना' काफी बीमारियों की दवा है। हँसने से शरीर स्वस्थ रहता है, मन भी मस्त रहता है। भाव सकारात्मक होते हैं, आत्मा प्रशस्त होती है।
ओशो का मानना है - 'जिसको हँसना आता है उसके आँसू भी हँसते हैं और जिसे हँसना नहीं आता उसकी हँसी भी रोती है। मुस्कराता बचा सबको प्रिय होता है, वैसे ही तुम मुस्कराते रहो । देखो, सबके प्रिय बनोगे। हँसना शरीर के अंतर्गत अवयवों पर परिणाम करता है। आसन शरीर को स्वस्थ बनाते हैं, हँसना हृदय, फेफड़े सभी अवयवों को मसाज करते हैं।
हँसते-हँसते राम सहज दूर होते हैं। इसलिए, गीत में भी सही फरमाया है - हँसता हुआ जो जाएगा, मुकद्दर का सिकंदर वो कहलाएगा।
किसी भी प्राणी के पास मानव जैसा श्रेष्ठ और विकसित मस्तिष्क नहीं है। हम देखते हैं कि मस्तिष्क तो सबके पास है, पर हर-एक की यादशक्ति अलगअलग होती है। कुछ बच्चे जल्दी ग्रहण करते हैं, कुछ बचे जल्दी भूल जाते हैं।
इसलिए एक ही क्लास में एक ही टीचर होने के बावजूद भी एक बच्चा प्रथम आता है और एक बच्चा फेल हो जाता है। यह प्रश्न मस्तिष्क का नहीं है। उसमें तो शक्ति का भंडार है। स्मृति बुद्धि की एक प्रवृत्ति है। इसका बहुत ही महत्त्व है।
स्मृति घटने के कारण * रीढ़ की हड्डी को झुकाकर बैठने की आदत,
निद्रा और आलस्य का बाहुल्य, चित्त स्वाध्याय में न लगना अधिक टी.वी. देखना और कम्प्यूटर पर ज्यादा देर बैठना मानसिक चंचलता एकाग्रचित्त से न सुनना स्मरण शक्ति बढ़ाने के उपाय
प्रयोग एवं नियमित अभ्यास से स्मरण शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। निम्न प्रयोग यादशक्ति को बढ़ाने के लिए अत्यंत उपयोगी है।
- ॐ ध्वनि । (नौ बार) - ॐ ध्वनि का मूल स्वरूप है। इसे आध्य बीज मंत्र कहते है।
- ध्यान की मुद्रा में बैठें। आँखें कोमलता से बंद करें। लंबी श्वास भरकर ॐ की ध्वनि करें। ॐ में तीन शब्द होते हैं - 'अ' 'उ' और 'म' । 'अ' और 'उ' का उच्चारण 5 सेकेन्ड और 'म' का उच्चारण पांच सेकेन्ड । एक बार ॐ की ध्वनि में 10 सेकेन्ड लगनी चाहिए।
लाभ : (1) यादशक्ति बढ़ती है, (2) मन की एकाग्रता बढ़ती है, (3) मस्तिष्क, हृदय एवं फुफ्फुस की मालिश होती है, (4) शरीर और मन तनावमुक्त होता है, (5) चेहरा प्रसन्न रहता है, (6) श्वास लंबी और गहरी होती है, (7) रक्त शुद्ध होता है।
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कैसे करें पढ़ाई
जानंद कसा
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बच्चों, मैं जानती हूँ आपके सामने सबसे अहम-मुख्य समस्या है पढ़ाई। आप यही सोचते होंगे? कैसे पढ़ाई करें ताकि अच्छे अंक प्राप्त हों।
सबसे पहली बात है अध्ययन कैसा करते हो? ज्यादा परिश्रम करना, दिनरात पढ़ाई करना, इससे अच्छा है सुनियोजित और समझकर पढ़ाई की जाए।
उसके लिए - टाईम टेबल बनाना, अच्छे नोट्स निकालना और रटने की बजाय अधिक विषयों को समझना जरूरी है। समझकर पढ़ाई करने से याद भी रहती है और लिखने में समझ भी आती है।
(1) पाठ को पूरी तरह पढ़ना, (2) मुख्य बिंदुओं को रेखांकित करना, (3) नोट्स निकालना, (4) सारांश ध्यान में रखना।
परीक्षा के समय रात-दिन पढ़ाई करने से महत्त्वपूर्ण है नियमित अभ्यास । पाठ पढ़ाया जाने से पहले अथवा पढ़ाते ही तुरंत उसे पढ़ना। जो समझ में नहीं आता उसके बारे में पूछना।
सिखाते समय एकाग्रता और ध्यान देना जरूरी है। उसके उत्तर देना, नोट्स निकालना यह जरूर करना । अपने हाथ से नोट्स निकालने से आपका फायदा होता है।
परीक्षा के समय तनावमुक्त रहना । अनेक विद्यार्थी समय के अभाव से एक प्रश्र छोड़ देते हैं। कभी आधा लिखते हैं। निर्धारित समय में संपूर्ण पेपर लिखने की प्रेक्टिस करना आवश्यक है। 2/3 साल पुराने परीक्षा के प्रश्रपत्र समय से पूरे कर सकते हो या नहीं यह प्रयोग अवश्य करें।
मित्र के साथ पढ़ाई पर चर्चा करना । एक दूसरे को प्रश्र पूछना, गुप डिस्कसन की तरह आपसे किसने, कितना और क्या पढ़ा यह पूछना। इससे अपनी कमी का पता चलता है। नियमित पढ़ाई करने से परीक्षा के समय अधिक तनाव नहीं रहता और सहजता से पढ़ाई अच्छी होती है। ___ पढ़ाई के साथ नियमित योग व्यायाम अथवा पीटी में सिखाए प्रयोग करोगे तो हमेशा फ्रेश और हलका महसूस करोगे। मनोरंजन, पत्र-पत्रिका पढ़ना और खेलकूद हो, ज्ञान बढ़ने के साथ स्वस्थता का अनुभव भी करोगे।
आओ जीना सीनवे...
किताब क्यों लिनवी? 0 मैंने यह किताब क्यों लिरवी?
आजकल इतनी किताबें है। किताबें पढ़ते भी कम हैं। तो फिर मैं एक और किताब क्यों लिख रही हूँ, यह बताना बहुत ही जरूरी है।
प्रश्र, प्रश्र और प्रथ
मेरे मन में हमेशा प्रश्न बहुत उभरते थे। मायाँ ! मेरा एक मुख्य प्रश्न था कि क्या संसार में सुखी बनने का रास्ता मिलेगा? आनंद कहाँ र क्यों बोली है. से प्राप्त होता है? शादी के बाद ससुराल में भ्रष्टाचार क्यों का है. कैसे रहना? पति-पत्नी में सुसंवाद हो इसके
मुग्ण वहाँ है लिए क्या कर सकते हैं? पढ़ाई होने के बाद मुझे लगा, यह पढ़ाई तो अछी नौकरी दे सकती है। पैसा दे सकती है, पर मेरे उभरे प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकती।
पढ़ाई के बाद नौकरी करने लगी। वहां लोग झूठ बोलते थे, झगड़े करते थे और भ्रष्टाचार करते थे। इसे देखकर मुझे आश्चर्य होने लगा । प्रश्न बढ़ने लगे। लोग सत्य क्यों नहीं बोलते? झगड़े क्यों करते रहते है? आदि। मुझे पता है, मेरी तरह आप के मन में भी अनेक प्रश्न हैं। प्रश्न का स्वरूप अलग हो सकता है पर प्रश्न तो सबके मन में होते हैं।
सवालों के जवाब ढूंढ रही थी... किताबें पढ़ती थी। एक ऐसी किताब ढूंढ रही थी जो जीना सिखाए। क्योंकि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जिसे सब कुछ सीखाना पड़ता है।
पढ़ना, लिखना, चलना, हर छोटी-छोटी बात उसे सिखाते हैं। जीना कैसे? इसे सही तरीके से, व्यवस्थित मार्गदर्शन कहाँ है? जो हम घर में देखते हैं, हम वैसा ही रहना सीख जाते हैं।
कहां से? किधर? क्यों? कैसे?- ये प्रश्न सम्पूर्ण दर्शन को आत्मसात कर लेते हैं।
-जोबाट
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किताब क्यों लिनवी? 2) इस पर किताबें तो बहुत हैं पर स्टेप बाय स्टेप व्यवस्थित पाठ्यक्रम मुझे नहीं मिला । (ऐसा मार्गदर्शन हो सकता है, किताबें भी हो सकती है, पर मुझे नहीं मिली थीं।) सही मार्गदर्शन नहीं और ऐसे कोई आदर्श सामने नहीं कि जिन्हें देखकर हम सोचें - ऐसा जीना है।
सवालों के जवाब मिल रहे थे...
मेरी वृत्ति सकारात्मक थी। ग्रंथ मेरे गुरु थे। ढूँढ़ने से सब कुछ मिलता है, यह मेरा विश्वास था। सुख-शांति और आनंद कहां है? रास्ता मैं ढूँढ रही थी। सत्य की खोज और ज्ञान का खजाना इसके आधार पर मैं पुरुषार्थ कर रही थी। मेरी लगन सची थी। मेरे सवालों के जवाब मुझे मिले।
आपके मन में भी ऐसे या दूसरे प्रश्न तो आते ही होंगे। मुझे जवाब मिले इसलिए मैं इस किताब द्वारा तुम्हें यह विश्वास दिलाना चाहती हूँ, हर समस्या का समाधान होता है। मेरे भाग्य अच्छे हैं, मुझे हमेशा अच्छे गुरु मिले । कोई भी संत - महात्मा मिलते मैं, उन्हें यह जरूर पूछती । एक महात्मा ने बताया, क्या योगाभ्यास किया है? मैंने कहा नहीं। तब उन्होंने बताया, तुम्हे हर प्रश्न का उत्तर मिलेगा, तुम पूछती हो ना लोग नैतिक क्यों नहीं? पढ़ाई के बाद भी झूठ क्यों बोलते है? और भ्रष्टाचार क्यों करते हैं? सुनो।
शील, विनय, आदर्श, श्रेष्ठता, तार बिना झंकार नहीं. शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी, यदि नैतिक आधार नहीं। स्वार्थ साधना की आंधी में, संस्कृति का सन्मान न भूले।
आओ जीना सीन...
किताब क्यों लिनवी? जीना सीरवने के प्रथम सोपान-योग ___ मैं काफी प्रभावित हुई और तय किया कि मैं योगाभ्यास करूंगी। आजकल योग सीखने का सबको जुनून चढ़ा है। काफी योग संस्थाएं भी हैं, लेकिन योग याने केवल आसन ही सिखाए जाते हैं।
सच बात तो यह है - योग केवल आसन नहीं, आसन योग का एक बिन्दु है। हमने प्रवेश, परिचय, प्रवीण, प्रबोध और पंडित इस तरह व्यवस्थित योग सीखा। योगविद्याधाम हमारी संस्था है, जिसने पहली बार मुझे जीना सिखाया। वहां पता चला कि मैं खाना खाती हूँ, वह भी सही नहीं। सात्विक आहार पहली बार चखा, इसका महत्त्व समझा तब पता चला, सचमुच जीना सीखना जरूरी है।
योग हमारी विरासत है..
योगाभ्यास के साथ, यहाँ तो कब उठना, कैसे बैठना, कैसे बोलना, सब पर चिंतन होता था और पता चला कि जो हम बचपन से कर रहे थे वह सही नहीं था। एक एक बात जानती थी तब लगता था कि यह सब बचपन में सिखाना चाहिए था। मेरा सारा जीवन ही बदल गया। योग तो हमारा पुरातन ज्ञान है। हमारी विरासत होकर हमें पता नहीं। इतना दुःख होता था । जब एक एक बात का पता चलता था, तब मन ही मन मैं सोचती थी, मैं इसे लोगों तक पहुँचाऊँगी। जीवन सुखी आनंदमय और समृद्ध बनाना सीखें, इसलिए योगाभ्यास करना जरूरी है और जीना सीखना जरूरी है।
हमने इतना सुंदर, सहज और व्यवस्थित योग का ज्ञान लिया फिर भी लगता था कोई और अभ्यास होगा, जो हमें नैतिकता, विनय और स्नेह की भावना को सच्चे दिल से जीवन में उतारना सिखाए और योगाभ्यास के साथ काम, क्रोध, मद, मत्सर भाव से दूर होना सीखना जरूरी है। तब पता चला कि हमारे यहां तो ज्ञान का भंडार पड़ा है। दैव देता है और कर्म ले जाता है। हम कितना कुछ खो रहे हैं।
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतो . जावेद
लाभकर विचारों को चारों ओर से आने दो। विचारों को ग्रहण करने की यह उदार भावना हमारी संस्कृति में मौजूद है।
परिश्रम
महान वैज्ञानिक एडीसन अपने कुछ प्रयोगों की सफलता का जश्न मना रहे थे। पार्टी में एक पत्रकारने उनसे पूछा-"क्या आपकी सफलता का कारण आपका भाग्य है?" एडीसनने मुस्कुराकर कहां "भाग्य क्या है, एक औंस बुद्धि, एक टन परिश्रम-"हम जब दुर्भाग्य का रोना रोते हैं तो यह भुला देते हैं, उसमें हमारे परिश्रम के अभाव का हिस्सा कितना है।
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आओ जीना सीखें...
Y मेरी दृष्टि ही बदली
बचपन से व्यवस्थित अध्यात्म ज्ञान नहीं मिला था। मेरा स्वभाव थोड़ा वैज्ञानिक था। कुछ भी सीखना है तो वह जब तक समझ में नहीं आता और अंदर नहीं उतरता, तब तक मैं नहीं कर सकती थी। इसी समय महान ऋषि राष्ट्रसंत आनंदऋषि जी के यहां जाना होता था। उन सबका मार्गदर्शन और कृपादृष्टि मुझे प्राप्त हुई । धार्मिक परीक्षा बोर्ड, अहमदनगर में साधु-साध्वियों के स्नेहिल मार्गदर्शन ने जिंदगी को एक नई दिशा दी, प्रेरणा मिली और मैंने बहुत कुछ पाया।
साध्वियां इतना कुछ देती थीं, मेरे पास तो लिखने के लिए शब्द भी नहीं। जैन साध्वियों को योग सिखाने का मौका मिला और अध्यात्म की ओर मेरा खिंचाव चालू हुआ। अहमदनगर के धार्मिक परीक्षा बोर्ड पर साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन से मेरी दृष्टि बदली।
किताब क्यों लिखी? 94
जिसे ढूँढ रही थी वह सब कुछ मिल गया
आर्किमेडीज जैसा नहाते-नहाते चिल्लाते आया था 'युरेका'। वैसे मुझे भी लगा 'युरेका' मिल गया। मिल गया वह ज्ञान जो मुझे चाहिए था। वह गुरु मिले जिन्हें मैं लंबे अर्से से ढूंढ रही थी और वह अभ्यासक्रम जो मेरे सारे सवालों का जवाब देता था, हर समस्या का समाधान देता था ।
गुरुदेव तुलसी के दर्शन हुए। जिंदगी में पहली बार महसूस किया कि ये वे है जिन्हें मैं ढूंढ रही थी। उनकी आँखें जिनमें क्या नहीं था? स्नेह, ज्ञान, और अपनी तरफ खींचने की चुंबकीय शक्ति तेरापंथ एक ऐसा पंथ मिला, जहाँ ज्ञान का खजाना है। अनुशासन है, विनय है, सेवा है। सुव्यवस्थित और सुनियोजित जीने का और विकास का क्रम है।
उपहार
भारत विजय के उद्देश्य के लिए रवाना होते वक्त सिकंदर महान ने अपने गुरु दार्शनिक अरस्तू से आर्शीवाद लेने के बाद पूछा- "आप के लिए भारत से क्या उपहार लाऊं?" अरस्तू बोले-"वहां से मेरे लिए कोई ऐसा गुरु लाना, जो मुझे ब्रह्मज्ञान दे सके।"
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आओ जीना सीनवें....
किताब क्यों लिखी? 95
'मिले गुरु ऐसे महान...
यह ज्ञान देखकर कभी आँखें बंद करती तो आनंदाश्रु आता, कभी सोचती तो धन्य हो जाती, लगता मानव जीवन सफल हो रहा है।
गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महान व्यक्तित्त्व गुरू रूप में मिले और उन्होंने जो ज्ञान दिया, नतमस्तक हूँ मैं। मैंने जो पाया वह ज्ञान, जिससे मिलता था हर समस्या का समाधान, उसे आप तक पहुंचाना चाहती हूँ।
अध्यात्म अथवा विज्ञान
किताब लिखने का मुख्य एक उद्देश्य यह भी है, मेरी आँखों के सामने सभी यंगस्टर्स हैं। वह हमेशा दोलायमान मनस्थिति में रहते हैं। सबसे अहम् प्रश्न यह है
- आध्यात्मिकता है या नहीं ? विज्ञान ही सबकुछ है? मेरे सामने ये ही प्रश्न थे । मेरे सामने भी मेरे पिताजी का उदाहरण है। मेरे पिताजी वैज्ञानिक दृष्टि के इन्सान थे। 100 प्रतिशत विज्ञान को ही मानते थे। धर्म पर उनका विश्वास नहीं था। संपूर्ण नास्तिक व्यक्ति थे। माँ धार्मिक, पूर्णतः आस्तिक महिला । बच्चों पर माता-पिता का गहरा प्रभाव होता है। मैं छोटी थी तब हमेशा धर्म और विज्ञान के झूले पर झूलती थी।
सत्य का शोध
मेरी दृष्टि पिताजी जैसी वैज्ञानिक है पर माँ के धर्म का असर भी है। फिर मैंने सोचा, मैं सत्य की खोज कर सकती हूँ। विज्ञान द्वारा सच्चाई की तह तक पहुँच सकती हूँ, तो आस्तिक-नास्तिकके झूले में झूलने से अच्छा है सत्य की शोध करो।
बोध में प्रकट होता है, वही सत्य है। शोध में जो प्रकट होता है वही तथ्य है।
जब मैं योगाभ्यास करने लगी, योग- निसर्गोपचार के लेक्चर भी सुनने लगी। आहार के बारे में पहली बार इतनी जानकारी मिली थी। अन और मन का क्या संबंध है, सात्विक, राजस और तामस आहार क्या है? योग सीखने के लिए संस्था में रहते थे। वहाँ का आहार, सात्विक, इतना सादा पर इतना अच्छा था।
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आओ जीना सीना...
किताब क्यों लिनवी? 7
आओ जीना सीन...
किताब क्यों लिलवी? 90 मैं चिंतन करने लगी और सोचने लगी कि आज तक जो मैं खाना खाती थी, वह अच्छा है टेस्ट में, पर हेल्थ की दृष्टि से सही नहीं। सात्विक आहार खाना चाहिए। तेल, मसाले इनका प्रयोग कम करना चाहिए।
सत्य पर कसकर ज्ञान को स्वीकार करो
वैज्ञानिक आधार जब देखा तब मैंने सत्य को स्वीकारा और मसाले खाने बंद करने का निश्चय मचिो, विचारो, विश्लेषण किया।
करो। खोजो, पाओ बहुत कठिन होता है रुचि बदलना, पर मन में अपने अनुभव से तब दृढ़ विश्वास हो और मन खुला हो तो सद्या ज्ञान प्राप्त ___ स्वीकार करो। मैं जो होते ही उसे स्वीकारना चाहिए। “पढ़मं नाणं तओ।
कूछ कहूँ उसे मेरे प्रति दया" पहले ज्ञान होगा तभी आचार होगा। नहीं तो कैसे बदलोगे? विचार नहीं बदलेगा तब तक आचार
आदर दिखाने के लिए नहीं बदलेगा।
मत स्वीकार करो। यदि योगाभ्यास करते-करते धीरे धीरे नया ज्ञान आप को ठीक नहीं लगे पाकर मेरा जीवन ही बदल गया। आप खुद ज्ञान- तो उसे अस्वीकार कर विज्ञान द्वारा उसे परख सकते हैं। बस आप सत्य को स्वीकार करो।
आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व्यक्तित्व
जीवन-विज्ञान का मुख्य सूत्र है - आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण। इसी ने मेरे अंतःकरण को स्पर्श किया । जीवन को प्रकाशमय बनाया।
न कोरा वैज्ञानिक न कोरा आध्यात्मिक। एकांगी व्यक्तित्व, एकांगी दृष्टिकोण वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या है। जीवन विज्ञान के अभ्यास से वैयक्तिक तथा सामाजिक मूल्यों का समुचित विकास होता है। शिक्षा में जो कमी है उसे पूरा करने वाला ज्ञान जीवन विज्ञान है। यह केवल शिक्षा का विकास नहीं। यह शिक्षा और जीवन को सार्थक, संतुलित एवं समन बनाने का विज्ञान है। अनेक जटिल समस्या का समाधान, सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास अहिंसा, नैतिकता आदि शाश्वत मूल्यों का विकास यही है।
___ आज के युग की समस्या को पकड़ा गुरुदेव श्री तुलसी ने और आचार्य महाप्रज्ञ जी ने । उनके एक-एक शब्द ने मेरी सारी शंकाओं का समाधान किया। सही दृष्टि दी। आचार्यश्री कहते हैं - "युग की सबसे बड़ी बीमारी है कोरा वैज्ञानिक होना, आध्यात्मिक न होना । व्यक्तित्व की इसी मनोवृत्ति ने बहुत सारी बीमारियों को जन्म दिया है। इस सबका उपचार, एकांगी दृष्टि बदलकर विचार का खुला आकाश, बोधदृष्टि और अनुभव व प्रयोग का समन्वय करने वाला ज्ञान जीवन विज्ञान है।
हर समस्या का समाधान
बच्चो! 1974 मैंने एम्.ए, (सायकोलोजी, सोसियोलोजी) में किया था, उसके बाद एल्.एल्.एम्. और डी.एल्.एल्. एण्ड एल्.डब्ल्यू. किया। फिर भी मैंने 2004 में एम.ए. (जीवन विज्ञान, योग और प्रेक्षाध्यान) किया । इसमें अध्ययन के साथ प्रयोग करते थे। अनुभव हुआ जो कमी अभ्यास में थी, जो खोट थी वह पूरी हुई। इससे अपने आंतरिक गुणों की पहचान हुई । निषेधात्मक भाव चले गए। बाधाओं से मुक्त होते, वस्तुनिष्ठ निरीक्षण-परीक्षण करते, स्वयं की पहचान हुई। स्वयं के प्रति अज्ञान से ही असफलता मिलती है और कुशल संयोजन बिना सफलता मिलने में समय लग जाता है। आसन के साथ ध्यान और कायोत्सर्ग के प्रयोग से स्वभाव, आदतें बदली जा सकती हैं, यह अनुभव किया।
आधी उमर बीत जाने के बाद मैंने यह बात जानी, तब अंदर एक चुभन थी। यह ज्ञान मुझे इतनी देरी से क्यों मिला? बचपन में मुझे यह क्यों नहीं सिखाया गया? अंदर का अंतर्नाद मुझे यह किताब लिखने के लिए प्रेरित कर रहा है।
मैंने अपने आप में परिवर्तन महसूस किया। न जाने कितने बदलाव मैंने अपने आप में किए। क्योंकि मैं अपनी कमियां जानती थी, अपने आपको बदलना चाहती थी, पर पता नहीं था कैसे अपने आपको बदल सकती हूँ? यह बदलाव लाने का ज्ञान है।
केवल सिद्धांत में हमारा विश्वास नहीं है। सिद्धांत और प्रयोग - दोनों का योग मिले तो परिवर्तन की संभावना की जा सकती है।
- आचार्य महाप्रज
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आओ जीना सीन...
किताब क्यों लिपवी? 90
आओ जीना सीन...
किताब क्यों लिनवी? 99 जीना सीरवाने वाला ज्ञान - जीवन विज्ञान
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अपने आप को बदल सकते हो
प्रेक्षाध्यान का सिद्धांत है - आदत, स्वभाव और व्यवहार में परिवर्तन हो सकता है। इस तथ्य का अनुभव मैंने किया । अपने अनुभव के आधार पर मैं लिख रही हूँ और आपसे विश्वास के साथ कहती हूँ - किताब लिखने का उद्देश्य केवल यही है। अपने आप को बदलना चाहते प्रेक्षाध्यान का हो तो बदल सकते हो। जीना सीखो। सही अर्थ से हर मिटांत है-आदत, क्षण का उपयोग करो। अपने जीवन का कल्याण करो। मुझे शिविर के दौरान बच्चों की आँखों में मेरे जैसे हजारों
स्वभाव और व्यवहार प्रश्न तैरते हुए दिखाई देते हैं। मैंने पहले जो बात लिखी
में परिवर्तन हो है, वापस उसे दोहराऊँगी "आओ, जीना सीखें।" सच्चा सकता है। ज्ञान पाकर और जीवन के हर पल का सदुपयोग कर जीवन सफल बनाओ। यही मेरी मंगल कामना है, भावना है। यह न आदेश है न ही उपदेश है। बस जिसे ढूँढते मेरे जीवन के बहुमूल्य दिन बीत गये, उस अमृतमय ज्ञान को आप तक पहुँचाते हुए आत्मिक सुख का अनुभव हो रहा है। यह ज्ञान मुझे जीवन विज्ञान, योग और प्रेक्षाध्यान के अभ्यास में मिला।
सार्थक देशप्रेम
एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गए, जहाँ उनकी भेंट एक बद्धिजीवी वृद्ध से हुई। पता लगा कि 75 वर्ष की उम्र में भी वे जर्मन भाषा सीख रहे है। स्वामीजी ने उसके उत्साह से प्रभावित होकर उससे पूछा - 'बाबा! इस उम्र में जर्मन भाषा सीखने का कारण?'
स्वामीजी के प्रश्न को सुनकर वह मुस्कराया और गम्भीर होकर बोला - 'स्वामीजी! सीखने की कोई उम्र नहीं होती। मैं प्राणशास्त्र में स्नातक हूँ। जर्मन भाषा में इस विषय पर कई बहुत अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। मैं जापानी भाषा में उनका अनुवाद करना चाहता हूँ, ताकि मेरे देशवासी उनसे लाभ उठा सकें।' उस वृद्ध के उत्साह और देश के प्रति लगाव को देखकर स्वामी रामतीर्थ श्रद्धा और आदर के साथ उनके पैर छूते हुए बोले - 'मैं समझ गया कि अब जापान को प्रगति पथ पर बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।'
जीवन विज्ञान शिक्षा का नया आयाम है। हर समस्या का जो दे समाधान वही ज्ञान, एकांगी दृष्टि बदलने वाला ज्ञान शक्ति को जागृत करके, तनाव और थकान आसानी से दूर करनेवाला ज्ञान। विज्ञान से संबद्ध मानव जीवन का प्रतिनिधित्त्व करने वाला ज्ञान । व्यापक और मुख्यतः ये असांप्रदायिक ज्ञान। नैतिक, मूल्यपरक अभ्यास से सभी शिक्षा को समाहित करने वाला ज्ञान। जीने की कला सिखाने वाला ज्ञान। जीवन-विज्ञान स्वभाव परिवर्तन और आदतों का परिष्कार का प्रयोग है। जीवन-विज्ञान स्वस्थ और संतुलित जीवन का प्रशिक्षण है। जीवन-विज्ञान स्वस्थ समाज रचना का संकल्प है। जीवन-विज्ञान शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन का आधार है। जीवन-विज्ञान विधायक भावों का निर्माता है। जीवन-विज्ञान सही ज्ञान, दृष्टि और आचरण का उद्गाता है। जीवन-विज्ञान सिद्धांत और प्रयोग का समन्वय है। जीवन-विज्ञान सम्यक अभ्यास से चरित्र का निर्माता है। जीवन-विज्ञान मस्तिष्क-प्रशिक्षण की पद्धति है। जीवन-विज्ञान पर्यावरण के संतुलन का प्रशिक्षण है। जीवन-विज्ञान कार्य कौशल और क्षमता का विकास है। जीवन-विज्ञान स्मृति-संवर्धन के लिए संजीवनी है। जीवन-विज्ञान जीवन की श्रेष्ठ शैली है। जीवन-विज्ञान आभा मंडल की निर्मलता का नियोजक है। जीवन-विज्ञान नैतिकता, श्रमनिष्ठा, दायित्त्व बोध की समन्विति है। जीवन-विज्ञान विवेक और संवेग का सामंजस्य है। जीवन-विज्ञान मैत्री की आधारशीला है।
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आओ जीना सीखें....
5 अंत में.....
रूप और गुण 100
आजकी जो पीढ़ी है वह अध्ययन करने में भी बोर हो जाती है। श्रम करती नहीं है और कुछ भी करने का आलस आता है। उन्हें तो बस टी.वी. देखना, कम्प्यूटर चलाना और मोबाईल से बातें करना इसी में इन्ट्रेस्ट रहता है।
आजकल जो परिग्रह बढ़ रहा है, फैशन और मेक-अप का आकर्षण सब में आ रहा है। इसे कम करके गुणों को बढ़ावा दें जैसे सेवा, समर्पण और मैत्री का भाव स्वीकार करें। अपना कल्याण करे तथा परिवार को भी खुश रखे। यह तभी हो सकता है जब अन्दर के भाव जग जाएंगे। अच्छे गुण आएंगे।
रुप और गुण
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक दिन अपने प्रतिभाशाली किन्तु कुरूप प्रधानमंत्री चाणक्य से कहा 'कितना अच्छा होता अगर आप गुणवान् होने के साथ-साथ रूपवान् भी होते।' पास ही खड़ी महारानी ने चाणक्य को मौका दिए बगैर तुरन्त ही जवाब दिया 'महाराजा रूप तो मृगतृष्णा है। आदमी की पहचान तो गुण और बुद्धि से होती है, रूप से नहीं।' 'आप रूपवती होकर भी ऐसी बात कर रही हैं?' सम्राट ने प्रश्न किया'क्या ऐसा कोई उदाहरण है जहाँ गुण के सामने रूप फीका दीखे?'
'ऐसे तो अनेक उदाहरण है, महाराज! चाणक्य ने जवाब दिया, 'पहले आप पानी पीकर मन को हल्का करें, फिर बातें करेंगे।' उन्होंने दो गिलास बारी-बारी से राजा की और बढ़ा दिये। महाराज! पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े का था और दूसरे गिलास का पानी काली मिट्टी की उस मटकी का था। अब आप बतावें, किस गिलास का पानी आपको मीठा और स्वादिष्ट लगा?' सम्राट ने जवाब दिया 'मटकी से भरे गिलास का पानी शीतल और स्वादिष्ट लगा एवं उससे तृप्ति भी मिली।'
महारानी ने मुस्कराकर कहा- 'महाराज! हमारे प्रधानमंत्री ने बुद्धिचातुर्य से आपके प्रश्न का जवाब दे दिया। भला यह सोने का खूबसूरत घड़ा किस काम का, जिसका पानी बेस्वाद लगता है। दूसरी और काली मिट्टी से बनी यह मटकी, जो कुरूप तो लगती है लेकिन उसमें गुण छिपे हैं। उसका शीतल-सुस्वादु पानी पीकर मन तृप्त हो जाता है। अब आप ही बतला दें कि रूप बड़ा है अथवा गुण एवं बुद्धि?'
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आओ जीना सीखें...
रूप और गुण 101 सोने की परीक्षा काटकर, तपाकर, घिसकर और पीटकर होती है, वैसे ही अच्छे इन्सान की परीक्षा उसके गुणों से होती है
(सहकार्य
संस्कृति
( अहिंसा
श्रम
समर्पण
त्याग
शील
विश्वास
सहिष्णुता
सत्य
विनय आदर्श
अनुशासन
मैत्रीभाव
संस्कार
के
पढ़ाई
साथ
जीना
सोने को तपाये बिना कड़ा नहीं बनता, मिट्टी को भिगाये बिना घड़ा नहीं बनता,
कड़े और घड़े की तरह संघर्ष का बेड़ा पार किए बिना इन्सान बड़ा नहीं बनता
गुण अपने में लाए बिना इन्सान महान नहीं बनता
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________________ यह किताब आपको कैसी लगी? आपको क्रिया-प्रतिक्रिया जरूर भेजना। जो अच्छा लगे वह तो भेजना, पर जो अभिप्राय अच्छा न लगे और जो बातें पुस्तक में 30 आनी चाहिए वह भी जरूर लिखना। कहां, क्या सीखने को मिलेगा? पुस्तक में मैंने लिखा है - प्रयोग की जरूरत है, परंतु प्रयोग सविस्तर नहीं लिखे / इसका कारण यह है कि योग-ध्यान यह सब बातें अच्छे गुरू के मार्गदर्शन में करनी चाहिए। आपको सचमुच अपने आपको बदलना है तो कौन-कौन से कोर्सेस करने हैं, कहाँ करने हैं? वह जानकारी मैं आपको दे रही हूँ। क्षणभर भी प्रमाद मत करो..... "आओ जीना सीखें"। एक महीना योग संस्था में रहने जाओ और योगशिक्षक बनकर आओ। योग विद्याधाम योगभवन, कैवल्य नगरी, नासिक - 422 005. (महाराष्ट्र) फोन : 0253 - 2318090, मो. 9422756246 (निलेश वाघ) www.yogapoint.com तीन महीना यहां रहने जाओ, योग और प्रेक्षाध्यान प्रशिक्षक बनो। अध्यात्म निडम् जैन विश्वभारती, लाडनूं - 341 306. (राजस्थान) घर बैठे पत्र द्वारा मान्य विद्यापीठ द्वारा बी.ए., एम.ए. करें। जीवन जीने का विज्ञान और अपने आप को समझने का अध्ययन / पत्राचार विभाग जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूँ - 341 306. जि. नागोर. (राजस्थान) फोन : (01581)222230, 222110 www.jvbi.ac.in, www.preksha.com, e-mail: registrar@jvbi.ac.in