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भी भारतीय संस्कृति को उन्होंने सहज भी नहीं भूला है। देश के प्रति उन्हें अटूट प्रेम है। निर्मल भावना से वह डॉक्टर के साथ जन कल्याण का भी काम करती है। उन्हें जब मालूम हुआ कि मैं बच्चों के संस्कार निर्माण का कार्य करती हूँ और लिखती हूँ तो उन्होंने मुझे किताब लिखने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा से मैंने यह किताब लिखने का संकल्प किया। पारिवारिक व्यस्तता के कारण पुस्तक लिखने में विलंब हुआ, लेकिन वो प्रेरणा आज साकार हुई इसकी मुझे खुशी है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सबके लिए काफी उपयुक्त सिद्ध होगी।
सनसनाटी में जैन संस्था के लिए समर्पित कार्यकर्ता चंदुभाई, रमीलाबेन शाह ने 8 दिन पर्युषण में मेरे लेक्चर रखे थे। वहां भी भारतीय संस्कृति का जतन करने वाले काफी परिवार मिले। वहां की बहनों ने 8 दिन मौन में अड्डाई तप किया, तब मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था। 35-40 साल से वहां रहते हुए भी कुछ ऐसे परिवार हैं, जो कभी प्याज आलू भी नहीं खाते।
ह्यूस्टन में नीलिमा जोर्वेकर जो मेरी कॉलेज की सखी है, अच्छा काम करती है। सिंघवी परिवार को भी वहां भारतीय संस्कृति का जतन करते हुए मैंने देखा । इन सबके कारण अमेरिका में मुझे काफी प्रेरणा मिली। तेरापंथ में जो सुव्यवस्थित ज्ञान मिला, मैं उपासक बनी इसका मुझे बहुत फायदा हुआ ।
भारत में हो, अमेरिका में हो या दुनिया के किसी कोने में हो, इस बात को मत भूलना शिक्षा के पंख लगाकर चाहे विकास की कितनी भी उड़ान भरो, पर अपने पैर संस्कार और संस्कृति की भूमि पर हमेशा टिके रहे।
अलका
सारी दुनिया का ज्ञान प्राप्त करके भी जो स्वयं को नहीं पहचानता, उसका सारा ज्ञान ही निरर्थक है।
- शंकराचार्य
जीना
(LELVE
सीखें
विष और अमृत,
एक ही समंदर में । इन्सान और शैतान, एक ही कंदर में । हिंसा और अहिंसा, दोनों ही मानव के अंदर में ।
चुनावका भाई, चुनाव करो आओ जीना सीखें