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आओ जीना सीना...
किताब क्यों लिनवी? 7
आओ जीना सीन...
किताब क्यों लिलवी? 90 मैं चिंतन करने लगी और सोचने लगी कि आज तक जो मैं खाना खाती थी, वह अच्छा है टेस्ट में, पर हेल्थ की दृष्टि से सही नहीं। सात्विक आहार खाना चाहिए। तेल, मसाले इनका प्रयोग कम करना चाहिए।
सत्य पर कसकर ज्ञान को स्वीकार करो
वैज्ञानिक आधार जब देखा तब मैंने सत्य को स्वीकारा और मसाले खाने बंद करने का निश्चय मचिो, विचारो, विश्लेषण किया।
करो। खोजो, पाओ बहुत कठिन होता है रुचि बदलना, पर मन में अपने अनुभव से तब दृढ़ विश्वास हो और मन खुला हो तो सद्या ज्ञान प्राप्त ___ स्वीकार करो। मैं जो होते ही उसे स्वीकारना चाहिए। “पढ़मं नाणं तओ।
कूछ कहूँ उसे मेरे प्रति दया" पहले ज्ञान होगा तभी आचार होगा। नहीं तो कैसे बदलोगे? विचार नहीं बदलेगा तब तक आचार
आदर दिखाने के लिए नहीं बदलेगा।
मत स्वीकार करो। यदि योगाभ्यास करते-करते धीरे धीरे नया ज्ञान आप को ठीक नहीं लगे पाकर मेरा जीवन ही बदल गया। आप खुद ज्ञान- तो उसे अस्वीकार कर विज्ञान द्वारा उसे परख सकते हैं। बस आप सत्य को स्वीकार करो।
आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व्यक्तित्व
जीवन-विज्ञान का मुख्य सूत्र है - आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण। इसी ने मेरे अंतःकरण को स्पर्श किया । जीवन को प्रकाशमय बनाया।
न कोरा वैज्ञानिक न कोरा आध्यात्मिक। एकांगी व्यक्तित्व, एकांगी दृष्टिकोण वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या है। जीवन विज्ञान के अभ्यास से वैयक्तिक तथा सामाजिक मूल्यों का समुचित विकास होता है। शिक्षा में जो कमी है उसे पूरा करने वाला ज्ञान जीवन विज्ञान है। यह केवल शिक्षा का विकास नहीं। यह शिक्षा और जीवन को सार्थक, संतुलित एवं समन बनाने का विज्ञान है। अनेक जटिल समस्या का समाधान, सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास अहिंसा, नैतिकता आदि शाश्वत मूल्यों का विकास यही है।
___ आज के युग की समस्या को पकड़ा गुरुदेव श्री तुलसी ने और आचार्य महाप्रज्ञ जी ने । उनके एक-एक शब्द ने मेरी सारी शंकाओं का समाधान किया। सही दृष्टि दी। आचार्यश्री कहते हैं - "युग की सबसे बड़ी बीमारी है कोरा वैज्ञानिक होना, आध्यात्मिक न होना । व्यक्तित्व की इसी मनोवृत्ति ने बहुत सारी बीमारियों को जन्म दिया है। इस सबका उपचार, एकांगी दृष्टि बदलकर विचार का खुला आकाश, बोधदृष्टि और अनुभव व प्रयोग का समन्वय करने वाला ज्ञान जीवन विज्ञान है।
हर समस्या का समाधान
बच्चो! 1974 मैंने एम्.ए, (सायकोलोजी, सोसियोलोजी) में किया था, उसके बाद एल्.एल्.एम्. और डी.एल्.एल्. एण्ड एल्.डब्ल्यू. किया। फिर भी मैंने 2004 में एम.ए. (जीवन विज्ञान, योग और प्रेक्षाध्यान) किया । इसमें अध्ययन के साथ प्रयोग करते थे। अनुभव हुआ जो कमी अभ्यास में थी, जो खोट थी वह पूरी हुई। इससे अपने आंतरिक गुणों की पहचान हुई । निषेधात्मक भाव चले गए। बाधाओं से मुक्त होते, वस्तुनिष्ठ निरीक्षण-परीक्षण करते, स्वयं की पहचान हुई। स्वयं के प्रति अज्ञान से ही असफलता मिलती है और कुशल संयोजन बिना सफलता मिलने में समय लग जाता है। आसन के साथ ध्यान और कायोत्सर्ग के प्रयोग से स्वभाव, आदतें बदली जा सकती हैं, यह अनुभव किया।
आधी उमर बीत जाने के बाद मैंने यह बात जानी, तब अंदर एक चुभन थी। यह ज्ञान मुझे इतनी देरी से क्यों मिला? बचपन में मुझे यह क्यों नहीं सिखाया गया? अंदर का अंतर्नाद मुझे यह किताब लिखने के लिए प्रेरित कर रहा है।
मैंने अपने आप में परिवर्तन महसूस किया। न जाने कितने बदलाव मैंने अपने आप में किए। क्योंकि मैं अपनी कमियां जानती थी, अपने आपको बदलना चाहती थी, पर पता नहीं था कैसे अपने आपको बदल सकती हूँ? यह बदलाव लाने का ज्ञान है।
केवल सिद्धांत में हमारा विश्वास नहीं है। सिद्धांत और प्रयोग - दोनों का योग मिले तो परिवर्तन की संभावना की जा सकती है।
- आचार्य महाप्रज