Book Title: Aagam 26 MAHA PRATYAKHYAN Moolam evam chaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [२६] श्री महाप्रत्याख्यान (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “महाप्रत्याख्यान” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२६], प्रकीर्णकसूत्र- “महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [-] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया 'महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक(3) NAVIA श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्क:-४५, अयं-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। प्रत सुत्राक प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झवेरी-वेणीचंद सरचंद ।। दीप अनुक्रम इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोळभाटवीथ्यां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । 9-01 वीर सं० २४५३. विक्रम सं० १९८३. सन१९२७. [ वेतन रू.२-9-0. महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १४२ 'महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १४२ मूलांक: | गाथा | पृष्ठांक: | | मूलांक: । गाथा पृष्ठांक: | | मूलांक: गाथा पृष्ठांक: । ००४ ००१ | ०१३ | मङ्गलं भावना ००३ । व्युत्सर्जन, क्षमापनादि ००४ ०१८ | मिथ्यात्वत्याग, आलोचनादि | ००६ । ००८ । ०३७-१४२ | निन्दा-गर्दा आदि विविधं धर्मोपदेशादि । ००५ । ००९ ००५ । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['महाप्रत्याख्यान' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णक सूत्र - [३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१] --- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] “महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ३ महाप्रत्याख्यानं मंगलादि प्रत सूत्रांक ||१|| ॥ अथ महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् ॥३॥ एस करेमि पणामं तित्यपराणं अणुत्तरगईणं । सवेसि च जिणाणं सिद्धाणं संजयाणं च ॥१॥१३४॥ | सचदुक्खप्पहीणाणं, सिद्धाणं अरहओ नमो । स रहे जिणपन्नस, पञ्चक्खामि य पावगं ॥२॥१३५ ॥ किंचिवि दुचरियं तमहं निंदामि सबभावेणं । सामाइयं च तिषिरं करेमि सघं निरागारं ॥ ३ ॥ १३६ ॥ पाहिरभंतरं उचहि, सरीरादि सभोअणं । मणसा वयकाएणं, सवं तिविहेण वोसिरे ॥४॥ १३७ ॥ रागबंध पओसं| CASTOX दीप अनुक्रम CACCOct अथ महाप्रत्याख्यानम् ॥३॥ एप करोमि प्रणामं तीर्थकरेभ्योऽनुत्तरगतिभ्यः । सर्वेभ्यश्च जिनेभ्यः सिद्धेभ्यः संयतेभ्यश्च ॥१३॥ प्रक्षीणसर्वदुःखेभ्यः सिदभ्योऽयो नमः श्रधे जिनप्राप्नं प्रत्याख्यामि च पापकम्॥२॥ यत्किचिद धरितं तदद निन्दामि सर्वभावेन । सामायिक ॥१०॥ च विविध करोमि सर्व निराकारम् ॥३।। बाह्यमभ्यन्तरमुपधि शरीरादि सभोजनम् । मनोवाकायेन सर्व त्रिविधेन व्युत्सृजामि ॥४।। रागबन्ध181 Frisiastle JintlxanimamaianXII अरहंत-सिद्ध-वंदना, अथ व्युत्सर्जन(परित्याग), क्षमापनादि वर्णयते ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [03] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सुत्राक ||५|| दीप !!च, हरिसं दीणभावयं । उस्सुअत्तं भयं सोगं, रहमरई च वोसिरे ॥५॥ १३८ ॥ रोसेण पडिनिवेसेणं अक-II यण्णुयाए तहेवऽसज्झाए । जो मे किंचिषि भणिओ तमहं (तिविहं) तिविहेण खामेमि ॥६॥१३९॥ खामेमि सबजीवे, सवे जीवा खमंतु मे । आसाओ (आसवे) बोसिरित्ताणं, समाहिं पडिसंधए ॥७॥१४०॥ निंदामि निंदणिज्जं गरिहामि य जं च मे गरहणिजं । आलोएमि य सर्च जिणोहिं जं जं च पडिसिद्धं (कुट) ॥८॥ १४१ ॥ उवही सरीरगं चेव, आहारं च चउविहं । ममत्तं सबदधेसु, परिजाणामि केवलं ॥९॥१४२॥ 1४/ ममत्तं परिजाणामि, निम्ममत्ते उवडिओ। आलंषणं च मे आया, अवसेसं च वोसिरे ॥१०॥ १४३ ॥ आया दामे जं नाणे आया मे दंसणे चरित्ते य । आया पचक्खाणे आया मे संजमे जोगे॥ ११ ॥१४४॥ मूलगुणे |उत्तरगुणे जे मे नाराहिया पमाएणं । ते सधे निंदामि पडिकमे आगमिस्साणं ॥१२॥१४५ ॥ इकोऽहं| प्रद्वेषं च हर्ष दीनभावताम् । उत्सुकत्वं भयं शोकं रतिमरति च व्युत्सृजामि॥५॥ रोषेण प्रतिनिवेशेन अकृतज्ञतया तथैवासद्ध्यानेन यन्मया किञ्चिदपि भणितं तदहं (त्रिविध)त्रिविधेन क्षाम्यामि ॥६॥ क्षाभ्यामि सर्पजीवान् सर्वे जीवाः भाम्यन्तु मयि । आशा (आश्रवान ) ब्युत्सृज्य समाधि प्रतिसंदघे ॥७॥ निन्दामि निन्दनीयं गहें च यच मे गईणीयम् । आलोचयामि च सर्व जिनैयद् या प्रतिषिद्धम् (कुष्ट) ॥८॥ उपधि शरीरमेव आहारं च चतुर्विधम् । ममत्वं सर्वद्रव्येषु परिजानामि केवलम् ॥९॥ ममत्वं परिजानामि निर्ममत्वे उपस्थितः। आलम्बनं | च मे आत्मा अवशेषं च व्युत्सृजामि ॥ १०॥ यन्मे ज्ञानमात्मा आत्मा मे दर्शनं चारित्रं च । आत्मा प्रत्याख्यानं आत्मा मे संयमो | योगश्च ॥ ११ ॥ मूलगुणा उत्तरगुणाश्च ये मया नाराधिताः प्रमादेन। तान् सर्वान् निन्दामि प्रतिक्राम्याम्यागमिष्यताम् ॥ १२ ॥ एकोऽहं | FainaspirantsOM अनुक्रम | अथ वैराग्य-भावना निर्दिश्यते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या) आगम (२६) "महाप्रत्याख्यान” - प्रक ------------ मूलं [१३] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया + ३ महामस्याख्यान + ॥११॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| + + नत्यि में कोई, न चाहमवि कस्सई । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासए ॥ १३ ॥ १४६ ॥ इको उप्पजए त्यागधामजीयो, को घेव विवजई। इकस्स होइ मरणं, इको सिनह नीरओ ॥१४॥ १४७ ॥ एको करेइ कम्मै फल- णादि मवि तस्सिकओ समणुहवइ । इको जायइ मरह परलोअंइकाओं जाइ ॥ १५ ॥ १४८॥ इको मे सासओ 31 अप्पा, नाणदसणसंजुओ (लक्षणो)। सेसा मे बाहिरा भावा, सचे संजोगलक्खणा ॥१६॥ १४ ॥ संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंध, सवं तिविहेण योसिरे ॥ १७ ॥१५० ॥ अस्सं-12 जममण्णाण मिच्छसं सबओऽवि अ ममतं । जीवेसु अजीवेसु य तं निंदे तं च गरिहामि ॥ १८॥ १५१॥॥५॥ मिच्छतं परिजाणामि सर्व अस्संजमं अलीयं च । सपत्तो अ ममत्तं चयामि सधं समामि (प खामेमिट ॥ १९॥ १५२ ॥ जे मे जाणंति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । तं तह आलोएमी उबडिओ सबभावेणं नास्ति मे कश्चित् न पाहमपि कस्यचित् । एवमदीनमना आत्मानमनुशास्मि ।। १३ ।। एक उत्पद्यते जीव एकचैव विपद्यते । एकप भवति मरणं एकः सिद्ध्यति नीरजाः ॥ १४ ॥ एकः करोति कर्म फलमपि तस्यैककः समनुभवति । एको जायते म्रियते परलोकमेकको | याति ॥ १५ ॥ एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुतः (लक्षणः) । शेषा मे बाधा भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १६॥ संयोगमूला |जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मासंयोगसम्बन्धं सर्व त्रिविधेन वुत्मजामि ॥ १७ ॥ असंयममज्ञान मिथ्या सर्वतोऽपि च ममत्वम् ।। जीवेष्वजीवेषु च तन्निन्दामि तच गहें ॥ १८ ॥ मिथ्यात्वं परिजानानि सर्वमसंयममलीकं च । सर्वतश्च ममत्वं त्यजामि सर्वच क्षमयामि ॥११॥ (झाम्यामि) ॥ १९ ॥ यान मे जानन्ति जिना अपराधान येषु येषु स्थानेषु । तसिवाऽऽलोचयामि, उपस्थितः सर्वभावेन ॥३०॥ अल्प utaw दीप अनुक्रम [१३] + स्वआलोचना-निन्दणा-गर्दा आदि प्रदर्श्यते ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२१] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] “महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Axx प्रत सूत्रांक ||२१|| 18॥ २० ॥ १५३ ॥ उप्पन्नाणुप्पन्ना माया अणुमग्गओ निहंतवा । आलोयणनिंदणगरिहणाहिं न पुणत्ति या बीयं ॥ २१ ॥ १५४ ॥ जह पालो जंपन्तो कजमकलं च उजयं भणइ । तं तह आलोइजा मापामपविप्प| मुक्को उ ।। २२ ॥१५५ । सोही उबुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निवाणं परमं जाइ, घयसितुच पावए ॥ २३ ॥ १५६ ॥ न हु सिझई ससल्लो जह भणियं सासणे धुपरयाणं । उद्धरियसबसल्लो सिज्झह जीवो। धुअकिलेसो ॥ २४ ॥ १५७ ।। सुषहुंपि भावसलं आलोएऊण (जे आलोयंति) गुरुसगासंमि । निस्सल्ला संधारगमुर्विति आराहगा हुंति ॥ २५ ॥ १५८ ॥ अप्पंपि भावसालं जे नालोयंति गुरुसगासंमि । तपि सुयसमिद्धा न हुते आराहगा हुंति ॥ २६ ॥१५९ ॥ नवि तं सत्यं च विसं च दुप्पउत्सो व कुणइ वेयालो।। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पुष पमायओ कुरो ॥ २७॥ १६० ॥ जं कुणइ भावसलं अणुद्वियं उत्तमढकालंमि। आऽनुत्पन्ना मायाऽनुमार्गतो निहन्तव्या । आलोचननिन्दनगीमिर्न पुनरिति च द्वितीयम् ॥ २१ ॥ यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च जुक भणति । तत्तथाऽऽलोचयेन्मायामदविषमुक्त एव ।। २२ ॥ शुद्धिः ऋजभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति । निर्वाणं परमं याति घृतसिक्त इव पावकः ।। २३ ।। नैव सिद्ध्यति सशल्यो यथा भणितं शासने धुवरजसाम् । उद्धृतसर्वशल्यः सिद्ध्यति जीवो धुतठेशः ॥२४॥ मुबहपित भावशल्यमालोक्य(चयन्ति)गुरुसकाशे । निःशल्याः संस्तारकमुषयान्त्याराधका भवन्ति ।। २५ ।। अल्पमपि भावशल्यं ये नालोचयन्ति | गुरुसकाशे । बाढमपि श्रुतसमृद्धा नैव ते श्राराधका भवन्ति ।। २६ ।। नैव वच्छन्नं च विषं च दुष्पयुक्तो वा करोति चैतालः । यत्रं चा &|दुष्पयुक्तं सो वा प्रमादतः क्रुद्धः ॥ २७ ॥ यत्करोति भावशल्यमनुदतमुत्तमार्थकाले । दुर्लभवोधिकस्वमनन्तसमारिकत्वं च ॥ २८॥ दीप अनुक्रम [२१] भावशल्यानां वर्णनं क्रियते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [२८] प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२६], प्रकीर्णकसूत्र [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया Eurom “महाप्रत्याख्यान” - ३ महाप्र ॥ १२ ॥ दुलंमपोहियत्तं अनंतसंसारियतं च ।। २८ ।। १६१|| तो उद्धरंति गारवरहिया मूलं पुणन्भवलयाणं । मिच्छात्याख्यानं ५ दंसणसलं मायासलं नियाणं च ॥ २९ ॥ १६२ ॥ कयपावोऽवि मणूसो आलोहय निंदिओ (निन्दिय ) गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरुष भारवहो ॥ ३० ॥ १६३ ॥ तस्स य पायच्छिसं जं मग्गबिज गुरू उवहसंति ( वइस्संति ) । तं तह अणुसरिपवं अणवत्थपसंगभीएणं ॥ ३१ ॥ १६४ ॥ दसदोसविप्यमुकं तम्हा सर्व्वं अग्रहमाणेणं । जं किंपि कयमक तं जहवत्तं कषयं ॥ ३२ ॥ १६५ ॥ सङ्घ पाणारंभ पञ्चस्वाभि प अलिपवणं च । सङ्घमदिन्नादाणं अन्यंभपरिग्गहं चेष ॥ ३३ ॥ १६६ ॥ सर्वपि असणपाणं चउविहं जो अ बाहिरो उवही। अभितरं च उबहिं सर्व्वं तिविहेण वोसिरे ॥ ३४ ॥ १६७ ॥ कंतारे दुम्भिक्खे आयंके व महया समुत्पन्ने। जं पालियं न भग्गं तं जाणसु पालणासुद्धं ।। ३५ ।। १६८ ।। रागेण व दोसेण व परिणामे तत उद्धरन्ति गौरवरहिता मूलं पुनर्भबलतानाम् । मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशत्वं निदानशल्यं च ॥ २९ ॥ कृतपापोऽपि मनुष्य आलोचितनिन्दितः (आलोच्य निन्दित्वा) गुरुसकाशे । भवत्यतिरेकलघुः उत्तारितभर इव भारवाट् || ३० || तस्य च प्रायश्चित्तं यन्मार्गविदो गुरव उपदिशन्ति (बो वदिष्यन्ति ) । तत्तथाऽनुसर्त्तव्यमनवस्थाप्रसङ्गभीतेन ॥ ३१ ॥ दशदोषविप्रमुक्तं तस्मात्सर्वमगूहमानेन । यत्किमपि कृतमकार्यं तद् यथावृत्तं कथयितव्यम् ॥ ३२ ॥ सर्व प्राणारम्भं प्रत्यास्यामि चालीकवचनं च । सर्वमतादानमाझ परिपदं चैव | ॥ ३३ ॥ सर्वमप्यशनं पानं चतुर्विधं यच्च बाह्य उपधिः (तं)। अभ्यन्तरं चोषधिं सर्वं त्रिविधेन व्युत्सृजामि ॥ ३४ ॥ कान्तारे दुर्भिक्षे ॥ १२ ॥ आतक्के वा महति समुत्पन्ने । यत्पालितं न भयं तत् (प्रत्याख्यानं) जानीहि पालना शुद्धम् ॥ ३५ ॥ रागेण वा दोषेण वा परिणामेन वा न Far PersonalPa Use Owy ~8~ मायाहननादि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [३६] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३६|| ण व न दृसियं जं तु । तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयवं ॥ ३६ ॥ १६९ ॥ पीयं थणअच्छीरं सागरसलिलाउ बहुतरं हुजा । संसारंमि अणते माईणं अन्नमन्नाणं ॥ ३७॥ १७० ॥ बहुसोऽवि मए रुपणं पुणो पुणो तासु तासु जाईसु । नयणोदयंपि जाणसु बहुययरं सागरजलाओ ॥ ३८ ॥१७१ ।। नत्थि किर सो पएसो लोए चालग्गकोडिमित्तोऽवि । संसारे संसरंतो जत्थ न जाओ मओ वावि ॥ ३९ ॥ १७२ ।। चुलसीई किल लोए जोणी पमुहाई (जोणीणं पमुह०) सपसहस्साई। इकिकमि यहत्तो अणंतखुत्सो समुप्पन्नो ॥४०॥१७३ ॥ उडमहे तिरियंमि य मयाई बहुयाई बालमरणाई । तो ताई संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ ४१ ॥ १७४ ॥ माया मित्ति पिया मे भाया भगिणीय पुत्त धृया य । एयाई संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ ४२ ॥ १७ ॥ मायापिइषंधूहिं संसारत्येहिं पूरिओ लोगो । बहुजोणिवासिएहिं न य ते ताणं च सरणं च ॥४३॥१७६।। इक्को दूषितं यत्तु । तल्खलु प्रत्याख्यानं भावविशुद्ध ज्ञातव्यम् ।। ३६ ॥ पीतं स्तनक्षीर सागरसलिला बहुतरं भवेत् । संसारेऽनन्ते मातृणामन्यान्यासाम् ॥ ३५ ॥ बहुशोऽपि मया रुदितं पुनः पुनस्तासु तासु जातिषु । (तत्र) नयनोदकमपि जानीहि बहुतरं सागरजलात् ।। ३८॥ नास्ति किल स प्रदेशो लोके बालाप्रकोटीमात्रोऽपि । संसारे संसरन् यत्र न जातो न मृतो वाऽपि ॥३९॥ चतुरशीतिः किल लोके योनि-| प्रमुखाणि शतसहस्राणि । एकैकस्मैिश्वेतोऽनन्तकृत्वः समुत्पन्नः ॥४०॥ ऊर्द्धमधस्तिरश्चि च मूतानि बहुकानि बालमरणानि । ततस्तानि | स्मरन् पण्डितमरणं मरिष्ये ।। ४१ ॥ माता मे इति पिता मे भ्राता भगिनी च पुत्रा दुहितरश्च । एतानि (अनन्तानि) स्परन पण्डितमरणं च.स.३१ मरिष्ये ॥ ४२ ॥ मातापितृपन्धुभिः संसारस्वैः पूरितो लोकः । बहूयोनिनिवासिचिर्न च ते प्राणं- च शरणं च ।। ४३ ॥ एकः करोति कर्म 4-CAष्टकट दीप अनुक्रम [३६] | अथ पंडितमरणेच्छाया: अभिव्यक्ति क्रियते ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [४४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [03] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४४|| दीप अनुक्रम [४४] २ आतुर- करेइ कम्मं इको अणुहवइ दुक्कयविवागं । इक्को संसरइ जिओ जरमरणचउग्गईगुविलं ॥ ४४ ॥ १७७ ॥ पंडितमर त्याख्याने वेयणयं जम्मणमरणं नरएम वेयणाओ'चा । एयाई संभरतो पंडियमरणं मरीहामि ॥४५॥ १७८॥ णिच्छा पुन उवेयणयं जम्मणमरणं तिरिएम वेयणाओ वा। एपाई संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ ४६ ॥ १७९॥ लैरतृप्तिः ॥ १३ ॥ उज्वेयणयं जम्मणमरणं मणुएसु वेयणाओ वा । एयाइं संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ ४७ ॥१८० ।। उल्वे- ३६५२ यणयं जम्मणमरणं चवणं च देवलोगाओ । एयाई संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ ४॥ १८१॥ इक पंडिपमरणं छिंदह जाईसपाई यहआई। तं मरणं मरियर्ष जेण मओ सम्मओ होई ।। ४९ ॥१८२ ।। कइया | णुतं भुमरणं पंडिपमरणं जिणेहिं पन्नत्तं । सुद्धो उद्वियसंल्लो पाओवगओ मरीहामि ॥५०॥ १८३ ॥ भवसंसारे सबै चउधिहा पुग्गला मए बद्धा । परिणामपसंगेणं अवविहे कम्मसंघाए ॥५१॥१८४ ॥ संसारचकवाले सधे ते पुग्गला मए बहुसो । आहारिया य परिणामिया य नयऽहं गओ तितिं ॥५२॥ १८५ ॥ एकोऽनुभवति दुष्कृतविपाकम् । एकः संसरति जीवो जरामरणचतुर्गतिगुपिलम् (भवं) ॥ ४४ ।। उद्वेजकं जन्ममरणं नरकेषु वेदनान । एताः स्मरन् पण्डितमरणं मरिष्ये ॥ ४५ ॥ उद्वेजकं० तिर्यक्षु वेदनाश्च० ॥ ४६ ॥ उद्वेजकं० । मनुजेषु० ॥ ४७ ॥ उद्वेजकं० । च्यवन | |च देवलोकान्० ॥ ४८ ॥ एक पण्डितमरणं छिनत्ति जातिशतानि बहुकानि । तम्मरणं मर्त्तव्यं येन मृतः सन् मृतो भवति ॥ ४९ ॥ कदा| तन सुमरणं पण्डितमरणं जिनैः प्रज्ञाप्तम् । शुद्ध उद्धृतशल्पः पादपोपगतो मरिष्ये ॥५०॥ भवसंसारे सर्वे चतुर्विधाः पुद्गला मया बद्धाः ॥१३॥ तपरिणामप्रसङ्गेन अष्टविधे कर्मसङ्घाते ।। ५१॥ संसारचक्रबाले सर्वे ते पुद्गला मया बहुशः । आहारिताश्च परिणामिताभ न चाहं गत-12 * 444444 Janthuaintainindml अथ आहार-आदि पुदगलै: अतृप्ति: ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५३] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया + + प्रत सूत्रांक ||५३|| + S दीप अनुक्रम आहारनिमित्तेणं अहयं सवेसु नरयलोएसु । उववण्णोमि य बहुसो सवासु य मिच्छजाईसु ॥ ५३॥१८६॥ आहारनिमित्तेणं मच्छा गच्छंति दारुणे नरए। सचित्तो आहारो न खमो मणसावि पत्थेउं ॥ ५४ ॥१८॥ तणकटेण व अग्गी लवणजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को तिप्पेर्ड कामभोगेहिं ॥५५॥ १८८ ॥ तणकट्टेण व अग्गी लवणजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को तिप्पेउं अत्थसारेणं ॥ ५६ ॥१८॥ तणकटेण व अग्गी लवणजलो वा नईसहस्सहिं । न इमो जीवो सक्को तिप्पेउं भोअणविहीए ॥५७॥१९॥ वलयामुहसामाणो दुप्पारों व णरओ अपरिमिजो। न इमो जीवो सको तप्पे गंधमल्लेहिं ।। ५८ ॥ १९१ ॥ अवियद्धोऽ(अवितत्तो)य जीवो अईयकालम्मि आगमिस्साए। सहाण य रूवाण य गंधाण रसाण फासाणं ॥ ५९॥१९२॥ कप्पतरुसंभवेसुं देवुत्तरकुरुवंसपसूएसु । उववाए ण य तित्तो न य नरविजाहरसुरेसु ॥६॥ स्तृप्तिम् ॥ ५२ । आहारनिमित्तमहं सर्वेषु नरकलोकेषु । उत्पन्नोऽस्मि च बहुशः सर्वासु च म्लेच्छजातिषु ।। ५३ ।। आहारनिमित्तं मत्स्या गच्छन्ति दारुणे नरके । सचित्त आहारो न क्षमो मनसाऽपि प्रार्थयितुम् ।। ५४ ॥ तृणकाष्ठेनापिरिय लवणोदो नदीसहलेरिख । नायं | जीवः शक्यस्तर्पयितुं कामभोगः ॥ ५५ ॥ तृण । अर्थसारेण ॥ ५६ ॥ तृण० । भोजनविधिना ॥ ५७ ।। वडयामुखसमानो दुष्पारो नरक इवापरिमेयः । नायं गन्धमाल्यैः ॥ ५८ ॥ अविदग्धो(अवितृमो)ऽयं जीवोऽतीतकाले आगमिष्यति । शब्दानां रूपाणां गन्धानां | रसानां स्पर्शानाम् (भोगेषु ) ॥ ५९॥ कल्पतरुसंभवेषु देवकुरूत्तरकुरुवर्षप्रसूतेषु । उपपातेन च हप्तो न च नरविद्याधरमुरेषु ॥६॥ [५३] % ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) प्रत सूत्रांक ||&?|| दीप अनुक्रम [६१] JE मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया २ आतुरम त्याख्याने “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र - ३ ( मूलं + संस्कृतछाया) - ॥ १४ ॥ ॥ १९३ ॥ खइएण व पीएण व न य एसो ताइओ हवइ अप्पा जह दुग्गई न वचइ तो नूणं ताइओ होह ॥ ६१ ॥ १९४ ॥ देविंद चावट्टत्तणाई रजाई उसमा भोगा । पत्ता अनंतखुन्तो न यऽहं तितिं गंओ तेहिं ॥ ६२॥ ||| १९५ ॥ खीरदगेच्छुरसेसुं साऊसु महोदहीसु बहुसोऽवि । उबवण्णो ण य तण्हा छिन्ना मे (मे) सीयलजलेणं ॥ ६३ ॥ १९६ ॥ तिविहेण य सुहमउलं तम्हा कामरइविसयसुक्खाणं । बहुसो सहमणुभूयं न य सुहतण्हा | परिच्छिणा ॥ ६४ ॥ १९७ ॥ जा कार पत्थणाओ कया मए रागदोसवसयेण । पडियंषेण बहुविहं तं निंदे तंच गरिहामि ॥ ६५ ॥ १९८ ॥ तूण मोहजालं छिसूण य अट्टकम्मसंकलियं । जम्मणमरणरहहं भिक्षूण भवा विमुचिहिसि ॥ ६६ ॥ १९९ ॥ पंच य महइयाई तिविहं तिथिहेण चारुहेऊणं । मणवयणकायगुत्तो सज्जो मरणं पडिच्छिा || ६७ ॥ २०० ॥ कोहं माणं मायं लोहं पिल्लं तहेब दोसं च । चऊण अप्पमशो खादितेन वा पीतेन वा न चैष त्रातो भवत्यात्मा । यदि दुर्गतिं न प्रजति तदा नूनं त्रातो भवति ।। ६१ । देवेन्द्रचक्रवर्तित्वानि राज्यानि उत्तमा भोगाः प्राप्ता अनन्तकृत्यो न चाहं नृमिं गतस्तैः ॥ ६२ ॥ क्षीरोदधीरसेषु स्वादिष्टेषु महोदधिषु बहुशोऽपि । उत्पन्नो न च तृष्णा छिन्ना भवतां (मम) शीतलजलेन ॥ ६३॥ त्रिविधेन च सुखमतुलं तस्मात्कामरतिविषयसौख्यानाम् । धनुशः सुखमनुभूतं न च सुखतृष्णा परिच्छिन्नाः ||६४|| या काश्चित्प्रार्थनाः कृता मया रागद्वेषवशगेन प्रतिबन्धेन बहुविधेन तन्निन्दामि तच गर्हे ॥ ६५ ॥ हत्वा मोहजालं हिस्वा चाष्ट कर्माणि सङ्कलितानि । जन्ममरणारहट्टं भित्त्वा भवाद्विमोक्ष्यसे ।। ६६ ।। पञ्च च महाव्रतानि त्रिविधत्रिविधेनारुह्य मनोवचन कायगुप्तः सद्यो मरणं परिच्छिन्द्यात् (प्रतीच्छेत्) ||६७|| क्रोधं मानं मायां लोभं प्रेम तथैव द्वेपं च त्यक्त्वाऽप्रमत्तो रक्षामि महात्र For PF UO अथ पंच महाव्रत- रक्षार्थे विविध उपदेशवचन प्ररुप्यते ~ 12 ~ आहारादिभिरतृप्तिः ५३-६८ ॥ १४ ॥ parira Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम या) (२६) "महाप्रत्याख्यान” - प्रक ------------- मूलं [६८] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६८|| DEWA4%95 रक्खामि महत्वए पंच ॥ ६८ ॥ २०१ ॥ कलहं अभक्खाणं पेमुण्णपि य परस्स परिवायं । परिवजंतो गुत्तो रक्खामि महबए पंच ।। ६९ ॥ २०२॥ पंचिंदियसंवरणं पंचेव निरंभिऊण कामगुणे । अचासायणभीओ रक्खामि महबए पंच ॥७०॥ २०३॥ किण्हानीलाकाऊलेसा झाणाई अरुहाई । परिवळतो गुत्तो रक्खामि महयए पंच ।। ७१ ॥ २०४ ॥ तेऊपम्हासुक्कालेसा झाणाई धम्मसुक्काई । उवसंपन्नो जुत्तो रक्खामि महबए |पंच ।। ७२ ॥ २०५ ॥ मणसा मणसचधिक वायासचेण करणसच्चेण । तिविहेणवि सचविऊ रक्खामि महपए पंच ।। ७३ ॥ २०६॥ सत्तभयविप्पमुक्को चत्तारि निरंभिऊण य कसाए । अट्ठमयट्ठाणजडो रक्खामि | महबए पंच ॥ ७४ ॥ २०७॥ गुत्तीओ समिई भावणाओ नाणं च दंसणं चेव । उवसंपन्नो जुत्तो रक्खामि। | महबए पंच ॥७५ ।।२०८॥ एवं तिदंडविरओ तिकरणसुद्धो तिसल्लनिस्सल्लो। तिविहेण अप्पमत्तो रक्खामि | दीप x456* अनुक्रम [६८] तानि पञ्च ।। ६८ ।। कलहमभ्याख्यानं पैशून्यमपि च परस्प परिचादम् । परिवर्जयन् गुप्तो रक्षामि० ॥ ६९ ॥ पञ्चेन्द्रियसंवरणं (कत्वा)। पञ्चैव निरुध्य कामगुणान । अत्याशातनाभीतो रक्षामि० ॥ ७० ॥ कृष्णानीलाकापोतीलेश्या ध्याने आर्त्तरौटे। परि० ।। ७१ ॥ तैजसी-14 | पाशलालेश्या व्याने धमेशुले । उपसंपन्नो युक्तो रक्षामि० ।। ७२ ।। मनसा मनःसत्ययित् वाक्सरयेन करणसत्येन । विविधेनापि | सत्यविन् रक्षामि० ॥ ७३ ।। सप्नभयविषमुक्तश्चतुरो निरुध्य च कपायान् । त्यक्ताष्टमस्थानो रक्षामि० ।। ७४ ।। गुतीः समितीर्भावना शानं च दर्शनं चैव । उपसंपन्नो युक्तो रक्षामि० ॥७५।। एवं त्रिदण्डविरतनिकरणशुद्धनिशल्य निःशल्यः । त्रिविधेनाप्रमत्तो रक्षामि०॥४६॥ 4 JMEharitmanmadiamil ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [७६] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||७६|| २आतुरप्रामपए पंच ॥ ७६ ॥ २०९ ॥ संग परिजाणामि सल्लं तिविहेण उद्धरेफणं । गुत्तीओ समिईओ मज्झं ताणं || । महानतत्याख्यानेच सरणं च ॥७७ ॥ २१ ॥ जह खुहियचकवाले पोयं रयणभरियं समुईमि । निजामगा धरिती कयक- II रक्षास्वापदारणा बुद्धिसंपण्णा ।। ७८ ॥२११ ।। तवपोपं गुणभरियं परीसहुम्मीहि खुहियमारदं । तह आराहिति विऊ श्रयिता |उवएसवलंबगा धीरा ॥ ७९ ॥ २१२ ॥ जइ ताव ते सुपुरिसा आयारोवियभरा निरवयक्खा । पम्भारकंदर- ६९-८३ गया साहिती अप्पणो अह ॥ ८ ॥२१३ ।। जइ ताव ते सुपुरिसा गिरिकंदरकडगविसमदग्गेस । धिडध-11 |णियबद्धकच्छा साहिती अप्पणो अटुं ।। ८१॥ २१४ ॥ किं पुण अणगारसहायगेण अण्णुण्णसंगहबलेणं । परलोए णं सको साहेउं अप्पणो अहूं? ॥ ८२ ॥ २१५ ।। जिणवयणमप्पमेयं महरं कण्णाहई सुर्णतेणं । सको हु साहुमज्झे साहेउं अप्पणो अटुं ॥ ८३ ॥ २१६ ॥ धीरपुरिसपणतं सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । धन्ना सनं परिजानामि शल्यं त्रिविधेनोद्धृय । गुप्तयः समितयश्च मम त्राणं च शरणं च ।। ७७ ॥ यथा क्षुभितचकवाले पोतं रमभृतं समुद्रे । निर्यामका धारयन्ति कृतकरणा बुद्धिसंपन्नाः ॥७८।। तपःपोतं गुणभृतं परीषहोमीभिः क्षोभितुमारब्धम् । तथाऽऽराधयन्ति विद उपदेशा|वलम्बका धीराः ॥७९॥ यदि तावत्ते सुपुरुषा आत्मारोपितभरा निरपेक्षाः । प्राग्भारकन्दरगताः साधयन्त्यात्मनोऽर्थम् ॥८०॥ यदि तावत्ते सुपुरुषा गिरिकन्दरकटकविषमदुर्गेपु । धृतिगाढबद्धकक्षाः साध०ऽर्थम् ॥८१॥ किं पुनरनगारसहायकेन अन्यान्यसाबलेन । अपरलोकेन | ॥१५॥ (न) शक्यः साध० ॥८२।। जिनवचनमप्रमेयं मधुरं कर्णाभ्यां (कर्णाभूति) शृण्वता । शक्यः (न) साधुमध्ये साध०ऽर्थम् ।।८३॥ धीरपुरुष GROGRESCR दीप अनुक्रम [७६] REC--- 4250 JamthuntimminX ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [८४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||८४|| सिलायलगया साहिती अप्पणो अहं ॥ ८४ ॥ २१७ ॥ बाहिति इंदियाई पुधमकारियपइण्णचारीणं । अक-15) पपरिकम्मकीवा मरणे सुहसंगतायंमि ।। ८५ ॥ २१८॥ पुचमकारियजोगो समाहिकामो अ मरणकालंमि । न | भवइ परीसहसहो विसयसुहसमुइओ अप्पा ॥ ८॥ २१९॥ पुविं कारियजोगो समाहिकामो य मरणकालंमि । स भवइ परीसहसहो विसयसुहनिवारिओ अप्पा ॥८७ ॥ २२०॥ पुर्वि कांरिपजोगो अनिपाणो| इंहिण मइपुवं । ताहे मलियकसाओ सज्जो मरणं परिच्छिना ॥ ८८ ॥२२१ ॥ पावीणं पावाणं कम्माणं अप्पणो सकम्माणं । सका पलाइ जे तवेण सम्म पउत्तेणं ॥ ८९॥ २२२ ॥ इक पंडियमरणं पडिवजिया। सुपुरिसो असंभंतो । विप्पं सो मरणाणं काही अंतं अणंताणं ॥१०॥ २२३ ॥ किं तं पंडियमरणं? काणि | - दीप अनुक्रम - [८४] प्रा सत्यापनिसेवितं परमधोरम् । धन्याः शिलातलगता साधयन्त्यात्मनोऽर्थम् ॥ ८४ ॥ बाधयन्तीन्द्रियाणि पूर्वमकारितप्रकीर्णचा-11 रिणाम् । अकृतपरिकर्माणः क्लीया (आत्मानः) मरणे सुखसङ्गत्यागे (वाये ) ।। ८५ ।। पूर्वमकारितयोगः समाधिकामश्च मरणकाले । न भवति परीपहसहिष्णुर्विषयसुखसमुचित आरमा ।। ८६ ॥ पूर्व कारितयोगः समाधिकामच मरणकाले। संभवति परीपहरहो || निवारितविषयमख आत्मा ॥४७॥ पूर्व कारितयोगोऽनिदान ईहित्वा मतिपूर्वम् । तदा मर्दितकषायः सद्यो मरणं प्रतीच्छेत् ।। ८८॥12 सिपापानां पापेभ्यः कर्मभ्य आत्मनः सकर्मभ्यः (स्वकृतेभ्यः) । शक्यः पलायितुं तपसा सम्यक्प्रयुक्तेन ॥८९॥ एक पवितैमरणं प्रतिय सुपुरुषोऽसंभ्रान्तः । क्षिप्रं स मरणानां करिष्यत्यन्तमनन्तानाम् ॥१०॥ किं तत्पण्डितमरण? कानि वाऽऽलम्बनानि भणितानि । एताने || arrespreaseDE किं पंडितमरणं? इत्यादि प्रज्ञाप्यते ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [९१] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया उलआदुष्कृतगहीं प्रत सूत्रांक ||९१|| ३ महाप्र- व आलंवणाणि भणियाणि? । एयाई नाऊणं किं आयरिया पसंसंति? ॥९१ ॥ २२४ ॥ अणसणपाओवगम परिकर्मत्याख्यानं 131आलंयणाणभावणाओ अ । एयाई नाऊणं पंडियमरणं पसंसंति ॥ ९२ ॥ २२५ ॥ इंदियसुहसाउलओ दिघोरपरीसहपराइयपरज्झो । अकयपरिकम्मकीवो मुज्झइ आराहणाकाले ॥९३ ॥ २२६ ।। लज्जाइ गारवेण ॥१६॥ श्रुतमानः य बहुसुयमएण वावि दुचरियं । जे न कहति गुरूर्ण न हु ते आराहगा हुंति ॥ ९४ ॥ २२७ ॥ सुज्झइ दुक्क- ८४-९८ |रकारी जाणइ मग्गंति पावए कित्ति । विणिगृहितो जिंदह तम्हा आराहणा सेया ॥९५ ॥ २२८ ॥ नवि31 कारणं तणमओ संधारो नवि य फासुया भूमी। अप्पा खलु संधारो होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥९॥२२९।। VIजिणवयणअणुगया मे होउ मई झाणजोगमल्लीणा । जह तंमि देसकाले अमृढसनो चयह देहं ॥१७॥२३०॥ जाहे होइ पमत्तो जिणवयण (सइ)रहिओ अणाइत्तो। ताहे इंदियचोरा करिति तवसंजमविलोमं ॥१८॥२३१॥ ज्ञात्वा किमाचार्याः प्रशंसन्ति ? ॥ ९१ ।। अनशनंपादपोपगमनमालम्बनं ध्याने भावनाश्च । एतानि ज्ञात्वा पण्डितमरणं प्रशंसन्ति IN ॥ १२ ॥ इन्द्रियसुखसाताकुलो घोरपरीषहपराजितापराद्धः । अकृवपरिकर्मा कीयो गुह्यत्याराधनाकाले ।। ९३ । लज्जया गौरवेण च बहु श्रुतमदेन वाऽपि दुधरितम् । वे न कथयन्ति गुरुभ्यो नैव ते आराधका भवन्ति ।। ९४ ॥ शुध्यति दुष्करकारी जानाति मार्गगिति | प्राप्नोति कीर्तिम् । विनिगृहानो निन्दति ( विनिगूहमानो निन्द्यते ) तस्मादाराधना श्रेयसी ।। ९५ ॥ नैव कारणं तृणमयः संस्तारकः, नैव च प्रासुका भूमिः । आत्मैव संस्तारको भवति विशुद्ध मनो यस्य ।। ९६ ॥ जिनवचनमनुगता मम भवतु मतिर्ध्यानयोगमाश्रिता । यथा | तस्मिन देशकालेऽमूवसधारयजेयं देहम् ॥१७॥ यदा भवति प्रमत्तो जिनवचन (स्मृति) रहितोऽनायत्तः । तदेन्द्रियचौराः कुर्वन्ति सपःसंयम दीप अनुक्रम [९१] COM warellama ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं संस्कृतछाया) -------------- मूलं [९९] ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९९|| *र-969-69 % जिणवयणमणुगयमई ज वेलं होइ संवरपविहो । अग्गीव वाउसहिओ समूलडालं डहइ कम्मं ॥१९॥२२॥ जह डहइ वाउसहिओ अग्गी रुक्खे विहरिवणखंडे । तह पुरिसकारसहिओ नाणी कम्मं खयं णेई ॥१०० ॥ 31॥२३३ ॥ जं अन्नाणीकम्मं खबेइ बहुआर्हि वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥११॥ KI॥ २३४ ॥ नहु मरणमि उवग्गे सको बारसविहो सुपखंधो । सबो अणुचिते धणियंपि समयक्तेिणं ॥१०२ ॥ २३५ ।। इमिवि जंमि पए संवेग कुणइ वीयरायमए । सो तेण मोहजालं छिंदा अजनप्पओगेणं ॥ १०३ ॥ २३६ ॥ इकमिवि जंमि पए संवेगं कुणइ वीयरायमए । तं तस्स होइ नाणं जेण विरागत्सवमु. वह ॥ १०४ ॥ २३७ ॥ इमिवि जंमि पर संवेगं कुणइ बीयरायमए । वह नरो अभिक्खं तं मरणं तेण मरियचं ॥ १०५ ॥ २३८॥ जेण विरागो जायइ तं तं सहायरेण कायचं । मुच्चइ हु संघेगी अर्णतओ होइ बसं8 विलोम(प)म् ॥९८॥ जिनवचनानुगतमतियों वेलां ( यावत् ) भवति सारप्रविष्टः । अग्निरिव वायुसहितः समूळशाख दहति कर्म(वृक्षम् ) C॥९९ ॥ यथा दहति वायुसहितोऽग्निर्वित्य बनखण्डे । तथा पुरुषकारसहितो ज्ञानी कर्म क्षयं नयति ॥ १०० ॥ यत् अज्ञानी कर्म | अपयति बहुकामिवर्षकोटीभिः । तज्ज्ञानी विभिगुपः क्षपयत्युच्छासमात्रेम ॥ १०१ ॥ नैव मरणे उपापे शक्यो द्वादशविधः भुवस्मयः ।। |सर्वोऽनुचिन्तयितुं बाढमपि समर्थ चित्तेन ॥१०२।। एकस्मिन्नपि यस्मिन् दे संवेगं करोति वीतरागमते । स तेन मोहजालं हिनस्यध्याप्रयोPागेन ।। १०३ ।। एकस्मिनपि यस्मिन् पदे संवेगं करोति वीतरागमते । रत्तस्य भवति ज्ञानं येन विरागत्वमुपैति ।।१०।। एकस्मिन्नपि । जति नरोऽमीक्ष्णं तन्मरणं तेन मर्त्तव्यम् ॥१०५॥ येन किागो जायते तत्तन् सर्वादरेण कर्तव्यम् । मुच्यते संख्येष दीप * अनुक्रम 5* % [९९] % Farmeispirante-DIY Sawarelurgam ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१०६] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१०६|| दीप ३ महाप्र- वेगी॥ १०६ ॥ २३९ ।। धम्म जिणपन्नत्त सम्ममिण सद्दहामि तिविहेणं । तसधावरभूअहियं पंधं निवाणन-वैराग्यहेतु त्याख्यानं गरस्स ॥ १०७॥२४० ॥ समणोमित्ति य पढमं वीयं सवत्य संजओ मित्ति । सवं च वोसिरामि जिणेहिं ज व्युत्सर्जन जं च पडिकुटुं ॥ १०८ ॥ २४१ ॥ उवही सरीरगं चेव, आहारं च चउविहं । मणसावपकाएणं, वोसिरामिसिच९९-११३ ॥१७॥ IMभावओ ॥१०९||२४२।। मणसा अचिंतणिजं सर्व भासाइ अभासणिजं च । काएण अकरणिलं सर्व तिविरुण साबोसिरे ॥ ११०॥ २४३ ॥ अस्संजमत्तोगसणं (अस्संजमे बेरमण) उबही विवेगकरणं उवसमो (प)। अप्प-120 डिरुयजोगविरओ खंती मुत्ती विवेगो अ॥ १११ ॥ २४४ ।। एवं पचक्खाणं आउरजण आवईसु भावेण । *अण्णपरं पडिवपणो जंपतो पावइ समाहिं ॥ ११२॥ २४ ॥ एपंसि निमित्तंमी पञ्चक्खाऊण जइ करे कालं। तो पञ्चखाइयवं इमेण इकणवि पएणं ॥ ११३ ॥ २४ ॥ मम मंगलमरिहंता सिद्धा साह सुयं च धम्मो य अनन्तगो भवत्यसंविधः ॥१०६॥ धर्म जिनप्रज्ञप्तं सम्यग् इमं श्रद्दधे त्रिविधेन । बसस्थावरभूतहित पन्थानं निर्वाणनगरस्य ।। १०७॥ है अमणोऽस्मीति च प्रथम द्वितीबं सर्वत्र संयतोऽस्मीति । सर्व च व्युत्सृजामि जिनैर्यद् यच्च प्रतिकुष्ठम् ॥ १०८ ॥ उपधि शरीरमेव आहार चतुर्विधम् । मनोवाकायैर्युत्मजामि इति भावतः ॥१०९।। मनसाऽचिन्तनीयं सर्व भाषयाऽभाषणीयं च । कायेनाकरणीयं सर्व त्रिवि-I धेन व्युत्सृजामि ॥११०॥ असंयमत्वापकषणं (असंयमाद्विरमणं) उपधिविवेककरणमुपशमः (च)। अप्रतिरुयोगविरतः शान्तिर्मुक्तिर्वि-18 |वेकच ।। १११ ॥ एतत्प्रत्याख्यानमातुरजन आपत्सु भावेन । अन्यतरत्प्रतिपन्नो जल्पन (यत् प्राप्तः) प्राप्नोति समाधिम् ।।११२।। एतस्मिन ॥१७॥ निमित्ते प्रत्याख्याय यदि (यतिः ) करोति कालम् । तत् प्रत्याख्यातव्यमनेनैकेनापि पदेन ।। ११३ ।। मम मङ्गलमहन्तः सिद्धाः साधवः अनुक्रम [१०६] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [११४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||११४|| दीप तेसिं सरणोवगओ सावलं वोसिरामित्ति ॥ ११४ ॥ २४७ ।। अरहंता मंगलं मजन, अरहंता मज्म देवया। द अरहते कित्सइत्ताणं, बोसिरामित्ति पावगं ॥ ११५ ॥ २४८॥ सिद्धा य मंगलं मजा, सिद्धा प मजा देवया। सिद्धेय कित्सइत्ताणं, बोसिरामित्ति पावगं ॥ ११६॥२४९ ।। आयरिया मंगलं मा, आयरिया मजा देवया ।। आयरिए कित्तइत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ।। ११७ ॥ २५० ॥ उज्झाया मंगलं मझ, उज्झाया मज्झ| देवया । उजमाए किसहसाणं, बोसिरामित्ति पावगं ॥ ११८ ॥२५१ ।। साहू य मंगलं मज्म, साह य मज्ज्ञ देवया । साह य कित्तइत्साणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ११९ ।। २५२ ।। सिद्धे उवसंपण्णो अरहते केवलित्ति भावेणं । इसो एगयरेणवि पएण आराहओ होइ ॥ १२० ॥ २५३ ॥ समुइण्णवेयणो पुण समणो हियएण| किंपि चिंतिजा । आलंबणाई काई काऊण मुणी दुहं सहइ ? ॥१२१ ॥ २५४ ॥ घेयणासु उहन्नासु, कि मे सत्तं श्रुतं च धर्म । तेषां शरणमुपगतः सावध व्युत्सृजामीति ।। ११४ । अर्हन्तो मङ्गलं मम अईन्तो मम देवताः । अर्हतः कीर्तयित्वा | व्युत्सुनामीति पापकम् ।। ११५ । सिद्धाश्च मङ्गलं मम सिद्धाश्च मम देवताः । सिद्धांध कीर्तयिता ब्युत्सृजामीति पापकम् ।। ११६ ॥ | आचार्या मालं मम आचार्या मम देवताः । आचार्यान् कीर्तयित्वा रुयुत्सूजामीति पापकम् ।। ११७ ।। उपाध्याया मङ्गलं मग उपाध्याया| मम देवताः । उपाभ्यावान कीर्तयित्वा व्युत्सृजामीति पापकम् ॥ ११८ ॥ साधवश्व मङ्गलं मम साधवन मम देवताः । साधुंध कीयित्वा | व्युत्सृजामीति पापकम् ।। ११९ ।। सिद्धानुपसंपन्नः अर्हतः केवलिन इति भावेन । एषामेकतरेणापि पदेनाराधको भवति ।। १२० ।। समुदीर्णवेदनः पुनः श्रमणो हदये किमपि (किं वि) चिन्तयेत् । आलम्बनानि कानि कृत्वा मुनिर्दुःखं सहते ? ॥१२१॥ वेदनामीणोनु किं मम || अनुक्रम [११४] अरहंत आदीनाम् मंगलत्वं ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१२२] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया ३ महाप- त्याख्यानं ॥१८॥ प्रत सूत्रांक ||१२२|| निवेयए । किं वाऽऽलंघणं किचा, तं दुक्खमहियासए? ॥ १२२॥ २५५ ॥ अणुत्तरेसु नरएसु, वेयणाओ अणु-12 अहंदादित्तरा । पमाए वद्दमाणेणं, मए पत्ता अणंतसो ॥ १२३ ।। २५६ ॥ मए कयं इमं कम्म, समासज्ज अयोहि । शरणं पतापोराणगं इमं कम्म, मए पत्तं अणंतसो ॥१२४ ॥ २५७॥ ताहिं दुक्खविवागाहि, उवचिषणाहिं तहिं तर्हि काहरणं च न य जीवो अजीवो उ, कयपुछो उ चिंतए । १२५ ॥ २५८॥ अम्भुजुयं विहारं इत्थं जिणएसियं विउप- ११४-२९ सत्यं । नाउं महापुरिससेवियं अन्भुजुयं मरणं ॥ १२६ ॥ २५९॥ जह पच्छिमंमि काले पच्छिमतित्थपरदे-15 सियमुयारं । पच्छा निच्छयपत्थं उवेमि अन्भुजुयं मरणं ॥ १२७ ।। २६० ॥ यत्तीसमंडियाहिं कडजोगी| जोगसंगहवलेणं । उज्जमिऊण य बारसविहेण तवणेहपाणेणं ॥ १२८॥ २६१ ॥ संसाररंगमझे धिइवलव-12 वसायबद्धकच्छाओ । हतूण मोहमलं हराहि आराहणपडागं ॥ १२९ ॥ २६२ ॥ पोराणगं च कम्मं स्खयेई सस्त्रं (इति) निवेदयेत् । किं वाऽऽलम्बनं कृत्वा तदुःखमध्यास्ते ।। १२२ ।। अनुत्तरेषु नरकेषु वेदना अनुत्तराः। प्रमादे वर्तमानेन | मया प्राप्ता अनन्तशः ॥ १२३ ।। मया कृतमिदं कर्म समासाद्यावोधिकम् । पुराप्पमिदं कर्म मया प्राप्तमनन्तशः ॥ १२४ ।। वाभिर्दुःख-12 विपाकामिरुषचीर्णानिस्तत्र तत्र । न च जीवस्त्वजीवः कृतपूर्वस्तु (इति) चिन्तयेत् ।। १२५ ।। अभ्युद्यतं विहारमित्यं जिनदेशितं विद्वत्प्रदा-1 सम् । शात्वा महापुरुषसेवितमभ्युदातं मरणम् ।। १२६ ॥ यथा पश्चिमे काले पश्चिमतीर्थकरदिष्टमुपकारम् । पञ्चानिश्चयपध्वमुप-14 याम्यभ्युद्यतं मरणम् ॥१२७॥ द्वात्रिंशन्मण्डिकामिः कृतयोगी योगसहबलेन । उद्यम्य च द्वादशविधेन तपःस्नेहपानेन ॥१२८॥ संसार-B en रगमध्ये धृतिषलव्यवसायबद्धकच्छः। हत्वा मोहमलं हराराधनापताकाम् ।। १२९ ।। युग्मम् । पुराणं च कर्म क्षपयति अन्यन्नवं च न दीप अनुक्रम [१२२] JindustanianimdianR I ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१३०] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [03] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१३०|| अन्नं नवं च न चिणाइ । कम्मकलंकलवल्लिं छिंदह संधारमारूढो ॥१३० ॥ २६३ ॥ आराहणोवउत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं । 'उकोसं तिन्नि भवे गंतूण लभिज निवाणं ॥ १३१ ॥ २६४॥ धीरपुरिसपन्नत्तं सप्पुरिसनिसेषियं परमघोरं । ओइपणो हु सि रंग हरसु पडायं अविग्घेणं ॥ १३२ ॥ २६५ ॥ धीर ! पडागाहरणं करेह जह तंमि देसकालंमि । सुत्सत्थमणुगुणंतो पिइनिचलषद्धकच्छाओ॥ १३३ ॥ २६६ ॥ चत्तारि कसाए तिमि गारवे पंच इंदियग्गामे । हंता परीसहच हराहि आराहणपडागं ॥१३४॥ २६७ ॥ माऽऽया! बहुव चिंतिजा जीवामि चिरं मरामि व लहुंति । जइ इच्छसि तरि जे संसारमहोअहिमपारं ॥१३५॥२६८ जइ इच्छसि नित्थरि सोर्सि चेव पावकम्माणं । जिणवयणनाणदंसणचरिसभावुजुओ जग्ग ।। १३६ ।। |॥२६९॥ दंसणनाणचरितं तवे प आराहणा चउक्खंधा । सा चेव होइ तिविहा उक्कोसा मज्झिम जहन्ना ॥१३७।। [चिनाति । कर्मकलाली छिनत्ति संस्तारकमासदः ॥ १३० ॥ आराधनोपयुक्तः सम्यक् कृत्वा सुविहितः कालम् । उत्कर्षतस्वीन भवान | गवा लभते निर्वाणम् ॥ १३१ ।। धीरपुरुषपक्षप्तं सत्पुरुषनिषेवितं परमघोरम् । अवतीर्णोऽसि रणे हर पताकामविनेन ।। १३२ ॥ धीर। पताकाहरणं कुरु यथा तस्मिन् देशकाले । पूधामनुगुणयन् धृतिनिश्चलबद्धकरछः ॥ १३३ ॥ चतुरः कषायान् प्रीणि गौरवाणि पञ्चे-15 [न्द्रियग्रामम् । हत्वा परीपहप हरा(हरिष्यस्या)राधनापलाकाम् ॥ १३४ ॥ मा बारमन् ! चिन्तयेर्जीवामि चिरं प्रिये वा लघु इति ।। यदीच्छसि तरीतुं संसारमहोदधिमपारम् ।। १३५ ॥ यदीच्छसि निस्तरीतुं सर्वेभ्य एवं पापकर्मभ्यः । जिनवचनज्ञानदर्शनचारित्रभावोद्यो| व. स. 16 जागाति ।। १५ । दर्शनशानचारित्राणि तपशाराधना चतःकन्या । गा मैत भवति विविधा का TT पर 23001 दीप अनुक्रम [१३०] %* % CCC %% ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२६) “महाप्रत्याख्यान” - प्रकीर्णकसूत्र-३ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१३८] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२६], प्रकीर्णकसूत्र - [०३] "महाप्रत्याख्यान" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१३८|| महाप्रत्यारा॥ २७० ॥ आराहेऊण विऊ उक्कोसाराहणं चउक्खं । कम्मरयविप्पमुक्को तेणेव भवेण सिज्झिजाआरा ख्यानं १३८ ॥ २७१ ॥ आराहे ऊण विऊ जहन्नमाराहणं चउक्खधं । सत्सट्ठभवग्गहणे परिणामेऊण सिजिझवाफलं १३०भक्तपरिज्ञा ॥१३९॥२७२ ॥ सम्मं मे सबभूएसु, धेरै मज्झ न केणइ । खामेमि सबजीचे, खमामऽहं सबजीवाणं ॥१४०॥ ४२-१ 1॥२७॥ धीरेणवि मरियावं काऊरिसेणविऽवस्स मरियवं । दुण्हपि य मरणाणं बरं खु धीरत्तणे मरिउं ॥१४॥४ 1॥ २७४ ॥ एवं पञ्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्मं । वेमाणिओ व देवो हविज अहवावि सिज्झिज्जा ॥ १४२ ॥ २७५ ।। इति महापञ्चक्खाणपइण्णं संमत्तं ॥३॥ दीप अनुक्रम [१३८] SAACADCANCCC** आराज्य विद्वान् उत्कृष्टाराधनां चतुःस्कन्धाम् । कर्मरजोविप्रमुक्तस्तेनैव भवेन सिद्धयेत् ॥१३८।। आराध्य विद्वान जघन्यामाराधनां चतुःस्कधाम् । सप्लाष्ट्रभवाणैः परिणम्य सिद्धयेन् ॥ १३९ ।। साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचिन् । क्षमयामि सर्वजीवान क्षाभ्याम्यहं । सर्वजीवानाम् ॥ १४० ॥ धीरेणापि मर्त्तव्यं कापुरुषेणापि अवश्यं मर्तव्यम् । द्वयोरपि मरणयोरमेव धीरत्वेन मर्नुम् ॥ १४१ ।। एतप्रत्याख्यानमनुपाल्य मुविहितः सम्यक् । वैमानिको बा देवो भवेन् अथवाऽपि सियेत् ॥१४२।। इति महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम 1x मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २६) “महाप्रत्याख्यान” परिसमाप्त: ~ 22~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 26 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छाया:] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “महाप्रत्याख्यान” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~ 23~