Book Title: Yugpradhan Jinchandrasuri Charitam Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Abhaychand Seth View full book textPage 8
________________ सं० १६७८ में उन्हीं के साथ सूरत चौमासा कर १६७६ से ८५ तक राजस्थान व मालवा में केशरमुनिजी व रत्नमुनिजी के साथ विचरकर चार वर्ष बम्बई विराजे । सं० १९८६ का चौमासा जामनगर करके फिर कच्छ पधारे। मेराऊ, मांडवी, अंजार, मोटीखाखर, मोटा आसंबिया में क्रमशः चातुर्मास कर के पालीताना और अहमदाबाद में दो चातुर्मास व बम्बई, घाटकोपर में दो चातुर्मास किये। सं० १६६६ में सूरत चातुर्मास कर के फिर मालवा पधारे । महीदपुर, उज्जैन, रतलाम में चातुर्मास कर सं० २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, ब्यावर और गढसिवाणा में सं० २००८ का चातुर्मास बिता कर कच्छ पधारे सं० २००६ में भुज चातुर्मास कर श्री जिनरत्नसूरिजी के साथ ही दादावाड़ी की प्रतिष्ठा की। फिर मांडवी, अंजार, मोटाआसंबिया, भुज आदि में बिचरते रहे । सं० १९७६ से २०११ तक जब तक श्रीजिनरत्न सूरि जी विद्यमान थे. अधिकांश उन्हीं के साथ विश्वरे, केवल दस बारह चौमासे अलग किये थे। उनके स्वर्गवास के पश्चात् भी आप वृद्धावस्था में कच्छ देश के विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे । आप बड़े विद्वान, गंभीर और अप्रमत्त विहारी थे । विद्यादान का गुण तो आपमें बहुत ही श्लाघनीय था । काव्य, कोश, न्याय. अलंकार, व्याकरण और जैनागमों के दिग्गज विद्वान होने पर भी सरल और निरहंकार रहकर न पांच Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 156