Book Title: Yogsara Pravachan Part 01 Author(s): Devendra Jain Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust View full book textPage 2
________________ गाथा-१ वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण ३, सोमवार, दिनाङ्क ०६-०६-१९६६ गाथा १ से ३ प्रवचन नं.१ भगवान आत्मा शुद्ध चिदानन्द मूर्ति सिद्धस्वरूपी आत्मा है। 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' इस आत्मा का स्वरूप जैसे सिद्ध भगवान, अशरीर सिद्ध परमात्मा आठ कर्मरहित हुए, उनका यहाँ पहले माङ्गलिक करेंगे। ऐसा ही आत्मा, सिद्ध समान आत्मा है, उसके अन्तरस्वरूप में उसका योग अर्थात् आत्मा में दर्शन-ज्ञान-चारित्र के अन्तर व्यापार द्वारा सार अर्थात् प्रगट सिद्ध परमात्मदशा प्रगट करना, उसे यहाँ योगसार कहा जाता है। समझ में आता है ? 'योगेन्द्रदेव' महामुनि दिगम्बर सन्त लगभग चौदह सौ वर्ष पहले भरतक्षेत्र में, महाप्रभु कुन्दकुन्दाचार्य के बाद भरतक्षेत्र में हुए हैं। लगभग पूज्यपादस्वामी के बाद ये हुए हैं । इन्होंने यह परमात्मप्रकाश एक बनाया है और एक यह योगसार (बनाया है)। अपने परमात्मप्रकाश के व्याख्यान पूर्ण हो गये हैं। अब योगसार (चलेगा)। देखो, पहला नमस्कार माङ्गलिक करते हैं। पहले माङ्गलिक करते हैं। योगेन्द्रदेव' स्वयं योगसार' के प्रारम्भ में माङ्गलिक (करते हैं)। स्वयं महासन्त हैं, आचार्य हैं, अल्प काल में केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्ति जाने के पात्र और योग्य हैं। ऐसे ग्रन्थकर्ता योगेन्द्रदेव' शुरुआत में महान माङ्गलिकरूप में सिद्ध परमात्मा को याद करते हैं, सिद्ध भगवान का स्मरण करते हैं। सिद्धों को नमस्कार णिम्मलझाण परिट्ठया कम्मकलंक डहेवि। अप्पा लद्धउ जेण परु ते परमप्प णवेवि॥१॥ जिन्होंने... तीसने पर में 'जेण' शब्द है न? 'जेण' अर्थात् जिन्होंने... 'णिम्मलझाण परिट्ठया'-शुद्ध ध्यान में स्थिर होकर... देखो! यहाँ से बात ली है। कर्म नष्ट हुए और यह ध्यान हुआ - ऐसा नहीं है। कुछ समझ में आया? 'णिम्मलझाण परिट्ठया' ये सिद्ध भगवान कैसे हुए? परम आत्मा अशरीरी-णमो सिद्धाणं... । यह पाँचPage Navigation
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