Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth Author(s): Kalyanvijay Gani Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh View full book textPage 8
________________ -: दो शब्द : जिस मनुष्य का जीवन ज्ञान, ध्यान और तप में निरन्तर रहता है, तथा जो बड़ों को सम्मान की दृष्टि से देखता है, और परगुणानुरागी बन कर गुणवानों की सेवा करता है, वही सेव्य बन जाता है। संसार की जनता उसको पूज्य भाव से मानती है, उसके उपकारों को नहीं भूलती है, उसके शुद्धाचरणों का अनुकरण कर अपने हित के लिये कल्याणकारी मार्ग को पकड़ लेती है । दया धर्म की भावना भारत की प्रजा में सर्व श्रेष्ठ मानी जाती है और श्रद्धालु विनयी, विवेकी, भक्तिभाववाली जनता विश्व में सुख शान्ति धाम को प्राप्त करती है । भगवान महावीर प्रभु के संदेश में सर्व प्रथम मैत्रीय भावना का सर्वोत्तम सूत्र है । इस सूत्र का उद्देश्य यह है कि जीव मात्र को प्रेम की दृष्टि से देखो । जहाँ हिंसा है वहाँ कारुण्य भाव का अभाव है । कारुण्य भाव के अभाव में अधोगति प्राप्त होती है । जहाँ अहिंसा है वहा धर्म- सत्य- धैर्य आदि गुणमयी महा विभूतियां आत्म स्वरूप में रमने लगती हैं । उसीसे पथिकों का आत्म-उत्थान होता है "समभाव भावी अप्पा" जो प्राणी इस पाठ को ध्यान मे रखता है और शनैः शनैः सम-भाव की शुभ श्रेणी में निजकृत कर्मों की अलोचना करता है । जो मुनिवर प्रमाद रहित चारित्र की आराधना में विचरते हैं । उन त्यागी महापुरुषों का जीवन चरित्र पढना, उनके सद्गुणों की श्लाघा करना, उनके उत्तम गुणों कों अपने जीवन में उतारना यही मानव के जीवन की सफल साधना है । उपन्यास और सिनेमा आदि के साहित्य से आत्मोत्थान नहीं होता; किंन्तु मोहरूपी अन्धकारमें आत्मगुणों को गवाँ कर प्राणी संसार में भटकते रहते हैं । मनुष्य बिगड़ता है तो बुरी सोबत से और सुधरता है तो अच्छी सोबत से । इससे महा पुरुषों की सोबत करना, उनके उत्तम साहित्य से प्रेम करके लाभ उठाना चाहिये और उसी से ही मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। फिर भी जनता का नायक बन कर पूज्य पद को प्राप्त करता है । इसी उद्देश्य को लेकर वर्तमान जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का दीक्षा पर्याय ६२ वर्ष का हुआ, यह जान कर हमको बड़ी खुशी है कि ऐसे महापुरुष का अभिनंदन करने का सौभाग्य प्राप्त हो, इस के साथ साथ गुरुदेव के शिष्य मुनिमंडळ के भाव हमारे साथ में मेलजोल करने लगा जब सोने में सुगंध हो उठी तब । अभिनंदन ग्रन्थ का कार्य सुचारू रूप से चलने लगा । मुनि-मंडल ने अभिनंदन ग्रंथ के लिये जो अपना अमूल्य समय दिया उसके लिये हम धन्यवाद देते हैं और कहते हैं कि इस प्रकार समय-समय पर समाज के उत्थान के हेतु सहयोग देते रहें, उत्साह बढ़ाते रहे। श्री राजेन्द्रसभा के सदस्यों की बैठक श्री मोहन खेडा तीर्थ में बुलाई गई । मुनि मंडल की ओर से सभा में प्रस्ताव रखा कि अभिनंदन महोत्सव कहाँ मनाया जाय । सभा के सदस्यों ने कहा कि जहाँ मुनि मंडल की इच्छा हो वहाँ मनायें। कुछ दिनों के बाद में राजगढ से विहार करते हुए गुरुदेव खाचरोद में पधारे। गुरुदेव का दीक्षा स्थान खाचरोद ही है, यह जान कर मुनि मंडळ ने खाचरोद भी संघ के समक्ष अभिनंदन महोत्सव मनाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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