Book Title: Vyavahar Sutram
Author(s): Manekmuni
Publisher: Jain Shwetambar Sangh

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रमणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, आदिशब्दात् येषु स्थानेष्वीर्यापथिकया प्रतिक्रमेतव्यं, तेषु चेत् तथा न प्रतिक्रामति, तर्हि प्रायश्चित्तं निर्विकृतमिति, तथा निव्वीतिय इत्यादि आवासे आवश्यके एकादिकायोत्सर्गे सर्वावश्यकाकरणेच यथासंख्यं निर्विकृतिकपूर्वार्द्धाचाम्लक्षपणानि, इयमत्र भावना आवश्यके यद्यकं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायश्चित्तं निर्विकृतिक, कायोत्सर्गद्वयाकरणे पूर्वार्द्ध, त्रयाणामपि कायोत्सर्गाणामकरणे आचाम्ल, सर्वस्यापि वावश्यकस्याकरणे अभक्तार्थमिति जं जस्स च पच्छितं पायरियपरंपराए अविरुद्धं, जोगाय बहु विगप्पा एसो खलु जीयकप्पो भा१२॥ यत् प्रायश्चित्तं यस्याचार्यस्य गच्छे आचार्यपरंपरागतत्वेनाविरुद्धं, न पूर्वपुरुषमर्यादातिक्रमण विरोधभार, यथान्येषामाचार्याणां नमस्कारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानस्याकरणे कृतस्य वा भंगे प्रायश्चित्तमाचाम्लं, तथा आवश्यकगतैककायोत्सर्गाकरणे पूर्वार्द्ध कायोत्सर्गद्वयाकरणे एकाशनकमित्यादि तथा ये योगा उपधानानि बहुविकल्पा गच्छभेदेन बहुभेदा प्राचार्यपरंपरागतत्वेन चाविरूद्धायथा नागिलकुलवंशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोपपातिकदशाः, तावन्नास्ति आचाम्लं, केवलं निर्विकृतिकेन ते पठति आचार्यानुज्ञाताश्च विधिना कायोत्सर्ग कृत्वा विकृतीः परिभुंजते, तथा कल्पव्यवहारयोः चंद्रप्रज्ञप्तिसूर्यप्रज्ञप्त्योश्च केचिदागाढं योगं प्रतिपन्ना अपरे त्वनागाढमिति, एस खलु जीयकप्पो उ इति एष सोपि खलु गच्छभेदेन प्रायश्चित्तभेदो योगभेदश्चाचार्यपरंपरागतो जीतकल्पो जीतव्यवहारो वेदितव्यः उक्तो व्यवहारः ॥ छ । संप्रति व्यवहारिणः इति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराह For Private and Personal use only

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