Book Title: Vyavahar Sutram
Author(s): Manekmuni
Publisher: Jain Shwetambar Sangh
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अत्र प्रथमं कार्य दर्पः, तत्र प्रथमं पदं दर्पस्तन्निमित्तं प्रथमं षट्कं व्रतपट्कं तत्राभ्यंतरमंतर्गतं प्रथमं स्थानं प्राणातिपात: पढमस्सय कज्जस्सय, पढमेण पण सेवियं जंतु; पढमे छक्के श्रभिंतरं तु बीयं भवे ठाणे ॥२॥ द्वितीयं स्थानं मृपावादः, एवमदत्तादानादिष्वपि भावनीयं | छ ।
पढमस्य कज्जस्य पढमेण परण सेवियं जंतु, बिइए के अभितरं तु पढमंभवेठाणं ॥ ३ ॥
अत्र द्वितीयं षट्कं कायषट्कमित्यादि एवं तेन कथितेन श्राचार्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्यस्वयं वागमनं करोति, शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थं प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारविशुद्धिं कथयति, धारणाव्यवहारो नाम गीतार्थेन संविग्नेनाचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाचावलोक्य यस्मिन्नपराधे यत् प्रायश्चित्तम् अदायि, तत्सर्वमन्यो दृष्टवा तेष्वेव द्रव्यादिषु तादृश एवापराधे तदेव प्रायश्चितं ददाति, एप धारणाव्यवहारः, अथवा वैयावृत्यकरस्य गच्छोपग्राहिणः स्पर्द्धकखामिनो वादेशदर्शनसहायस्य वासंविग्नस्योचितप्रायश्चित्तदानं धारणमेष धारणाव्यवहारः एतौ चद्वावप्यर्थात्मकत्वादर्थग्रहणेन सूचितौ, जीतव्यवहारस्तु जीतशब्देनैव साक्षादुपात्तः, अथ जीतमिति कोऽर्थः इत्यत आह बहुजणेत्यादि बहुभिर्जने गतार्थैश्रीणं बहुजनाचीर्णमिति, वा उचितमिति वा जीतमिति वा एकार्थ किमुक्तं भवति बहुजनाचीर्णं नाम जीतमिति तमेवजी तथ्यवहारं दर्शयति ॥ ३ ॥ दद्दुरमादिसु कलाणगं तु विगलिदिएसु भत्तट्ठो, परियावणा एतेसिं चउत्थमायंबिला हुंति ॥ १० ॥
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