Book Title: Vyavahar Sutram
Author(s): Manekmuni
Publisher: Jain Shwetambar Sangh
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श्री व्यवडारसूत्रस्य
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दव्वंमि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था; उत्तरदव्व प्रगीयागीयावालंचपक्खेहिं । भा१३|| व्यवहारिणचतुर्द्धा तद्यथानामव्यवहारिणः, स्थापनाव्यवहारिणः, द्रव्यव्यवहारिणो, भावव्यवहारिणश्च तत्र नामस्थापने सुज्ञाते द्रव्य व्यवहारिणो द्विधा आगमतो नोश्रागमतश्च तत्रागमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञास्ते चानुपयुक्ता, नोश्रागमतत्रिविधाज्ञशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्, तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीर द्रव्यव्यवहारिणः प्रतीताः, तद्व्यतिरिक्ता द्विविधा लौकिका लोकोत्तरिकाथ, भावव्यवहारिणोऽपि द्विधा श्रागमतो नोचागमतच आगमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञास्तत्रैवोपयुक्ताः नोमतो द्विधा लौकिका लोकोत्तरिकाच तत्र पूर्वार्द्धन नोआगमतो द्रव्यभाव लोकिक व्यवहारिणः प्रतिपादयति, द्रव्ये विचार्यमाणे नोश्रागमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तालौकिकाव्यवहारिणः खलु लंचिल्लाइति, लंचाउत्कोच इत्यनर्थांतरं तद्वन्तः किमुक्तं भवति ? परलंचामुपजीव्य ये सापेक्षाः संतो व्यवहारपरिच्छेदकारिणस्ते द्रव्यतो लौकिका व्यवहारिणः, भावतो उ मज्झत्थाइति भावतः पुननौयागमतो व्यवहारिणो मध्यस्था मध्य रागद्वेषयोरपांतराले तिष्टंतीति मध्यस्थाः ये परलंचोपचारमंतरेणारक्ताद्विष्टाः संतोन्यायैकनिष्ठतया व्यवहारपरिच्छेत्तारस्ते नोचागमतो लौकिक भावव्यवहारिण इति भावः, अधुना लोकोत्तरिकान् नोद्यागमतो द्रव्यव्यवहारिणः प्रतिपादयति, उत्तरदव्य अगीया इत्यादि उत्तरे लोकोत्तरे द्रव्ये विचार्यमाणा नोश्रागमतो द्रव्यव्यवहारिणोऽगीता प्रगीतार्थाः ते हि यथावस्थितं व्यवहारं न कर्तुमवबुध्यते, ततस्तद्द्रव्यव्यवहारो द्रव्यव्यवहार एव भावस्थ यथावस्थितपरिज्ञानलक्षणस्याभावात् द्रव्यशब्दोऽत्राप्रधानवाची, अप्रधानव्यवहारिणस्ते इत्यर्थः, गीयावालंचपक्खेहिं इति, यदिवागीतार्था अपि संतो ये परलंचामुपजीव्य व्यवहारं परिच्छिदंति तेऽपि द्रव्य व्यवहारिणोऽथवा
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पीठिका
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